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दिल्ली के शाहाबाद डेरी में मज़दूर बस्तियों के बगल में बनाये गये श्मशान को हटाने का संघर्ष और सरकारी तंत्र का मकड़जाल!

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान सरकार की बदइंतज़ामी ने हजारों लोगों की असमय जान ली। मरने वालों की संख्या इतनी अधिक थी कि लाशों के लिए जगह कम पड़ गयी। कहीं लाशों को नदियों में बहाया गया तो कहीं नये-नये शमशान खोले जा रहे थे। ऐसा ही एक श्मशान अप्रैल महीने में उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के शाहाबाद डेरी के रिहायशी इलाक़े में बनाया गया। तब दिल्ली में कोविड से मरने वालों की संख्या 4 से 5 हज़ार तक बतायी जा रही थी (ज़मीनी हकीकत इससे कहीं अधिक बदतर थी)।

कायर संघियों का जन स्वास्थ्य अधिकार मुहिम के कार्यकर्ताओं पर हमला

संघी सच से इतना डरते हैं क‍ि महामारी के दौर में लोगों को जागरूक करने की मुहिम भी उनसे बर्दाश्‍त नहीं होती। इस मुहिम के दौरान देश की कई जगहों पर अन्धभक्‍तों और संघी कार्यकर्ताओं से बहसें-झड़पें हुईं लेकिन लखनऊ में तो संघियों ने नौजवान भारत सभा और स्‍त्री मुक्ति लीग के कार्यकर्ताओं पर हमला ही कर दिया।

सालों से उपेक्षित बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत और कोरोना महामारी में उजागर होते उसके भयावह नतीजे!

जिस प्रकार देश में कोरोना महामारी की स्थिति को छुपाने में मोदी सरकार लगी हुई है, उसी प्रकार जदयू-भाजपा की गठबन्धन सरकार बिहार की ज़मीनी हक़ीक़त को दबाने की पूरी कोशिश कर रही है! कोरोना से हुई मौत के आँकड़ों में हेरफेर कर असली आँकड़ों को दबाने की पूरी कोशिश की गयी परन्तु सच्चाई किसी से नहीं छुपी है।

हमारे देश और दुनिया में पैदा हुई वैक्सीन की किल्लत का ज़िम्मेदार कौन?

कोविड-19 महामारी के बीच जब दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत वैज्ञानिकों की मेहनत रंग लायी और वैक्सीन के सफल निर्माण और शुरुआती ट्रायलों में उसकी प्रत्यक्ष प्रभाविता की ख़बरें आयीं तो दुनिया को इस अँधेरे समय में आशा की किरण दिखायी दी। लेकिन वैक्सीन निर्माण और उसके वितरण के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ी मुनाफ़ाख़ोर फ़ार्मा कम्पनियाँ, मौजूदा पेटेण्ट क़ानून और बौद्धिक सम्पत्ति अधिकारों के पूँजीवादी नियम, विज्ञान द्वारा पैदा की गयी इस आशा की इस किरण को लगातार मद्धम किये जा रहे हैं।

उन्‍हें भरोसा है क‍ि उनका झूठा प्रचार और नफ़रत की अफ़ीम फिर सर चढ़कर बोलेंगे और लोग सबकुछ भूल जायेंगे!

मौत और बर्बादी का ऐसा ताण्डव मचाने के बाद भी ये फ़ासिस्ट ग़लती मानने के बजाय चोरी और सीनाज़ोरी वाले अन्दाज़ में झूठे दावे किये जा रहे हैं। लेकिन वे भी जानते हैं क‍ि इस बार मौतों का जो सैलाब आया था उसने किसी को भी नहीं छोड़ा है। बड़ी संख्या में मोदीभक्त और भाजपा-संघ के समर्थक व कार्यकर्ता भी महामारी और सरकारी बदइन्तज़ामी का शिकार हुए हैं। ऐसे में उनके पास एकमात्र रास्ता है साम्प्रदायिकता के प्रेत को फिर से काम पर लगाना, जिसके वे पुराने माहि‍र हैं। पिछले कुछ दिनों की घटनाएँ आने वाले समय में इनके मंसूबों की ओर इशारा कर रही हैं।

जब बस्तियों के किनारे श्मशान बना दिये जायें तो समझो हालात बद से बदतर हो गये हैं

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने तमाम सरकारों के चेहरे से एक बार नक़ाब उतार दिया है। स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल पट्टी पूरी तरह खुल गयी है। कोरोना महामारी से प्रतिदिन 4000 के क़रीब मौतें हो रही हैं, जो सिर्फ़ सरकारी आँकड़ा है, पर असल में सरकारी आँकड़ों से तीन-चार गुना अधिक मौतें हो रही हैं। मौत न कहकर इनको व्यवस्था द्वारा की गयी हत्या कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चारों तरफ़ हाहाकार है, लोग ऑक्सीजन, बेड और दवाइयों के लिए भटक रहे हैं। लेकिन केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों ने अपनी ज़िम्मेदारी से हाथ उठा लिये है।

मोदी सरकार के आपराधिक निकम्मेपन की सिर्फ़ दो मिसालें देखिए!

जब देशभर में लाखों मरीज़ ऑक्सीजन के अभाव में तड़प रहे थे, हज़ारों रोज़ मर रहे थे, अस्पतालों तक में ऑक्सीजन ख़त्म होने से मौतें हो रही थीं, तब मोदी सरकार के नाकारापन की यह बानगी देखिए!

कोरोना की दूसरी लहर में बदहाल राजस्थान

कोराना की दूसरी लहर में राजस्थान बिल्कुल बदहाल हो गया है। यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं ने दम तोड़ दिया है। यह लेख लिखे जाने तक राजस्थान में कुल ऐक्टिव कोरोना केस 1,98,000 हो गये थे। जबकी रोज़ 150 लोग कोरोना से दम तोड़ रहे हैं। राजस्थान में कोरोना की संक्रामकता का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कोरोना की पहली लहर में 50 दिन में 1 लाख मरीज़ आये थे जबकि इस बार दूसरी लहर में 5 दिन में ही 1 लाख से ज़्यादा पाॅज़िटिव केस आ गये।

मुनाफ़े के गोरखधन्धे में बलि चढ़ता विज्ञान और छटपटाता इन्सान

कहने को तो विज्ञान मानव का सेवक है लेकिन पूँजीवाद में यह मात्र मुनाफ़ा कूटने का एक साधन बन कर रह गया है। मुनाफ़े की कभी न मिटने वाली भूख से ग्रस्त यह मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था मानव के साथ-साथ मानवीय मूल्य और मानवीय संवेदनाओं को भी निरन्तर निगलती करती जा रही है। विज्ञान की ही एक विधा चिकित्सा विज्ञान का उदाहरण हम देख सकते हैं।

क्रान्तिकारी चीन में स्वास्थ्य प्रणाली

ऐसे में पड़ोसी मुल्क चीन के क्रान्तिकारी दौर (1949-76) की चर्चा करेंगे, जब मेहनतकश जनता के बूते बेहद पिछड़े और बेहद कम संसाधनों वाले “एशिया के बीमार देश” ने स्वास्थ्य सेवा में चमत्कारी परिवर्तन किया, साथ ही स्वास्थ्यकर्मियों और जनता के आपसी सम्बन्ध को भी उन्नत स्तर पर ले जाने का प्रयास किया। आज का पूँूजीवाद चीन भारी पूँजीनिवेश और सख़्त नौकरशाहाना तरीक़ों के दम पर कोरोना के नियंत्रण आदि के काम कर ले रहा है, पर बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी उस सुलभ और मानवीय चिकित्सा सेवा से वंचित हो गयी है जो समाजवाद ने उन्हें कम संसाधनों में भी उपलब्ध करायी थी। डॉ. विक्टर सिडेल और डॉ. रुथ सिडेल की पुस्तक ‘सर्व दि पीपल’ के एक लेख के आधार पर एक अनुभवी चिकित्सक का लिखा यह लेख चीन में हुए स्वास्थ्य सेवा ओं में क्रान्तिकारी बदलावों की एक झलक पेश करता है।