Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

नरेन्‍द्र मोदी की जापान यात्रा और मेहनतक़श जनता के लिए इसके निहितार्थ

जापानी कम्‍पनियाँ मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने में कितनी बेरहम होती हैं, श्रम कानूनों को किस प्रकार वे ताक पर धर देती हैं और इन कम्‍पनियों के हड़ताली मज़दूरों को कुचलने में भारत सरकार किस प्रकार बर्बर दमन का रुख अपनाकर जापानी साम्राज्‍यवाद की सेवा करती है, यह पिछले वर्षों होण्‍डा, मारुति और कई अन्‍य जापानी कम्‍पनियों में चले मज़दूर संघर्षों के दौरान देखा जा चुका है। आने वाले दिनों में मज़दूरों के अतिशोषण और विरोध में उठने वाली हर आवाज़ के बर्बर दमन का पुख्‍ता इंतजाम मोदी सरकार कर चुकी है और मोदी टोक्‍यो जाकर इसकी पक्‍की गारण्‍टी भी दे आये हैं।

सावधान! कहीं आप मालिकों की भाषा तो नहीं बोल रहे?

देश का पूँजीपति वर्ग राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक और संगठित है। उसे पता है कि अपने वर्ग के आम हितों की रक्षा कैसे की जाती है। अब दारोमदार इस बात पर है कि हमारे देश के मज़दूर भी अपने साझा वर्ग हितों को समझने की शुरुआत कब तक करेंगे। हालांकि इसके समय की भविष्यवाणी करना तो काफ़ी कठिन है लेकिन एक बात तय है कि उनके पास गँवाने के लिए बहुत अधिक वक़्त नहीं है।

श्रम कानूनों में “सुधार” मोदी सरकार का मज़दूरों के अधिकारों पर ख़तरनाक हमला

अभी तीन महीने भी नहीं हुए हैं मोदी सरकार को आये हुए लेकिन आते ही उसने घोषणा कर दी कि श्रम-कानूनों में बड़े बदलाव किये जाएँगे। स्पष्ट है देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों और पूँजीपतियों के मुनाफे का घोड़ा बेलगाम दौड़ता रहे, इसके लिए जरूरी है कि उनके राह के सबसे बड़े रोड़े को यानी कि रहे-सहे श्रम-कानूनों को भी किनारे लगा दिया जाये। इसका मतलब है कि मजदूरों को श्रम-कानूनों के तहत कम-से-कम काग़जी तौर पर जो हक़ हासिल हैं अब वे भी छीन लिये जाएँगे।

एक बार फिर देश को दंगों की आग में झोंकने की सुनियोजित साजि़श

संघ, भाजपा तथा मोदी भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि नव-उदारवादी नीतियों ने जिस तरह महँगाई, लगातार कम होती मज़दूरियाँ, बेरोज़गारी और भुखमरी के दानव को खुला छोड़ दिया है उससे त्रस्त जनता एक न एक दिन ज़रूर ही संगठित होकर मैदान में खड़ी हो जायेगी। इसी लिए साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतें देशभर में सीमित पैमाने के छोटे-बडे़ दंगे करवा रही हैं। वो चाहते हैं कि मध्यम स्तर का साम्प्रदायिक तनाव समाज में लगातार बना रहे ताकि समय आने पर इसे पूरे ज़ोरों से भड़काया जा सके। इस तरह जनता के गुस्से को झूठा दुश्मन खड़ा करके जनता के ही ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की फ़ासीवादी सोच काम कर रही है।

हिन्दू दिलों और बुर्जुआ दिमागों को छूकर चीन से होड़ में आगे निकलने की क़वायद

पिछली 3-4 अगस्त के बीच सम्पन्न नरेन्द्र मोदी की दो दिवसीय नेपाल यात्रा को भारत और नेपाल दोनों ही देशों की बुर्जुआ मीडिया ने हाथों हाथ लिया। एक ऐसे समय में जब घोर जनविरोधी नव-उदारवादी नीतियों की वजह से त्राहि-त्राहि कर रही आम जनता में “अच्छे दिनों” के वायदे के प्रति तेजी से मोहभंग होता जा रहा है, मोदी ने नेपाल यात्रा के दौरान सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने वाले कुछ हथकण्डे अपनाकर अपनी खोयी साख वापस लाने की कोशिश की। अपनी यात्रा के पहले दिन मोदी ने नेपाल की संसद/संविधान सभा में सस्ती तुकबन्दियों, धार्मिक सन्दर्भों और मिथकों से सराबोर एक लंबा भाषण दिया जिसे सुनकर ऐसा जान पड़ता था मानो एक बड़ा भाई अपने छोटे भाई को अपने पाले में लाने के लिए पुचकार रहा हो और उसकी तारीफ़ के पुल बाँध रहा हो। हीनताबोध के शिकार नेपाल के बुर्जुआ राजनेता इस तारीफ़ को सुन फूले नहीं समा रहे थे। यात्रा के दूसरे दिन मोदी ने पशुपतिनाथ मन्दिर के दर्शन के ज़रिये भारत और नेपाल दोनों देशों में अपनी छवि ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ के रूप में स्थापित करने के लिए कुछ धार्मिक एवं पाखण्डपूर्ण टिटिम्मेबाजी की। बुर्जुआ मीडिया भला इस सुनहरे अवसर को कैसे छोड़ सकती थी! मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के बाद यह पहला ऐसा मौका था जब उसे एक बार फिर से मोदी की लोकप्रियता का उन्माद खड़ा करने के लिए मसाला मिला और उसने उसे जमकर भुनाया और अपनी टीआरपी बढ़ायी। नेपाली मीडिया में भी मोदी की नेपाल यात्रा को नेपाल के लोगों के दिल और दिमाग को छू लेने वाला बताया। इस बात में अर्धसत्य है कि मोदी ने नेपाल के लोगों के दिलो-दिमाग को छुआ, पूरी सच्चाई यह है कि दरअसल मोदी ने हिन्दू दिलों और बुर्जुआ दिमागों को छुआ।

जनसंघर्ष को कुचलने के लिए पंजाब सरकार के फासीवादी काले कानून के खिलाफ़ पंजाब की जनता संघर्ष की राह पर

सरकार का मकसद जनता के संघर्षों को कुचलना ही है। केन्द्र व राज्य सरकारों की पूँजीपतियों के पक्ष में लागू की जा रही निजीकरण, उदारीकरण, विश्वीकरण की नीतियों की जनता की हालत बेहद खराब कर दी है। गरीबी, बेरोजगारी, महँगाई तेजी से बढ़ी है। इसके खिलाफ जनता के एकजुट रोष भी बढ़ता जा रहा है। हुक्मरान आने वाले दिनों में उठ खड़े होने वाले भीषण जनान्दोलनों से भयभीत है। जनता की आवाज सुनने की बजाए सरकारें जन आवाज को ही कुचल देना चाहती हैं। इसीलिए अब काले कानून बनाए जा रहे हैं। पंजाब सरकार द्वारा पारित यह नया काला कानून भारतीय हुक्मरानों के घोर जनविरोधी दमनकारी चरित्र को जाहिर करता है।

शिक्षा और संस्कृति के भगवाकरण का फासिस्ट एजेण्डा – जनता को गुलामी में जकड़े रखने की साज़िश का हिस्सा है

शिक्षा और संस्कृति का भगवाकरण हमेशा ही फासिस्टों के एजेण्डा में सबसे ऊपर होता है। स्मृति ईरानी जैसी कम पढ़ी-लिखी, टीवी ऐक्ट्रेस को इसीलिए मानव संसाधन मंत्रालय में बैठाया गया ताकि संघ परिवार बेरोकटोक अपनी मनमानी चला सके।

मोदी सरकार का मज़दूरों के अधिकारों पर ख़तरनाक हमला

अगर देश का मज़दूर अपने ऊपर किये जा रहे इन हमलों का पुरज़ोर विरोध नहीं करता तो आने वाले समय में मज़दूरों से बंधुआ गुलामी करवाने के लिए मालिक वर्ग पूरी तरह आज़ाद हो जायेगा। श्रम कानूनों पर इन हमलों के ख़ि‍लाफ़ हम चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों पर भरोसा नहीं कर सकते जो मोदी सरकार के तलवे चाटने का तैयार बैठी हैं। हमें स्वयं अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों व मज़दूर संगठनों के ज़रिये इन हमलों का जवाब देना होगा। इसीलिए हम सभी मज़दूर भाइयों और बहनों को ललकारते हैं कि 20 अगस्त को मोदी सरकार के मज़दूर-विरोधी कदमों का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए बड़ी से बड़ी संख्या में जन्तर-मन्तर पहुँचे।

मोदी सरकार ने दो महीने में अपने इरादे साफ़ कर दिये

मोदी सरकार का असली एजेंडा दो महीने में ही खुलकर सामने आ गया है। 2014-15 के रेल बजट, केन्द्रीय बजट और श्रम क़ानूनों में प्रस्तावित बदलावों तथा सरकार के अब तक के फैसलों से यह साफ़ है कि आने वाले दिनों में नीतियों की दिशा क्या रहने वाली है। मज़दूर बिगुल के पिछले अंक में हमने टिप्पणी की थी – “लुटेरे थैलीशाहों के लिए ‘अच्छे दिन’, मेहनतकश जनता के लिए ‘कड़े कदम’।” लगता है, इस बात को मोदी सरकार अक्षरशः सही साबित करने में जुट गयी है।

मोदी सरकार का एजेण्डा नम्बर 1 – रहे-सहे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाना

मोदी सरकार के 100 दिन के एजेण्डे में श्रम क़ानूनों में बदलाव को पहली प्राथमिकताओं में से एक बताया जा रहा है। पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ और भाड़े के बुर्जुआ अर्थशास्त्री उछल-उछलकर सरकार के इन प्रस्तावित क़दमों का स्वागत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में जोश भरने और रोज़गार पैदा करने का यही रास्ता है। कहा जा रहा है कि आज़ादी के तुरन्त बाद बनाये गये श्रम क़ानून विकास के रास्ते में बाधा हैं, इसलिए इन्हें कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए और श्रम बाज़ारों को “मुक्त” कर देना चाहिए। विश्व बैंक ने भी 2014 की एक रिपोर्ट में कह दिया है कि भारत में दुनिया के सबसे कठोर श्रम क़ानून हैं जिनके कारण यहाँ पर उद्योग-व्यापार की तरक्की नहीं हो पा रही है। पूँजीपतियों के नेता बड़ी उम्मीद से कह रहे हैं कि निजी उद्यम को बढ़ावा देने और सरकार का हस्तक्षेप कम से कम करने के पक्षधर नरेन्द्र मोदी इंग्लैण्ड की प्रधानमन्त्री मार्गरेट थैचर या पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की तर्ज पर भारत में उदारीकरण को आगे बढ़ायेंगे। इनका कहना है कि सबसे ज़रूरी उन क़ानूनों में बदलाव लाना है जिनके कारण मज़दूरों की छुट्टी करना कठिन होता है।