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राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 – जनता के लिए बची-खुची स्वास्थ्य सुविधाओं को भी बाज़ार के मगरमच्छों के हवाले कर देने का दस्तावेज़

इस नयी स्वास्थ्य नीति का सबसे घटिया पहलू निजी क्षेत्र के लिए राह साफ़ करना है। भारत में पहले ही स्वास्थ्य के कुल क्षेत्र में से 70% के क़रीब हिस्से पर निजी क्षेत्र का क़ब्ज़ा है जिनमें अपोलो, फ़ोर्टिस, मेदान्ता, टाटा जैसे बड़े कारपोरेट अस्पतालों से लेकर क़स्बों तक में खुले निजी नर्सिंग होम शामिल हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में कारपोरेट अस्पतालों का रिकाॅर्ड-तोड़ फैलाव हुआ है, इन्होंने एक हद तक निजी नर्सिंग होमों को भी निगल लिया है। इसके साथ ही बची-खुची सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के अन्दर भी निजी क्षेत्र की घुसपैठ बढ़ी है। ज़िला-स्तरीय अस्पताल, मेडिकल कॉलेज और बड़े मेडिकल संस्थानों में प्राइवेट-पब्लिक-पार्टनरशिप के नाम पर बहुत सारी सुविधाएँ निजी हाथों में सौंपी जा चुकी हैं, या सौंपने की तैयारी है।

मुम्बई के ग़रीबों के फेफड़ों में ज़हर घोल रहे बायोवेस्ट ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट को बन्द करवाने के लिए शुरू हुआ संघर्ष

यूँ तो इससे पहले भी इस प्लाण्ट को हटाने के लिए आन्दोलन हुए हैं। पर उन आन्दोलनों की शुरुआत ज़्यादातर चुनावी पार्टियों या फिर एनजीओ ने की थी। इसीलिए वे दिखावेबाज़ी के बाद जल्द ही ख़त्म हो गये। क्योंकि एनजीओं हों या फिर चुनावी पार्टी, उनको फ़ण्डिंग करने का काम बड़े-बड़े उद्योगपति घराने ही करते हैं। जो कम्पनी इस प्लाण्ट को चला रही है, उसका भी हर साल का मुनाफ़़ा लगभग 50 करोड़ है। इसलिए नौजवान भारत सभा व बिगुल मज़दूर दस्ता के नेतृत्व में इलाक़े के नौजवानों ने तय किया है कि किसी चुनावी पार्टी या एनजीओ के पिछलग्गू बने बिना ख़ुद स्थानीय गली कमेटियाँ बनाते हुए एक जुझारू आन्दोलन खड़ा करना होगा। पिछले कुछ दिनों से ये आन्दोलन चलाया जा रहा है व आशा है कि जनता की ताक़त के सामने पूँजी की ताक़त झुकेगी और ग़रीबों-मेहनतकशों को भी स्वच्छ हवा का अधिकार मिलेगा।

इलाज कराने वाली कम्पनियों का कौन करेगा इलाज?

कुछ दिन पहले जब भारत सरकार ने दवाओं की क़ीमतों पर नियन्त्रण लागू करने वाला बयान जारी किया तो आम जन में ऐसी धारणा पैदा हुई है कि शायद अबकी बार सचमुच में दवाओं के दाम कम हो जायेंगे। ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि सरकार की बनायी हुई एक प्रमुख संस्था ‘नीति आयोग’ और कई दूसरे सरकारी मन्त्रालय और विभाग दवा कम्पनियों के साथ मिलकर दवाओं के दामों को नियन्त्रण मुक्त रखने की ज़ोरदार मुहिम चला रहे हैं। इस मुहिम में परिवार एवं कल्याण मन्त्रालय, खाद एवं रसायन मन्त्रालय, व्यापार एवं उद्योग मन्त्रालय तथा डिपार्टमेण्ट ऑफ़ फ़ार्मास्यूटिकल आदि सक्रिय हैं। ऐसे हालात में यह आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि सरकार की दवाओं की क़ीमतों के नियन्त्रण सम्बन्धी घोषणा का क्या होने वाला है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 और मज़दूर वर्ग पर उसका असर

स्वास्थ्य जैसी समाज की मूलभूत ज़रूरत के प्रति सरकार ने जो नीति बनाई है, वह एक छोटे से धनाढ्य वर्ग और मध्य वर्ग के हित में है। पूँजीपति वर्ग मज़दूर के शोषण से एकत्रित की हुई पूँजी के कारण या तो स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में धन्धा करेगा या फिर इन सेवाओं का उपभोक्ता होगा। मज़दूर वर्ग को इस तरह की नीतियाँ हमेशा भगवान व भाग्य के भरोसे ही रख छोड़ती हैं। इस नाइंसाफ़ी के ख़ि‍लाफ़ मज़दूर आवाज़ न उठा दें, इसलिए उसे बहलाने के और भी तरीक़े सरकार को आते हैं। आजकल सियासी जुमलों की बहुतायत है। जब स्वास्थ्य की चर्चा होती है तो स्वच्छ भारत अभियान, कुपोषण विरोधी अभियान, नशामुक्ति अभियान, रेल-रोड यात्री सुरक्षा अभियान, लिंग परीक्षण विरोधी अभियान, तनाव मुक्ति अभियान, वायु व जल प्रदुषण से मुक्ति और योग और व्यायाम का महत्व इत्यादि मुद्दों पर ही बातें होती हैं, परन्तु अगर तार्किक ढंग से देखा जाये तो मनुष्य के स्वास्थ्य का सीधा सम्बन्ध तो पर्याप्त और पौष्टिक भोजन, न्यायसंगत वेतन, काम करने के सही तरीक़ों, सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता और सही शिक्षा से भी है।

बन्द होती सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनियाँ : सरकार की मजबूरी या साजिश?

किसी समय यह कम्पनी भी पूरे देश के लिए दवाएँ बनाती थी। कई बार तो यह एकमात्र कम्पनी होती थी जो किसी महामारी के समय दवाएँ उपलब्ध करवाती थी। लेकिन अब सरकार ने इसको भी ऑर्डर्स देने बन्द कर दिये हैं। इसके अलावा हिन्दुस्तान एण्टीबायोटिक्स लिमिटेड (HAL) भी ऐसी ही एक सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनी है। इसकी नींव 1954 में पहली एण्टीबायोटिक दवा पेनिसिलिन का आविष्कार करने वाले महान वैज्ञानिक अलेग्जेंडर फ़्लेमिंग ने रखी थी। तब से ही यह कम्पनी सस्ती दरों पर एण्टीबायोटिक दवाएँ बना रही है। एक प्राइवेट कम्पनी ने सिप्रोफ्लोक्सासिन नाम की एक एण्टीबायोटिक 35 रुपये प्रति टेबलेट की दर से लांच की थी तो इस कम्पनी ने यही दवा 7 रुपये की दर से उपलब्ध करवाई थी।

बिल गेट्स की चैरिटी – आम लोगों का स्वास्थ्य ख़राब करके कमाई करने का एक और तरीक़ा

इस फ़ाउण्डेशन द्वारा समय-समय पर नये-नये टीके (vaccine) अलग-अलग बीमारियों के लिए, प्राइवेट कम्पनियों से बनवाये जाते हैं जैसे कि पोलियो के लिए (oral vaccine) काली खाँसी के लिए, निमोनिया के लिए, बच्चेदानी के कैंसर के लिए आदि और फिर इसका इस्तेमाल करने के लिए प्रचार चलाया जाता है। इसके लिए देश के नामी चेहरों को पैसे देकर ख़रीदा जाता है और तथाकथित मानवता की भलाई का डंका हर टीवी चैनल पर पीटा जाता है। पोलियो बूँदों के प्रचार के दौरान अमिताभ बच्चन ने अपनी अदाकारी के जोहर दिखाते हुए इस मुहिम काे सहयोग किया। बिल गेट्स की इस मानवता की भलाई वाली भावना का दूसरा हिस्सा भी है, जो छुपा लिया जाता है। यह दूसरा हिस्सा सिद्ध करता है कि यह भलाई आम लोगों के लिए असल में कैसे दुख और मौत लेकर आती है।

सुधार के नाम पर मेडिकल शिक्षा को बर्बाद करने की तैयारी

यह असल में मेडिकल एजुकेशन और स्वास्थ्य सेवाओं को यह पूरी तरह से पूँजीपतियों के हाथ में सौंप देने की साजिश है। साफ़ तौर पर दिख रहा है कि सरकार को न तो भ्रष्टचार से कोई मतलब है, न ही मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता से और न ही स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार से। सरकार को मतलब है तो बस प्राइवेट और कॉर्पोरेट सेक्टर को मुनाफ़ा पहुँचाने से। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार किसी भी देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद का पाँच प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर लगाना चाहिए लेकिन भारत दो प्रतिशत से भी कम लगाता है, बल्कि बीते वित्त वर्ष में तो सिर्फ़ 1.58 प्रतिशत ही लगाया था और इसमें सरकारी मेडिकल कॉलेजों पर लगाया गया पैसा भी शामिल है।

पूँजीवाद और स्वास्थ्य सेवाओं की बीमारी

अगर डॉक्टरों की बात की जाये तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हजार की आबादी पर सिर्फ 9 बिस्तर मौजूद हैं। इस पर भी उदारीकरण और निजीकरण के चलते इन सीमित डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवाओं का केन्द्रीकरण भी शहरों में ही सीमित हो कर रह गया है. एक अध्ययन के अनुसार भारत में 75 प्रतिशत डिस्पेंसरियां, 60 प्रतिशत अस्पताल और 80 प्रतिशत डॉक्टर शहरों में हैं जहाँ भारत की केवल 28 आबादी निवास करती है।

अस्पताल या कसाईखाना

उनके पास जितना भी पैसा था वे पहले ही जमा करा चुके थे और अब उनके पास कुछ नहीं हैा अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें बिना भुगतान किये डिस्चार्ज करने से मना कर दिया। जयभगवान ने जब अपने दुकान मालिक से मदद माँगी तो उसने भी हाथ खड़े कर दिये लेकिन काफ़ी आरज़ू-मिन्नत करने के बाद 8000 रुपये सूद पर उधार दिया। बाकी रक़म भी परिवार वालों ने तगड़े ब्‍याज पर इकट्ठा की और अस्पताल का बिल चुकाया।

दवा उद्योग का आदमख़ोर गोरखधन्धा

अगर नकली दवा से बच भी लिया जाये तो एक नया हथकण्डा तैयार खड़ा है। पिछले साल ख़बर आयी थी कि आन्ध्रप्रदेश और तेलंगाना में अहमदाबाद की एक दवा कम्पनी से उसकी दवाओं की बिक्री बढ़ाने की एवज में 44 डॉक्टरों को कैश और गिफ्ट लेते हुए पकड़ा गया था। इंडियन मेडिकल काउंसिल ने आन्ध्रप्रदेश मेडिकल काउंसिल से इन डॉक्टरों के खिलाफ़ “एक्शन” लेने के निर्देश भी दिये थे। बहरहाल डॉक्टरों के खिलाफ़ एक्शन लिया जाना हालाँकि ज़रूरी है लेकिन इसके लिए सिर्फ डॉक्टर ज़िम्मेदार नहीं हैं। डॉक्टरों और दवा कंपनियों का यह “अपवित्र गठजोड़” कोई नई खोज नहीं है। बहुत पहले से ही दवा कंपनियाँ अपने एजेंटों के ज़रिये यह काम अंजाम देती आ रही हैं। कंपनियों और थोक व्यापारियों के लिए काम करने वाले एजेंट या मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव अपने “टारगेट” पूरे करने हेतु डॉक्टरों को पकड़ते हैं और कमीशन के एवज़ में डॉक्टरों के भी टारगेट तय होते हैं। यहाँ से शुरू होता है मुनाफे़ की हवस का नंगा नाच जिसमें दवा कम्पनियाँ, दवा विक्रेता और डॉक्टर सभी एक साथ ताल से ताल मिलाते हैं। टारगेट पूरा करने के लिए तमाम तरह की गैर ज़रूरी दवाएँ मरीज़ों पर थोप दी जाती हैं जो बहुत बार उनके स्वास्थ्य को नुकसान भी पहुँचाती हैं। इसके अलावा मरीज़ की जेब पर जो बोझ पड़ता है उसके बारे में लिखने की भी ज़रूरत नहीं है। साथ में बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने के पीछे एक कारण उनका गैर ज़रूरी इस्तेमाल भी है।