Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

भाजपा देशभर में त्योहारों का इस्तेमाल कर रही है साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाने में

रामनवमी समेत तमाम हिन्दू त्योहारों पर संघ परिवार व उसके विभिन्न आनुषंगिक संगठनों की अगुवाई में, प्रशासन की मूक या प्रत्यक्ष सहमति से चलती गाड़ियों या रास्ते में विभिन्न जगह डीजे के ज़रिए बहुत भोंडे और भद्दे मुस्लिम विरोधी गीत बजाये जाते हैं। जानबूझकर मस्जिदों के सामने या मुस्लिम इलाक़ों को टारगेट किया जाता है। मुस्लिमों को उकसाया जाता है कि वो कुछ करें ताकि तोड़-फोड़, आगजनी की स्थिति पैदा की जा सके और पूरे माहौल को साम्प्रदायिक बनाया जा सके। इस बीच जो हिन्दू-पॉप गाने त्योहारों पर रास्ते में या जुलूस में बजाये जा रहे हैं उनमें कुछ गीतों के बोल इस तरह हैं-‘बुलडोज़र में दबकर मर गए जो आस्तीन के साँप रहे हैं, बुलडोज़र बाबा चाँप रहे हैं’, ‘पाकिस्तान में भेजो या क़त्लेआम कर डालो, आस्तीन के साँपों को न दुग्ध पिलाकर पालो’, ‘टोपी वाला भी सर झुकाकर जै श्री राम बोलेगा’, ‘सुन लो मुल्लो पाकिस्तानी, गुस्से में हैं बाबा बर्फानी’, ‘जो छुएगा हिन्दुओं की बस्ती को, मिटा डालेंगे उसकी बस्ती को’ आदि। इस बार रामनवमी के मौक़े पर बंगाल और बिहार के भागलपुर, औरंगाबाद, समस्तीपुर और मुंगेर इलाकों में हुए झड़पों में इस तरह के गानों की एक महती भूमिका रही है। इन मौकों पर इकट्ठी भीड़ का फ़ायदा उठाकर मुस्लिम दुकानों, घरों या मस्जिदों पर जबरिया भगवा झण्डा आदि लगाने से भी उकसाने की कोशिश होती है। जब झड़प होती है तो तुरन्त मीडिया और प्रशासन हिन्दुओं के पक्ष में आ जाता है। मीडिया द्वारा व्यापक आबादी में एकतरफ़ा शोर मचाया जाता है कि हिन्दुओं के जुलूस पर मुस्लिमों ने पत्थर फेंके आदि आदि। उसके बाद फ़र्ज़ी मुक़दमों, बुलडोज़र से घर गिराने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।

रसोई गैस के दाम और पेट्रोल-डीज़ल पर कर बढ़ाकर मोदी सरकार का जनता की गाढ़ी कमाई पर डाका!

सरकार लगातार कॉरपोरेट कर और उच्च मध्य वर्ग पर लगने वाले आयकर को घटा रही है और इसकी भरपाई आम जनता की जेबों से कर रही है। भारत में मुख्‍यत: आम मेहनतकश जनता द्वारा दिया जाने वाला अप्रत्‍यक्ष कर, जिसमें जीएसटी, वैट, सरकारी एक्‍साइज़ शुल्‍क, आदि शामिल हैं, सरकारी खज़ाने का क़रीब 60 प्रतिशत बैठता है। यह वह टैक्‍स है जो सभी वस्तुओं और सेवाओं ख़रीदने पर आप देते हैं, जिनके ऊपर ही लिखा रहता है ‘सभी करों समेत’। इसके अलावा, सरकार बड़े मालिकों, धन्‍नासेठों, कम्‍पनियों आदि से प्रत्‍यक्ष कर लेती है, जो कि 1990 के दशक तक आमदनी का 50 प्रतिशत तक हुआ करता था, और जिसे अब घटाकर 30 प्रतिशत तक कर दिया गया है। यह कॉरपोरेट और धन्‍नासेठों पर लगातार प्रत्‍यक्ष करों को घटाया जाना है, जिसके कारण सरकार को घाटा हो रहा है। दूसरी वजह है इन बड़ी-बड़ी कम्‍पनियों को टैक्‍स से छूट, फ़्री बिजली, फ़्री पानी, कौड़ियों के दाम ज़मीन दिया जाना, घाटा होने पर सरकारी ख़र्चों से इन्‍हें बचाया जाना और सरकारी बैंकों में जनता के जमा धन से इन्‍हें बेहद कम ब्याज दरों पर ऋण दिया जाना, उन ऋणों को भी माफ़ कर दिया जाना या बट्टेखाते में, यानी एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) बोलकर इन धन्‍नासेठों को फोकट में सौंप दिया जाना। अब अमीरों को दी जाने वाली इन फोकट सौगातों से सरकारी ख़ज़ाने को जो नुक़सान होता है, उसकी भरपाई आपके और हमारे ऊपर टैक्‍सों का बोझ लादकर मोदी सरकार कर रही है।

दिल्ली में भाजपा सरकार के तीन माह! चुनाव से पहले दिल्ली की जनता से किये वायदों से अब मुकर रही भाजपा सरकार!

भाजपा ने वायदा किया था कि रसोई गैस सिलेण्डर 500 रुपये का मिलेगा और होली व दीवाली के त्यौहार पर एक सिलेण्डर मुफ़्त दिया जायेगा। यह वायदा भी एक बड़ा जुमला निकला। इस बीच होली आयी और चली गयी, पर किसी को कोई सिलेण्डर मुफ़्त नहीं मिला। इसके उलट मोदी सरकार ने घरेलू सिलेण्डर 50 रुपये महँगा कर दिया है। साथ ही पेट्रोल और डीज़ल पर भी 2 रुपये की बढ़ोतरी की है। मोदी सरकार को असल में चिन्ता इस देश के कॉरपोरेट घरानों, पूँजीपतियों, धन्नासेठों और पेट्रोलियम उपक्रमों के मुनाफ़े की है और इसके लिए हम सबका खून चूसकर भी इस मुनाफ़े को बढ़ाया जायेगा! भाजपा दिल्ली में जनता से किये वायदों से अब धीरे-धीरे मुकर रही है। इसमें कोई हैरानी नहीं है। मज़दूर विरोधी भाजपा सरकार के राज में ग़रीबों-मज़दूरों के लिए खाने-पीने से लेकर हर वस्तु और महँगी हो जायेगी और दिल्ली के बहुसंख्यक मेहनकश आबादी की जिन्दगी और बद से बदतर होगी।

प्रधानमन्त्री के संसदीय क्षेत्र में बर्बर बलात्कार और न्यायपालिका का दिनोदिन बढ़ता दकियानूसी और स्त्री-विरोधी चरित्र

यह केवल न्यायपालिका का मामला नहीं है। बल्कि आज देश की सभी सर्वोच्च संस्थाओं में फ़ासीवादी घुसपैठ हो चुकी है। फ़ासीवाद अपनी मूल प्रकृति से ही स्त्री विरोधी विचारधारा को खाद पानी देने का काम करता है। जैसा कि वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमण और योगी आदित्यनाथ के बयानों से समझा जा सकता है। जहाँ निर्मला सीतारमण का कहना है कि “पितृसत्ता वामपन्थी अवधारणा है।” वहीं योगी का मानना है कि “महिलाओं को स्वतन्त्र या आज़ाद नहीं छोड़ा जा सकता है।” बस योगी जी यह कहना भूल गए कि कुलदीप सिंह सेंगर, आशाराम, रामरहीम जैसे अपराधियों को आज़ाद छोड़ने से देश “विश्वगुरु” बनेगा। फ़ासीवादी शासन में बलात्कारियों के पक्ष में फ़ासिस्टों द्वारा तिरंगा यात्रा निकलने से लेकर आरोपियों को बेल मिलने पर फूल माला से स्वागत करना आम बात बन चुकी है। ऐसे में समाज के सबसे बर्बर, अपराधिक और बीमार तत्वों को अपराध करने की खुली छुट मिल जाती है। यह स्थिति और भी ख़तरनाक तब बन जाती है बुर्जुआ न्याय व्यवस्था बुर्जुआ जनवाद के अतिसीमित प्रगतिशीलता को स्थापित करने की जगह फ़ासिस्टों के हाथ की कठपुतली बन जाय और जनविरोधी-स्त्रीविरोधी बयानों की झड़ी लगा दे। न्यायपालिका के इस प्रकार के बयानों की वजह से समाज में गहराई से पैठी स्त्री विरोधी मानसिकता को फलने-फूलने के लिए खाद पानी मिलेगा। और कालान्तर में स्त्रियों के ख़िलाफ़ होने वाले जघन्य अपराधों के लिए ज़मीन तैयार हो रही है।।

वक़्फ़ क़ानून में नये संशोधनों पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए?

वक़्फ़ सम्पत्तियों के कुप्रबन्धन और उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार के तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। परन्तु वक़्फ़ ही क्यों, सच तो यह है कि इस देश में धर्म-कर्म के नाम पर सभी धर्मों की धार्मिक व धर्मार्थ संस्थाओं ने सम्पत्ति का विशाल अम्बार खड़ा किया हुआ है जिनके प्रबन्धन में भी कोई जवाबदेही या पारदर्शिता नहीं है और इस मामले में हिन्दू धर्म के मन्दिरों, ट्रस्टों आदि में जो अरबों-खरबों का भ्रष्टाचार होता है, उसका तो किसी अन्य धर्म में कोई मुक़ाबला ही नहीं है। ऐसे में केवल इस्लाम धर्म की किसी संस्था में भ्रष्टाचार को लेकर ही अमित शाह के पेट में मरोड़ क्यों उठ रहा है? शाह इतने भोले तो हैं नहीं कि उन्हें यह पता ही न होगा कि इस देश में तमाम मन्दिरों, मठों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों और बाबाओं के तमाम आश्रमों ने लोगों की धार्मिक आस्था के नाम पर अकूत सम्पदा इकट्ठी कर रखी है और उनके प्रबन्धन में भी ज़बर्दस्त भ्रष्टाचार होता है। वास्तव में, सबसे ज़्यादा समृद्ध तो तमाम हिन्दू मन्दिरों के ट्रस्ट व बोर्ड आदि हैं, जिनके पास जमा अथाह सम्पत्ति व धन-दौलत पर दशकों से गम्भीर सवाल उठते रहे हैं। इसी प्रकार तमाम गुरुद्वारों व गिरजाघरों और मठों के पास जमा चल व अचल सम्पत्ति का कोई हिसाब नहीं है।

हैदराबाद की एक मज़दूर बस्ती नन्दा नगर में मज़दूरों की ज़िन्दगी की जद्दोजहद की एक तस्वीर

इस बस्ती में स्थानीय तेलुगूभाषी मज़दूरों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से आने वाले प्रवासी मज़दूर भी बड़ी संख्या में रहते हैं। यहाँ रहने वाले पुरुष कुशल मज़दूरों को 8 से 10 घण्टे काम के लिए औसतन 30 दिन के काम के बदले 12 से 15 हज़ार का वेतन मिलता है। जबकि स्त्री मज़दूरों को महज़ 8 से 12 हज़ार वेतन मिलता है। अकुशल मज़दूरों को इससे भी कम तनख़्वाह मिलती है। आसमान छूती महँगाई के दौर में गैस सिलिण्डर, राशन–सब्ज़ी, बच्चों की शिक्षा, दवा -इलाज का ख़र्च पूरा करना मज़दूर परिवारों के लिए बेहद मुश्किल होता है। मज़दूरों को एक छोटे से कमरे के लिए 5 से 6 हज़ार रुपये किराये के देने पड़ते हैं। इस प्रकार मज़दूरों का आधा वेतन तो किराया देने में ही निकल जाता है और बाक़ी सभी ख़र्चों के लिए शेष आधा वेतन ही बचता है। इस वजह से मज़दूरों को हर महीने आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है।

दिव्य महाकुम्भ में भव्य भ्रष्टाचार

‘हिन्दू राष्ट्र’ के कुम्भ के धार्मिक आयोजन में मज़दूरों और मेहनतकशों की यही जगह है क्योंकि स्वयं इनके ‘हिन्दू राष्ट्र’ में मज़दूरों की यही जगह है, चाहे उनका धर्म या जाति कुछ भी हो। धन्नासेठ, अमीरज़ादे, ऐय्याश धनपशु अपना पापनाश कर सकें, उसके लिए मज़दूरों को अपनी हड्डियाँ-हाड़ गलाना ही होगा, चाहे उनका ही नाश क्यों न हो जाये! मोदी-योगी के चमचे बाबा धीरेन्द्र शास्त्री के अनुसार, अमीरज़ादों के पापनाश की नौटंकी में अगर मज़दूर और आम जनता मरते हैं, तो उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है! जो मज़दूर संघ परिवार, मोदी और योगी के ‘हिन्दू राष्ट्र’ में दास और सेवक जैसी हालत में अपना शोषण, उत्पीड़न और दमन करवाने को मोक्ष समझते हैं, उनसे हम क्या ही कह सकते हैं। लेकिन जिन मज़दूरों के भीतर आत्मसम्मान, गरिमा और अपने अधिकारों का बोध है, वे जानते हैं कि इस ‘हिन्दू राष्ट्र’ की सच्चाई केवल मालिकों, धनपशुओं, ठेकेदारों, व्यापारियों की लूट के तहत देश के मेहनतकश अवाम को निचोड़ने की व्यवस्था है। इसपर ही धर्म की चादर चढ़ाई जाती है, ताकि हम इस लूट और शोषण को इहलोक में अपना कर्म मानकर चुपचाप इसे सहते रहें, इस आशा में कि परलोक में मोक्ष प्राप्त होगा! आपको समझ लेना चाहिए कि ये बातें केवल आपको बेवकूफ़ बनाने का तरीक़ा हैं।

छावा : फ़ासीवादी भोंपू से निकली एक और प्रोपेगैण्डा फ़िल्म

पहला तथ्य तो यही है कि यह फ़िल्म किसी ऐतिहासिक घटना पर नहीं बल्कि यह शिवाजी सावन्त के एक उपन्यास पर बनी है। लेकिन इसे पेश ऐसे किया जा रहा है जैसे कि यह इतिहास को चित्रित कर रही है। दूसरा, अगर ऐतिहासिक तथ्यों पर ग़ौर करें, तो यह बात तो स्पष्ट तौर पर समझ में आ जाती है कि औरंगज़ेब और शिवाजी के बीच की लड़ाई कोई धर्म-रक्षा की लड़ाई नहीं थी बल्कि पूरी तरह से अपनी राजनीतिक सत्ता के विस्तार की लड़ाई थी। शिवाजी की सेना में कितने ही मुस्लिम सेनापति मौजूद थे, साथ ही औरंगज़ेब की सेना और दरबार में हिन्दू मन्त्री, सेनापति और सैनिक भारी संख्या में मौजूद थे। औरंगज़ेब का मकसद अगर सभी को मुसलमान बनाना होता, तो ज़ाहिरा तौर पर पहले वह अपने दरबार और अपनी सेना में अगुवाई और सरदारी की स्थिति में मौजूद हिन्दुओं को मुसलमान बनाता। धर्मान्तरण का जब कभी उसने इस्तेमाल किया तो वह भी राजनीतिक वर्चस्व और अहं की लड़ाई का हिस्सा था, न कि इस्लाम का राज भारत में क़ायम करने की मुहिम।

भारतीय संविधान के 75 साल – संविधान का हवाला देकर फ़ासीवाद से मुक़ाबले की ख़ामख्याली फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष के लिए घातक सिद्ध होगी!

“संविधान बचाओ” का नारा अपने आप में इसी व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर हमारे संघर्ष को समाप्त कर देने वाला नारा है। हमें समझना होगा कि फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में जब हम किसी प्रकार के बुर्जुआ जनवाद की पुनर्स्थापना की बात करते हैं तो वह फ़ासीवाद के विरुद्ध चल रही लड़ाई में बेहद घातक और आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। हमें यह समझना होगा कि फ़ासीवाद का विकल्प किसी किस्म का शुद्ध-बुद्ध बुर्जुआ जनवाद नहीं हो सकता। असल में फ़ासीवाद आज के दीर्घकालिक मन्दी के दौर में एक कमोबेश स्थायी परिघटना बन चुका है। पूँजीवादी संकट आज एक दीर्घकालिक मन्दी का रूप ले चुका है, जो नियमित अन्तरालों पर महामन्दी के रूप में भी फूटती रहती है। आज तेज़ी के दौर बेहद कम हैं, छोटे हैं और काफ़ी अन्तरालों पर आते हैं और अक्सर वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था में तेज़ी के बजाय सट्टेबाज़ वित्तीय पूँजी के बुलबुलों की नुमाइन्दगी करते हैं। ऐसे में, बुर्जुआ वर्ग का प्रतिक्रिया और निरंकुशता की ओर झुकाव, टुटपुँजिया वर्गों के बीच सतत् असुरक्षा और परिणामतः प्रतिक्रिया की ज़मीन लगातार मौजूद रहती है और वर्ग-संघर्ष के ख़ास नाज़ुक मौक़ों पर यह एक पूँजीपति वर्ग व पूँजीवादी राज्य के राजनीतिक संकट की ओर ले जाने की सम्भावना से परिपूर्ण स्थिति सिद्ध होती है।

कुम्भ में भगदड़ : भाजपा के फ़ासीवादी प्रोजेक्ट की भेंट चढ़ी जनता

ऐसे किसी भी धार्मिक आयोजन में सरकार की भूमिका केवल व्यवस्था और प्रबन्धन की हो सकती है, लेकिन फ़ासीवादी भाजपा सरकार यहाँ आयोजक बनी बैठी है और ऐसी अपनी फ़ासीवादी मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए एक प्रोजेक्ट के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। आज ज़रूरत है कि भाजपा और संघ परिवार के इस फ़ासीवादी प्रोजेक्ट की सच्चाई को लोगों तक पहुँचाया जाये और लोगों को उनकी ज़िन्दगी के असली सवालों पर लामबन्द किया जाये।