Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

फार्बिसगंज हत्याकाण्ड : नीतीश कुमार सरकार के ”सुशासन” का असली चेहरा!

पुलिस ने गाँव वालों को उनके घरों तक खदेड़-खदेड़ कर मारा। 18 वर्षीय मुस्तफा अंसारी को पुलिस ने चार गोलियाँ मारीं जिससे वह मृतप्राय अवस्था में ज़मीन पर गिर पड़ा। लेकिन इतने से उनकी हैवानियत शान्त नहीं हुई। सुनील कुमार नाम का पुलिस वाला ज़मीन पर पड़े अधमरे मुस्तफा के चेहरे पर कूद-कूदकर अपने पैरों से उसे कुचलने और अपने बूटों से उस पर पागलों की तरह प्रहार करने लगा जबकि वहाँ खड़े पुलिस वालों से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक सब के सब तमाशबीन की तरह देखते रहे। पुलिस फायरिंग का शिकार दूसरा शख्स मुख्तार अंसारी था जिसे सिर में तीन और एक गोली जाँघ में लगी। पगलाई पुलिस ने गर्भवती माँ और सात माह के बच्चे तक को नहीं बख्शा। 6 माह की गर्भवती शाज़मीन खातून को 6 गोलियों (चार सिर में) से छलनी करने के बाद पुलिस के एक सिपाही ने ज़मीन पर पड़ी लाश पर राइफल की बट से वार कर उसके सिर को फाड़ डाला और उसका दिमाग़ बाहर आ गया। 7 माह के नौशाद अंसारी की दो गोलियाँ लगने से मौत हो गयी। इसके अलावा फायरिंग में आधा दर्जन से भी अधिक लोग घायल हुए। मरने वालों में सभी मुस्लिम थे।

अयोध्‍या फ़ैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (दूसरी व अन्तिम किस्त)

इतिहास में पहले जो घटनाएँ घटित हुईं उनका हिसाब वर्तमान में चुकता नहीं किया जा सकता और न किया जाना चाहिए। इतिहास को पीछे नहीं ले जाया जा सकता और न ले जाया जाना चाहिए। आज का ज़िन्दा सवाल यह है ही नहीं। जिस देश में 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीते हों; जहाँ के बच्चों की आधी आबादी कुपोषित हो; जहाँ 28 करोड़ बेरोज़गार सड़कों पर हों; जहाँ 36 करोड़ लोग या तो बेघर हों या झुग्गियों में ज़िन्दगी बिता रहे हों; जहाँ के 60 करोड़ मज़दूर पाशविक जीवन जीने और हाड़ गलाने पर मजबूर हों; और जहाँ समाज जातिगत उत्पीड़न और स्त्री उत्पीड़न के दंश को झेल रहा हो, वहाँ मन्दिर और मस्जिद का सवाल प्रमुख कैसे हो सकता है? वहाँ इतिहास के सैकड़ों वर्ष पहले हुए अन्याय का बदला लेना मुद्दा कैसे हो सकता है,जबकि वर्तमान समाज में अन्याय और शोषण के भयंकरतम रूप मौजूद हों?

अयोध्‍या फैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (पहली किश्त)

केन्द्र में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार किसी भी हालत में मन्दिर मुद्दे को लेकर देश में कोई ध्रुवीकरण नहीं चाहती। इसका कारण कांग्रेस का सेक्युलरवाद नहीं है। वह कितनी सेक्युलर है, यह तो अयोध्‍या में मन्दिर विवाद का इतिहास ही दिखला देता है! इसका कारण यह है कि अभी चुनावी गणित में कांग्रेस की गोटियाँ अच्छी तरह से सेट हैं। यह सन्तुलन मन्दिर मुद्दे पर शान्ति भंग होने से बिगड़ सकता है, और भाजपा की डूब रही नैया अचानक उबरकर हावी भी हो सकती है। इसलिए कांग्रेस भी हर तरह से इस मुद्दे को गरमाने से बचाने में लगी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार भी अच्छी तरह इस बात को समझ रही थी कि एक बार जाति की राजनीति पर धर्म की राजनीति हावी होने का ख़ामियाज़ा प्रदेश में जातिगत राजनीति पर निर्भर सभी दलों को उठाना पड़ा था (जिसे टकसाली पत्रकार ‘मण्डल पर मन्दिर के हावी होने’ का नाम देते हैं)। अगर ऐसा फिर होता तो मायावती को मुख्य रूप से इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उत्तर प्रदेश में भी मन्दिर मुद्दे को लेकर शान्ति भंग होने से रोकने के लिए मायावती ने अभूतपूर्व इन्तज़ाम किये थे। तीसरी और आख़िरी बात यह कि देश के शासक वर्गों को ऐसे किसी धार्मिक ध्रुवीकरण की फिलहाल कोई ज़रूरत भी नहीं थी। आप याद कर सकते हैं कि जब-जब मन्दिर विवाद को दंगे-फसाद में तब्दील कर जनता को बाँटा गया है, तब-तब देश किसी न किसी राजनीतिक या आर्थिक संकट का शिकार था। 1949 में जब कुछ साम्प्रदायिक फासीवादी तत्वों ने बाबरी मस्जिद के गुम्बद के नीचे राम की मूर्तियाँ रख दी थीं, उस समय आज़ादी के बाद देश की पूँजीवादी सत्ता अभी स्थिरीकरण की प्रक्रिया में थी और देश के कई हिस्सों में किसान संघर्ष चल रहे थे। देश दरिद्रता की स्थिति में था। 1986 में जब मस्जिद का ताला खुलवाया गया और बाद में शिलान्यास हुआ तब भी देश भयंकर आर्थिक संकट से गुज़र रहा था; बेरोज़गारी भयंकर रूप अख्तियार कर चुकी थी, मुद्रास्फीति का हाल बुरा था और विदेशी कर्ज़ से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी।

पंजाब की फिज़ा में ज़हर घोल रही हैं साम्प्रदायिक शक्तियाँ

हम न तो डेरा सच्चा सौदा के हिमायती हैं और न ही दिव्य ज्योति के और न ही इन साम्प्रदायिक जुनूनियों के। दरअसल ये सभी संगठन, डेरे, जनता के पिछड़ेपन, उनमें बड़े स्तर पर फैले अन्धविश्वासों का फ़ायदा उठाकर करोड़ों के कारोबार चला रहे हैं। जिस डेरे या धर्म के अनुयायी अधिक होंगे उसका कारोबार भी उतना ही फैलेगा। जब लोग एक धर्म की दुकान से धर्म की दूसरी दुकान की तरफ़ पलायन करते हैं तो एक का कारोबार फलता-फूलता है और दूसरे को घाटा होता है। यही इनके बीच झगड़े की मुख्य वजह है।

सिख दंगों के दोषियों को सज़ा नहीं दिला सकेगी कोई भी सरकार – जाँच के ढोंग पर ढोंग होते रहेंगे

हो सकता है अब फिर से नवम्बर 84 के सिख क़त्लेआम के इन मुख्य दोषियों पर मुक़दमा-मुक़दमा का खेल खेला जाये। लेकिन इससे इनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। चाहे गुजरात हो, चाहे बाबरी मस्जिद गिराया जाना और बाद में मुसलमानों का क़त्लेआम हो और चाहे नवम्बर ’84, सब जगह एक ही हाल है। कहीं भी लोगों को न तो इंसाफ़ मिला है और न ही मिलने की कोई उम्मीद है। बात सिर्फ़ दंगों या किसी एक सम्प्रदाय के संगठित क़त्लेआम की नहीं है। देश के करोड़ों मेहनतकश लोगों के लिए कहीं भी किसी भी मामले में कोई इंसाफ़ नहीं है। दरअसल ये अदालतें, जेल, थाने, संसद, विधानसभाएँ, लोगों के इंसाफ़ के लिए नहीं बल्कि उनके दमन के साधन हैं। ये करोड़ों मेहनतकशों के ख़ून-पसीने की कमाई को बड़े पूँजीपतियों, भूमिपतियों, साम्राज्यवादियों द्वारा खुलेआम हड़प लिये जाने को सुनिश्चित करने के साधन हैं।

बिगुल पुस्तिका – 16 : फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें?

असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फ़ासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाने और क्रान्ति में आगे बढ़ा पाने में असफल रही। नतीजा था फ़ासीवादी उभार, जो अप्रतिरोध्‍य न होकर भी अप्रतिरोध्‍य बन गया।

लिब्रहान रिपोर्ट – जिसके तवे पर सबकी रोटी सिंक रही हैं

संघ परिवार द्वारा जुटायी गयी उन्मादी भीड़ और हिन्दू फ़ासिस्ट संगठनों के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं द्वारा 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्‍या में बाबरी मस्जिद गिराये जाने की जाँच के लिए गठित जस्टिस लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट 17 वर्ष बाद जिस तरह से पेश की गयी, उससे सभी पार्टियों के हित सध रहे हैं। एक ऐतिहासिक मस्जिद को गिराने और पूरे देश को विभाजन के बाद के सबसे भीषण दंगों की आग में धकेलने वाले संघ परिवार और उसके नेताओं के राजनीतिक करियर पर इस रिपोर्ट से कोई ऑंच नहीं आने वाली है। इस साज़िश में शामिल और इसे शह देने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव और पूजा के लिए मस्जिद का ताला खुलवाने से लेकर शिलान्यास करवाने तक कदम-कदम पर भाजपा का रास्ता आसान बनाने वाली कांग्रेस को भी इससे कोई नुकसान नहीं होने वाला। सच तो यह है कि कांग्रेस और भाजपा से लेकर मुलायम सिंह यादव तक सभी इससे अपने-अपने हित साधने में लगे हुए हैं।

फ़ासीवाद क्‍या है और इससे कैसे लड़ें? (समापन किश्‍त)

मज़दूर आन्दोलन का नेतृत्व पूँजीवादी संकट की स्थिति में अगर क्रान्तिकारी विकल्प मुहैया नहीं कराता है और पूरे आन्दोलन को सुधारवाद, पैबन्दसाज़ी, अर्थवाद, अराजकता- वादी संघाधिपत्यवाद और ट्रेड-यूनियनवाद की अन्‍धी गलियों में घुमाता रहेगा तो निश्चित रूप से अपनी गति से पूँजीवाद अपनी सबसे प्रतिक्रियावादी तानाशाही की ओर ही बढ़ेगा। बल्कि कहना चाहिए एक संगठित और मज़बूत, लेकिन अर्थवादी, सुधारवादी और ट्रेड-यूनियनवादी मज़दूर आन्दोलन पूँजीवाद को संकट की घड़ी में और तेज़ी से फासीवाद की ओर ले जाता है

फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (पाँचवीं किश्त)

भारत में भी कोई जनवादी क्रान्ति नहीं हुई जिसके कारण पूरे समाज में जनवादी चेतना की एक भारी कमी है और भयंकर निरंकुशता है जो फ़ासीवाद का आधार जनता के मनोविज्ञान में तैयार करती है। यहाँ पर भी क्रान्तिकारी भूमि सुधार नहीं हुए और क्रमिक भूमि सुधारों ने प्रतिक्रियावादी युंकर वर्ग को और हरित क्रान्ति ने प्रतिक्रियावादी आधुनिक धनी किसान वर्ग को जन्म दिया। यहाँ भी निम्न-पूँजीपति वर्ग और छोटे उत्पादकों की एक भारी तादाद मौजूद है जो पूँजीवादी विकास के साथ तेज़ी से उजड़ती है और प्रतिक्रियावाद के समर्थन में जाकर खड़ी होती है। साथ ही यहाँ भी ऊपर की ओर गतिमान एक प्रतिक्रियावादी नवधनाढय वर्ग है जो भूमण्डलीकरण के रास्ते हो रहे विकास की मलाई चाँप रहा है। इनमें मोटा वेतन पाने वाला वेतनभोगी वर्ग, ठेकेदार वर्ग, व्यापारी वर्ग, नौकरशाह, आदि शामिल हैं। यहाँ पर मज़दूर वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जो किसानी मानसिकता का शिकार है और पूरी तरह उत्पादन के साधनों से मरहूम नहीं हुआ है। वह भौतिक स्थितियों से सर्वहारा चेतना की ओर खिंचता है और अतीतोन्मुखी आकांक्षाओं और दो-चार मामूली उत्पादन के साधनों का स्वामी होने के कारण निम्न-पूँजीवादी चेतना की ओर खिंचता है। नतीजतन, सर्वहारा चेतनाकरण की प्रक्रिया मुकाम तक नहीं पहुँचती और इस आबादी का भी एक हिस्सा फ़ासीवादी प्रचार और प्रतिक्रिया के सामने अरक्षित होता है और उसका अक्सर शिकार बन जाता है।

फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (चौथी किश्‍त)

आर.एस.एस. ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ किसी भी स्वतन्त्रता संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया। संघ हमेशा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ तालमेल करने के लिए तैयार था। उनका निशाना शुरू से ही मुसलमान, कम्युनिस्ट और ईसाई थे। लेकिन ब्रिटिश शासक कभी भी उनके निशाने पर नहीं थे। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान संघ देशव्यापी उथल-पुथल में शामिल नहीं हुआ था। उल्टे जगह-जगह उसने इस आन्दोलन का बहिष्कार किया और अंग्रेज़ों का साथ दिया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा बंगाल में अंग्रेज़ों के पक्ष में खुलकर बोलना इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण था। ग़लती से अगर कोई संघ का व्यक्ति अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ा गया या गिरफ्तार किया गया तो हर बार उसने माफीनामा लिखते हुए ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफादारी को दोहराया और हमेशा वफादार रहने का वायदा किया। स्वयं पूर्व प्रधानमन्‍त्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी यह काम किया। ऐसे संघियों की फेहरिस्त काफी लम्बी है जो माफीनामे लिख-लिखकर ब्रिटिश जेलों से बाहर आये और जिन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानियों के ख़िलाफ अंग्रेज़ों से मुख़बिरी करने का घिनौना काम तक किया।