Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (तीसरी किश्त)

फ़ासीवादी उभार की सम्भावना ऐसे पूँजीवादी देशों में हमेशा पैदा होगी जहाँ पूँजीवाद बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं आया, बल्कि किसी भी प्रकार की क्रमिक प्रक्रिया से आया; जहाँ क्रान्तिकारी भूमि-सुधार लागू नहीं हुए; जहाँ पूँजीवाद का विकास किसी लम्बी, सुव्यवस्थित, गहरी पैठी प्रक्रिया के ज़रिये नहीं बल्कि असामान्य रूप से अव्यवस्थित, अराजक और द्रुत प्रक्रिया से हुआ; जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजीवाद इस तरह विकसित हुआ कि सामन्ती अवशेष किसी न किसी मात्रा में बचे रहे। ऐसे सभी देशों में पूँजीवाद का संकट बेहद जल्दी उथल-पुथल की स्थिति पैदा कर देता है। समाज में बेरोज़गारी, ग़रीबी, अनिश्चितता, असुरक्षा का पैदा होना और करोड़ों की संख्या में जनता का आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक तौर पर उजड़ना बहुत तेज़ी से होता है। ऐसे में पैदा होने वाली क्रान्तिकारी परिस्थिति को कोई तपी-तपायी क्रान्तिकारी पार्टी ही संभाल सकती है। फ़ासीवादी उभार होना ऐसी परिस्थिति का अनिवार्य नतीजा नहीं होता है। फ़ासीवादी उभार हर-हमेशा सामाजिक जनवादियों की घृणित ग़द्दारी के कारण और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की अकुशलता के कारण सम्भव हुआ है। जर्मनी और इटली दोनों ही इस तथ्य के साक्ष्य हैं।

लिब्रहान रिपोर्ट – फिर दफनाए जाने के लिए पेश की गई एक और रिपोर्ट

1984 में दिल्ली में हुए सिक्खों के कत्लेआम के दोषियों को सभी जानते हैं, लेकिन आज तक दिल्ली दंगों के किसी भी दोषी का बाल तक बाँका नहीं हुआ। गुजरात 2008 में कन्धमाल में ईसाइयों के कातिलों का भी कुछ नहीं बिगड़ने वाला। लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर भी कुछ दिन संसद में बहसबाजी का नाटक खेला जायेगा। उसके बाद इसे भी कहीं गहरा दफना दिया जायेगा। हुक्मरानों के सभी हिस्से इस हमाम में नंगे हैं। कौन किसे सजा देगा? हुक्मरान वर्ग के सभी हिस्से जनता को बाँटने, लड़वाने, मरवाने, लूटने और पीटने में एक-दूसरे से आगे हैं। इनसे इंसाफ की उम्मीद करना सबसे बड़ी मूर्खता है। इंसाफ तो एक दिन देश की मेहनतकश जनता करेगी। जब एकजुट होकर मेहनतकश जनता उठेगी तो जनता के इन कातिलों के मुकदमों की सुनवाई होगी।

फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (दूसरी किश्त)

सामाजिक जनवाद ने मजदूर आन्दोलन को सुधारवाद की गलियों में ही घुमाते रहने का काम किया। उसने पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं दिया और साथ ही पूँजीवाद के भी पैरों में बेड़ी बन गया। उसका कुल लक्ष्य था पूँजीवादी जनवाद के भीतर रहते हुए वेतन-भत्ता बढ़वाते रहना और जो मिल गया है उससे चिपके रहना। लेकिन अगर पूँजीवादी व्यवस्था मुनाफा पैदा ही न कर पाये तो क्या होगा? इस सवाल का उनके पास कोई जवाब नहीं था। वे यथास्थिति को सदा बनाये रखने का दिवास्वप्न पाले हुए थे। जबकि पूँजीवाद की नैसर्गिक गति कभी ऐसा नहीं होने देती। पूँजीपति वर्ग को मुनाफे की दर बढ़ानी ही थी। उसका टिकाऊ स्रोत एक ही था – मजदूरों के शोषण को बढ़ाना। वह संगठित मजदूर आन्दोलन के बूते पर सामाजिक जनवादी करने नहीं दे रहे थे। अब मुनाफे की दर को बढ़ाने का काम पूँजीपति वर्ग जनवादी दायरे में रहकर नहीं कर सकता था। बड़े पूँजीपति वर्ग को एक सर्वसत्तावादी राज्य की आवश्यकता थी जो उसे वीमर गणराज्य नहीं दे सकता था, जो श्रम और पूँजी के समझौते पर टिका था। यह काम नात्सी पार्टी ही कर सकती थी।

फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (पहली किश्‍त)

इस असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाने और क्रान्ति में आगे बढ़ा पाने में असफल रही। नतीजा था फासीवादी उभार, जो अप्रतिरोध्‍य न होकर भी अप्रतिरोध्‍य बन गया।

गुजरात में मोदी की जीत से निकले सबक

वर्ष 2002 के जनसंहार के बाद मोदी के ‘जीवन्त गुजरात’ में मुसलमानों की क्या जगह है ? वे पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिये गये हैं । उनके मानवीय स्वाभिमान को पूरी तरह कुचलकर उनकी दशा बिल्कुल वैसी बना दी गयी है जैसी भेड़ियों के आगे सहमें हुए मेमनों की होती है । अहमदाबाद, सूरत और बड़ौदा जैसे शहरों में ज्यादातर गरीब मेहनतक़श मुसलमान आबादी ऐसी घनी बस्तियों में सिमटा दी गयी है जहाँ बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक ढंग से मयस्सर नहीं है ।

‘जनचेतना’ पर साम्प्रदायिक फासीवादी हमला

साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों के असली चरित्र और उनके कारनामों को ‘बिगुल’ द्वारा लगातार उजागर किये जाने से ये ताकतें बौखला गयी हैं । उनकी बौखलाहट का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बीते 9 जनवरी को मथुरा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं ने ‘बिगुल’ के

उस अंक की प्रतियों को ‘जनचेतना’ के प्रदर्शनी वाहन से झपटकर जलाया जिसमें ‘तहलका’ के स्टिंग आपरेशन के हवाले से गुजरात नरसंहार पर विस्तृत सामग्री दी गयी थी । इतना ही नहीं ऐसे साहित्य का प्रचार करने वाले सचल प्रदर्शनी वाहन को क्षतिग्रस्त करने और साम्प्रदायिकता विरोधी अन्य क्रान्तिकारी साहित्य भी फाड़ने की कोशिश की । उन्होंने प्रदर्शनी कार्यकर्ताओं को जान से मारने की धमकियाँ भी दीं ।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के आसमान में केसरिया धुन्ध के बीच इतिहास के रथचक्र को पीछे घुमाने की कवायद

आर.एस.एस. के ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ और इस समागम में जुटे साधु-सन्तों के ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ की अवधारणाएँ बिल्कुल एक हैं। 23 दिसम्बर की आम सभा में एक वक्ता ने अत्याधिक जोश में आकर ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ की सच्चाई इन शब्दों में प्रकट की कि अगर योगी आदित्यनाथ को भारत का प्रधानमंत्री बना दिया जाये तो मुसलमानों और अन्य सभी अल्पसंख्यकों को मताधिकार से वंचित कर दिया जायेगा। आर.एस.एस. के विचारक गुरु गोलवलकर की पुस्तक ‘वी एण्ड अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड’ में भी हिन्दू राष्‍ट्र की अवधारणा इन्हीं शब्दों में व्यक्त की गयी है। गोलवलकर ने लिखा है : “…जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा, अर्थात हिन्दू राष्‍ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह से ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ की गु़लामी करते हुए, बिना कोई माँग किये, बिना किसी प्रकार का विशेषाधिकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करे : यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अधिकार के रहना होगा। उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। हम एक प्राचीन राष्‍ट्र हैं। हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिए जैसे कि प्राचीन राष्‍ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।

चिली के बर्बर तानाशाह जनरल पिनोशे की मौत-लेकिन पूँजीवादी नरपिशाचों की यह बिरादरी अभी ज़िन्‍दा है!

हमें बुर्जुआ इतिहासकारों की तर्ज़ पर पिनोशे के ख़ूनी कारनामों को उसके विकृत दिमाग की उपज नहीं मानना चाहिए। पिनोशे चिली की समस्त प्राकृतिक एवं सामाजिक सम्पदा पर कब्ज़ा जमाने की वहशी चाहत रखने वाले समाज के मुट्ठी भर ऊपरी वर्गों और अमेरिकी साम्राज्यवादी डाकुओं का दुलारा नुमाइन्दा था। धनपशुओं की इस जमात को चिली में लोकप्रिय जननेता सल्वादोर अलेन्दे द्वारा 1971 में चुनकर सरकार में आना फूटी आँखों नहीं सुहाया था। अलेन्दे को सत्ता में आने से रोकने के लिए इस जमात ने अपनी एड़ी–चोटी का ज़ोर लगा दिया लेकिन अलेन्दे को हासिल प्रचण्ड जनसमर्थन के सामने उनके मंसूबे धरे के धरे रह गये। सत्ता सम्हालने के बाद जब अलेन्दे ने अमेरिकी बहुराष्‍ट्रीय खदानों, बैंको और अन्य महत्वपूर्ण उद्योगों के राष्‍ट्रीकरण, बड़ी पूँजीवादी जागीरों को सामुदायिक खेती में बदलने और कीमतों पर नियन्त्रण क़ायम कराने की नीतियों की घोषणा की तो चिली के वे धनपशु और उनके अमेरिकी सरपरस्त बदहवास हो उठे। उन्होंने अलेन्दे की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिये आर्थिक तोड़–फोड़, सामाजिक अफ़रातफ़री पैदा करने के साथ ही अलेन्दे की हत्या करने की साज़िशों को रचना शुरू कर दिया। अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए. ने अपनी कुख्यात सरगर्मियाँ तेज़ कर दीं। अमेरिकी साम्राज्यवादियों को पिनोशे के रूप में एक वफ़ादार कुत्ता भी मिल गया जो उस समय चिली का सेनाध्यक्ष था। आख़िरकार यह जमात 11 सितम्बर 1973 को अपने मंसूबों में कामयाब हो गयी जब पिनोशे की अगुवाई में सीधे राष्‍ट्रपति भवन ‘ला मोनेदा’ पर फ़ौजी धावा बोल दिया गया जिसमें अलेन्दे अपने सैकड़ों सहयोगियों के साथ लड़ते–लड़ते मारे गये।

कांग्रेस का मुस्लिम प्रेम एक छलावा है!

मुस्लिम आबादी को वोट बैंक के रूप में ही देखा जाता है और धर्म को सिक्के के रूप में वोट बैंक की राजनीति में इस्तेमाल किया जाता रहा है। मुस्लिम आबादी के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने की दिशा में किसी भी पार्टी ने अभी तक कोई काम नहीं किया है। इधर धार्मिक नेता भी अपना उल्लू सीधा करने के लिए इन्हें पिछड़ेपन में जकड़े रहना चाहते हैं, ये आम मुस्लिम आबादी की दुर्दशा की बात नहीं करते हैं। बल्कि इसके विपरीत धार्मिक कट्टरपंथ को बनाये रखने का काम मुस्लिम कट्टरपंथ बखूबी करता है। इस मुस्लिम कट्टरपंथ के खेल का फ़ायदा भी हिन्दू धार्मिक कट्टरपंथ ही उठाता है।

इतिहास का एक टुकड़ा – जूलियस फ़्यूचिक

एक कारखाना मजदूर के बेटे फ़्यूचिक ने पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र से ही मजदूर आन्दोलन और सांस्कृतिक जगत में काम करना शुरू कर दिया। बाद में उन्हें चेकोस्लावाकिया की कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यपत्र ‘रूद प्रावो’ के सम्पादन की जिम्मेदारी दी गई। चेकोस्लोवाकिया पर नात्सी अधिकार कायम हो जाने के बाद फ़्यूचिक भी एक सच्चे कम्युनिस्ट की तरह फ़ासिज्म की बर्बरता के खिलाफ़ खड़े हुए। जल्दी ही जर्मन फ़ासिस्ट कुत्तों गेस्टापो ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और अनगिनत यातनाएं देने के बाद 8 सितम्बर, 1943 को बर्लिन में गोली मार दी। फ़्यूचिक तब मात्र चालीस वर्ष के थे। यहाँ हम जूलियस फ़्यूचिक की अमर कृति ‘फ़ांसी के तख्ते से’ का एक अंश दे रहे हैं, जो उन्होंने नात्सी जल्लाद के फ़न्दे की छाया में लिखी थी।