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मुनाफ़े के गोरखधन्धे में बलि चढ़ता विज्ञान और छटपटाता इन्सान

कहने को तो विज्ञान मानव का सेवक है लेकिन पूँजीवाद में यह मात्र मुनाफ़ा कूटने का एक साधन बनकर रह गया है। मुनाफ़े की कभी न मिटने वाली भूख से ग्रस्त यह मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था मानव के साथ-साथ मानवीय मूल्य और मानवीय संवेदनाओं को भी निरन्तर निगलती जा रही है। विज्ञान की ही एक विधा चिकित्सा विज्ञान का उदाहरण हम देख सकते हैं। विज्ञान की किसी भी अन्य विधा की तरह चिकित्सा विज्ञान ने भी पिछले कुछ दशकों में अभूतपूर्व तरक़्क़ी की है और इसकी बदौलत हमने अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हासिल की हैं और अनेक बीमारियों पर विजय पायी है तथा अनेक बीमारियों से लड़ने में हम सक्षम हुए हैं। लेकिन विज्ञान की अन्य धाराओं की तरह ही चिकित्सा विज्ञान भी पूँजीवाद के चंगुल में इस तरह से जकड़ा हुआ है कि उच्चतम मानवीय मूल्यों पर आधारित यह विज्ञान भी मात्र मुनाफ़ा कमाने का एक ज़रिया बनकर रह गया है। इस व्यवस्था में मरीज़ को मरीज़ नहीं बल्कि ग्राहक माना जाता है जिसको दवाएँ और इलाज बेचा जाता है। डॉक्टरों से लेकर दवा कम्पनियाँ और यहाँ तक कि इस व्यवसाय से जुड़े अधिकतर लोग मुनाफ़े की इस दलदल में बुरी तरह से धँसे हुए हैं।

ये मौतें बीमारी की वजह से हैं या कारण कुछ और है?

अब अगर स्वास्थ्य सेवाओं की बात की जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हेल्थ सिस्टम की रैंकिंग में भारत का स्थान पूरी दुनिया में 112वाँ है। गृहयुद्ध की मार झेल रहा लीबिया भी इस क्षेत्र में भारत से आगे है। भारत में हर तीस हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और हर सब डिविजन पर एक 100 बेड वाले सामान्य अस्पताल का प्रावधान है। आज की मौजूदा हालत में ये प्रावधान ऊंट के मुंह में जीरा ही हैं लेकिन असल में होता क्या है कि जनता तक ये प्रावधान भी नहीं पहुँच पाते हैं। मतलब नौबत ये है कि ऊंट के मुंह में जीरा तक नहीं है। भारत में आज के समय में 381 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें एक एमबीबीएस डॉक्टर को तैयार करने में 30 लाख से ज्यादा का खर्चा आता है। जाहिर है यह सब मेडिकल कॉलेज बनाने में और डॉक्टरों की पढ़ाई का सारा पैसा देश की जनता द्वारा दिए गए टैक्स से ही आता है, लेकिन यहाँ से डिग्री लेने के बाद अधिकतर डॉक्टर बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में या फिर निजी व्यवसाय में उसी जनता की जेब काटने में जुट जाते हैं। जो थोड़े से डॉक्टर सरकारी नौकरी करना भी चाहते हैं तो उनके लिए जन स्वास्थ्य सेवाओं या सरकारी अस्पतालों में वैकेंसी नहीं निकलती। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हजार की आबादी पर सिर्फ 9 बिस्तर मौजूद हैं। दूसरे देशों से तुलना की जाये तो क्यूबा में प्रति दस हजार आबादी 67 डॉक्टर हैं, रूस में 43, स्विट्ज़रलैंड में 40 और अमेरिका में 24 डॉक्टर हर दस हजार की आबादी पर हैं।

चिकित्सा में खुली मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ावा, जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़

फ़रवरी 2015 के टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में छपी एक रिपोर्ट पर नज़र डालें, जो निजी अस्पतालों के डॉक्टरों से बातचीत पर आधारित है। इसके अनुसार निजी अस्पतालों में सिर्फ़ उन्हीं डॉक्टरों को काम पर रखा जाता है जो ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने में मदद करते हों और मरीजों से भिन्न-भिन्न प्रकार के टेस्ट और दवाओं के माध्यम से ज़्यादा से ज़्यादा पैसे वसूल कर सकते हों। यदि एक डॉक्टर मरीज के इलाज में 1.5 लाख रुपया लेता है तो उसे 15 हज़ार रुपये दिये जाते हैं और बाक़ी 1.35 लाख अस्पताल के मुनाफ़े में चले जाते हैं।

भारत में जन्म लेने वाले अधिकतर बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली गर्भवती माँएँ कुपोषित

विकास के लम्बे-चौड़े दावों और ‘बेटी बचाओ’ जैसे सरकारी नुमायशी अभियानों के बावजूद एक नंगी सच्चाई यह है कि भारत में जन्म लेने वाले अधिकतर बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली गर्भवती माँएँ कुपोषित होती हैं। यहाँ तक कि उनकी स्थिति कांगो, सोमालिया और जिम्बाब्वे जैसे ग़रीब अफ्रीकी देशों के बच्चों और गर्भवती स्त्रियों से भी बदतर है।

मुनाफ़े की व्यवस्था में बेअसर हो रही जीवनरक्षक दवाएँ

भारत में एक बड़ी बीमारी चुपचाप पैर पसार रही है जिसका कारण ऐसे बैक्टीरिया की किस्मों का बड़ी संख्या में सामने आना है, जिन पर रोगाणु-रोधक दवाओं का या तो बिल्कुल ही कोई असर नहीं होता या फिर बहुत कम दवाओं का ही असर होता है और जब तक सही दवा का पता लगता है, तब तक रोगी की हालत पहले ही लाइलाज हो चुकी होती है या उसकी मृत्यु हो जाती है।  एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार इसका सबसे भयानक प्रभाव नवजात बच्चों में दिखायी दे रहा है। भारत में हर वर्ष आठ लाख नवजात बच्चे किसी न किसी कारण मौत के मुँह में चले जाते हैं। पिछले वर्ष इन आठ लाख बदकिस्मत बच्चों में से 58,000 बच्चे ऐसे बैक्टीरिया का शिकार हुए जिन पर रोगाणु-रोधक-दवाओं का कोई प्रभाव नहीं हुआ, और कभी पूरी तरह इलाजयोग्य रही बीमारियाँ लाइलाज बन गयीं। चाहे फ़िलहाल यह संख्या नवजात बच्चों की कुल मौतों का बहुत छोटा हिस्सा प्रतीत होती है, परन्तु डॉक्टरों के अनुसार यह संख्या तेज़ी से बढ़ सकती है, क्योंकि भारत में वे सभी हालात मौजूद हैं जो ऐसे बैक्टीरिया के बहुत तेज़ी से फैलने के लिए अनुकूल माहौल मुहैया करवाते हैं।

मामला सिर्फ़ मेडिकल लापरवाही या घटिया दवाओं का नहीं है!

यह नीति और नसबन्दी अभियान भयंकर हद तक नारी-विरोधी है और यह समाज में मौजूद मर्द प्रधानता और महिलाओं की गुलामों वाली हालत का एक बहुत ही नीच दिखावा है, जिसका एक सभ्य समाज में कोई चलन नहीं हो सकता, परन्तु भारत समेत तीसरी दुनिया के सभी देशों में औरतों को इस अमानवीय व्यवहार का दशकों से शिकार बनाया जा रहा है।

इबोला – महामारी या महाक़त्ल?

ग़रीबों की बस्तियों में सफ़ाई अभियान तब शुरू होता है जब वहाँ पर फैली गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियों का अमीरों के इलाक़ों में फैलने का ख़तरा खड़ा हो जाता है। यह बात आज के मेडिकल ‘अनुसन्धान’ पर अक्षरतः फिट बैठती है। 1976 में इबोला वायरस के पता चलने से लेकर अब तक, इस बीमारी के लिए वैक्सीन बनाने या दवा खोजने का काम कोल्ड-स्टोरेज में पड़ा रहा है क्योंकि इबोला अब तक ग़रीब अफ़्रीकी देशों की बीमारी थी! ग़रीबों को होने वाली बीमारियों के इलाज के लिए आज के मेडिकल अनुसन्धान को तब तक कोई दिलचस्पी नहीं होती है, जब तक कि वह अमीरों के लिए कोई ख़तरा नहीं बनतीं। आज का मेडिकल अनुसन्धान पूरी तरह दवा-कम्पनियों के कब्ज़े में है इसलिए अनुसन्‍धान उन बीमारियों के लिए होते हैं जिनके लिए दवा खोजने से बड़ा मुनाफ़ा होने की सम्भावना हो, यानी इसके ग्राहक अमीर तथा उच्च-मध्यवर्ग के लोग ही हैं। डायबिटीज़, उच्च रक्तचाप तथा दिल की बीमारियाँ जो मुख्यतः पूँजीपतियों और उनके टुकड़ों पर पलने वाले आरामपरस्त परजीवी लोगों को होती हैं, उनके लिए पहले ही अच्छी-खासी दवाएँ होने के बावजूद अरबों-खरबों डॉलर ‘अनुसन्धान’ पर लुटाये जा रहे हैं जबकि बहुसंख्यक मेहनतकश, मज़दूर आबादी के लिए नयी दवाएँ खोजना तो दूर, आधी सदी पहले से खोजे जा चुके इलाज तथा बीमारियों को रोकने के लिए जानकारी पहुँचाने के लिए फूटी-कौड़ी ख़र्च नहीं की जाती।

मोदी सरकार का नया तोहफ़ा: जीवनरक्षक दवाओं के दामों में भारी वृद्धि

मोदी सरकार के वर्तमान फैसले से कुछ महत्वपूर्ण जीवनरक्षक दवाओं की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हो गयी है। मसलन रक्तचाप व हृदय की दवा कार्डेस प्लेविक्स जो कि 92 से 147 रुपये में उपलब्ध थी, अब 147 से 1615 रुपये के बीच बिक रही है। कुत्ता काटने पर लगाया जाने वाला एंटीरैबीज़ इंजेक्शन कैमरेब जो कि 2670 रुपये में मिलता था अब उसकी कीमत 7000 रुपये तक जा पहुँची है। इसी तरह कैंसर की दवा जैफ्रटीनेट ग्लीवेक जो कि 5900 से 8500 रुपये के बीच बिक रही थी, अब 11500 से 1,08,000 के बीच बिक रही है। इस फैसले से दवा कम्पनी सनोफ़ी को 139 करोड़ रुपये, रैनबैक्सी को 38 करोड़ रुपये, ल्यूपिन को 32 करोड़ रुपये, सिपला को 19 करोड़ रुपये का अतिरिक्त मुनाफ़ा हासिल होगा। इसके अलावा सैकड़ों अन्य कम्पनियों को भी इस फैसले से करोड़ों का लाभ मिलेगा।

इज़रायली बर्बरता की कहानी – एक डाक्टर की ज़ुबानी

डा. गिल्बर्ट का फिलिस्तीनी लोगों के मुक्ति-संघर्ष से पुराना नाता रहा है। वे 1970 से फिलिस्तीन तथा लेबनान में काम रहे हैं। वे ऐसे डाक्टर हैं जिनके लिए मानवता की सेवा तथा ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्षरत लोगों के साथ होकर लड़ने में मेडिकल विज्ञान की सार्थकता है, जिनके लिए मेडिकल विज्ञान जरूरत से ज़्यादा खाने और कोई काम न करने वाले परजीवियों के मोटापे को कम करने का विज्ञान नहीं है, जिनके लिए मेडिकल विज्ञान का ज्ञान पूँजीपतियों के खोले पांच-सितारा अस्पतालों में बेचने की चीज नहीं है और जिनके मेडिकल विज्ञान का ज्ञान समूची मानवता की धरोहर है न कि मुठ्ठीभर अमीरों के घर की रखैल। वे आज के समय में डा. नार्मन बेथ्यून, डा. कोटनिस, डा. जोशुआ हॉर्न जैसे डाक्टरों की परम्परा को बनाए हुए हैं जिन्होंने वक्त आने पर लोगों का पक्ष चुना था। वे और उनके साथ काम करने अन्य कई डाक्टर तथा कर्मी इस बात का उदाहरण हैं कि आज भी ऐसे डाक्टर मौजूद हैं, भले ही अभी इनकी संख्या कम हो, जो बड़े-बड़े पैकेजों, आरामदायक जीवन को छोड़कर आम लोगों और उनके सुख-दुःख से अपने जीवन को लेते हैं और इस लिए सही मायने में डाक्टर कहलवाने के योग्य हैं।

हर साल इस आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था की भेंट चढ़ जाते हैं हज़ारों मासूम

वैसे तो हर साल इस बीमारी की रोकथाम के लिए अस्पतालों को बेहतर बनाने और जर्जर पड़ी स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने के नाम पर करोड़ों रुपए की घोषणाएँ की जाती है, परन्तु जमीनी स्तर पर हालात में कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। यह भी एक विडंबना है कि सरकार आतंकवाद को इस देश का सबसे बड़ा खतरा बताती है, जबकि असलियत में बम धमाकों से भी ज्यादा लोग डेंगू, मलेरिया, तथा जापानी इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों के कारण मारे जाते हैं। अगर सरकार अपने कुल बजट में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को थोड़ा सा भी बढ़ा दे तो भी जनता को निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। परंतु वह ऐसा नही करेंगी, क्योंकि सरकार को ईलाज के अभाव में हर क्षण दम तोड़ रहे बच्चों से ज्यादा पूँजीपतियों के मुनाफे की ज्यादा चिंता हैं।