Category Archives: महान मज़दूर नेता

कार्ल मार्क्‍स के जन्मदिन (5 मई) के अवसर पर

मार्क्‍स ने जिस दूसरी महत्त्वपूर्ण बात का पता लगाया है, वह पूँजी और श्रम के सम्बन्ध का निश्चित स्पष्टीकरण है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने यह दिखाया कि वर्तमान समाज में और उत्पादन की मौजूदा पूँजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत किस तरह पूँजीपति मज़दूर का शोषण करता है। जब से राजनीतिक अर्थशास्त्र ने यह प्रस्थापना प्रस्तुत की कि समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम ही है, तभी से यह प्रश्न भी अनिवार्य रूप से सामने आया कि इस बात से हम इस तथ्य का मेल कैसे बैठायें कि उजरती मज़दूर अपने श्रम से जिस मूल्य को उत्पन्न करता है, वह पूरा का पूरा उसे नहीं मिलता, वरन उसका एक अंश उसे पूँजीपति को दे देना पड़ता है? पूँजीवादी और समाजवादी, दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों ने इस प्रश्न का ऐसा उत्तर देने का प्रयत्न किया, जो वैज्ञानिक दृष्टि से संगत हो, परन्तु वे विफल रहे। अन्त में मार्क्‍स ने ही उसका सही उत्तर दिया। वह उत्तर इस प्रकार है : उत्पादन की वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली में समाज के दो वर्ग हैं – एक ओर पूँजीपतियों का वर्ग है, जिसके हाथ में उत्पादन और जीवन-निर्वाह के साधन हैं, दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग है, जिसके पास इन साधनों से वंचित रहने के कारण बेचने के लिए केवल एक माल – अपनी श्रम-शक्ति – ही है और इसलिए जो जीवन-निर्वाह के साधन प्राप्त करने के लिए अपनी इस श्रम-शक्ति को बेचने के लिए मजबूर है।

नताशा – एक महिला बोल्शेविक संगठनकर्ता (पाँचवीं किश्त)

दिनों-दिन पूँजीवाद का बढ़ता प्रसार न सिर्फ पुरुषों बल्कि उनकी पत्नियों, बहनों और बेटियों को भी औद्योगिक जीवन के चक्रवात में खींच रहा है। उद्योगों की तमाम शाखाओं में धातु उद्योग समेत हज़ारों – दसियों हज़ार स्त्रियाँ काम करती हैं। पूँजी ने उन सब पर ठप्पा लगा दिया है और उन सबको श्रम बाज़ार में फेंक दिया है। वह युवाओं की, स्त्रियों की शारीरिक कमज़ोरी की और मातृत्व के उत्साह की उपेक्षा करती है। जब स्त्रियाँ फैक्टरियों में जाती हैं और उन्हीं मशीनों पर काम करती हैं जिन पर मर्द करते हैं, तो वे एक नयी दुनिया का सन्धान करती हैं। उद्योग की प्रक्रिया में लोगों के नये सम्बन्धों का सन्धान करती हैं। वे मज़दूरों को अपने हालात सुधारने के लिए संघर्ष करते देखती हैं। और हर आने वाले दिन के साथ स्‍त्री मज़दूरों का इसका अधिकाधिक विश्वास होता गया कि काम की स्थितियों ने उन्हें फैक्टरियों के पुरुष मज़दूरों के साथ जोड़ दिया है, कि उन सबके हित साझा हैं, और स्‍त्री मज़दूरों ने यह महसूस करना शुरू किया कि वे औद्योगिक परिवार का हिस्सा हैं, कि उनके हित समूचे मेहनतकश वर्ग के साथ जुड़े हैं।

अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी (चौथी किश्त)

रूस की कामकाजी औरतों को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस की जानकारी 1913 में मिली और उस दिन से कमोबेश नियमित रूप से इसका आयोजन शुरू हुआ। कामकाजी औरतों ने दुनिया भर की अपनी जैसी दूसरी कामरेडों के साथ हमदर्दी महसूस की। उन्होंने यह समझना शुरू किया कि गरीबी और किल्लत से औरतों को तभी छुटकारा मिल सकता था जब मेहनतकश वर्ग पूँजीपति वर्ग के खिलाफ अपने संघर्ष को निर्णायक जीत के मुकाम पर पहुँचाये। बहरहाल, हमें आन्दोलन पर हावी रहने के लिए मेंशेविकों से लड़ना था क्योंकि वे उसे पूँजीवादी पार्टियों के वर्चस्व के आधीन करने की कोशिश कर रहे थे।

सुब्बोत्निक पर लेनिन

सुब्बोतनिक नाम उस अवैतनिक काम को दिया गया था जो सोवियत संघ के मेहनतकश छुट्टी के दिनों में अथवा अपने काम के घण्टों के बाद स्वेच्छा से देश के लिए करते थे। पहले सुब्बोतनिक (अवैतनिक काम) की व्यवस्था 10 मई, 1919 को, एक शनिवार के दिन मास्को-कज़ान रेल के सोरटीरोवोश्नाया डिपो के मज़दूरों की पहलक़दमी पर की गयी थी (रूसी भाषा में शनिवार को सुबोता कहते हैं, इसलिए इस आन्दोलन का नाम सुब्बोतनिक पड़ा था)। सोवियत सत्ता के प्रारम्भिक वर्षों में तथा महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के दौरान सुबोतनिकों के इस आन्दोलन ने काफ़ी व्यापक रूप ग्रहण कर लिया था। लेनिन सहित सभी कम्युनिस्ट नेता खुद इन सुब्बोतनिकों में भाग लेते थे और मेहनतकशों को प्रेरित करते थे कि वे अपने राज को मज़बूत करने के लिए स्वेच्छा से काम करें। यह इस बात का भी प्रतीक था कि जब मज़दूर वर्ग शोषक मालिकों के लिए नहीं बल्कि खुद अपने लिए काम करता है तो श्रम करना बोझ नहीं रह जाता बल्कि उत्साह और आनन्द का स्रोत बन जाता है।

अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी (तीसरी क़िश्त)

उन दिनों मेहनतकश जनता पर प्रावदा का ज़बरदस्त प्रभाव था। उसने बोल्शेविक पाठकों की पूरी एक पीढ़ी को प्रशिक्षित किया जिन्होंने 1917 की क्रान्ति की शुरुआत में एक ठोस समूह का रूप धारण कर लिया था, वे एक भावना से ओतप्रोत थे और एक फौलादी अनुशासन से आपस में जुड़े हुए थे। बहुत-से कामरेड प्रावदा के काम में हिस्सा लिया करते थे। लेकिन नताशा का ओहदा ही इन सभी कामों की जान था। मेहनतकशों और क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं के बीच काम करते हुए वे आन्दोलन से पहली बार जुड़ने वाले मज़दूर समूहों का बड़ी सावधानीपूर्वक जायज़ा लेतीं और अख़बार में उनका पद उन्हें इन मज़दूरों के साथ सीधा सम्पर्क करने और उनकी चेतना को बोल्शेविक धारा की तरफ मोड़ने के अनेक अवसर देता था।

अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी (दूसरी क़िश्त)

इस काम में भी नताशा लाजवाब थीं। उस समय वह बड़ी सभाओं में नहीं बोलती थीं – यह यूरिन का और मेरा दायित्व था, लेकिन वह कमेटी की जान और उसकी आत्मा थीं। बेहतरीन संगठनकर्ता, क्रान्ति के मकसद के प्रति पूरी तरह निष्ठावान, मुखर और स्पष्टवादी, एक असाधारण, उच्च विचारों वाली और नेक इंसान थीं। जो भी उनसे मिलता था उन्हें प्यार करने लगता था। वह अन्तोन की देखभाल करती थीं जो हम लोगों को हमेशा एक ऐसे बड़े बच्चे की तरह प्रतीत होता था जो मानो इस दुनिया के लिए न बना हो। वह हमारी देखभाल करती थीं, एक अध्‍ययन मण्डल चलाती थीं, और तकनीकी कार्यों का निर्देशन करती थीं, पूरे दिन सांगठनिक गतिविधियों में दौड़-भाग करती थीं और कभी शिकायत नहीं करती थीं। सर्वहारा की अन्तिम जीत में गहन आस्था की ज्वाला उनमें सदा जलती रहती थी। उनमें काम करने की ज़बरदस्त क्षमता थी और वह हमेशा ऊर्जा से लबरेज़ रहती थीं और इसी के साथ असाधारण शालीनता उनकी अनूठी पहचान थी।

अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी (पहली किश्त)

रूस की अक्टूबर क्रान्ति के लिए मज़दूरों को संगठित, शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने बरसों तक बेहद कठिन हालात में, ज़बर्दस्त कुर्बानियों से भरा जीवन जीते हुए काम किया। उनमें बहुत बड़ी संख्या में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता भी थीं। ऐसी ही एक बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता थीं नताशा समोइलोवा जो आख़िरी साँस तक मज़दूरों के बीच काम करती रहीं। हम ‘बिगुल‘ के पाठकों के लिए उनकी एक संक्षिप्त जीवनी का धारावाहिक प्रकाशन कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि आम मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।

द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया?

जब 1941 में नाजियों ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया तो पूँजीवादी जगत ने घोषणा कर दी कि साम्यवाद मर गया। लेकिन उन्होंने सोवियत समाजवाद की ताकत और अपने समाज की रक्षा करने वाले सोवियत जनगण की अकूत इच्छाशक्ति को कम करके आँका। स्तालिनग्राद के कंकड़-पत्थरों में आप इस सच्चाई का दर्शन कर सकते हैं कि जनगण हथियारों के जखीरे से लैस और तकनीकी रूप से उन्नत पूँजीवादी शत्रु को कैसे परास्त कर सकते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया? (तीसरी किस्‍त)

यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि युद्ध में महिलाएं हर जगह पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ीं…। मोर्चे पर दौरा करने वाला कोई भी यह देख सकता था कि महिलाएं तोपरोधी इकाइयों में बन्दूकचियों का काम कर रही थीं, जर्मन हवाबाजों के विरुद्ध लड़ाई में विमानचालकों का काम कर रही थीं, हथियारबन्द नावों के कैप्टन के रूप में, वोल्गा जहाजी बेड़ों में काम करती हुईं, उदाहरण के तौर पर, नदी के बायें तट से दायें तट पर सामान नावों में लादकर आने-जाने को काम बेहद कठिन दशाओं में कर रहीं थीं।

द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर को दरअसल किसने हराया? (दूसरी किस्‍त)

लेकिन जब जान की बाजी लगाकर स्तालिनग्राद को बचाये रखने के लिए लड़ाई करने के आदेश आये, तब तो जनसमुदायों को तेजी से समझ में आने लगा कि उनके कन्धों पर एक ऐतिहासिक दायित्व आ पड़ा था। लोगों के दिलों में एक अटूट एकता और दृढ़निश्चय की भावना भर उठी। उनका गर्वीला नारा गूँज उठा: ‘‘स्तालिनग्राद हिटलर की कब्र बनेगा!’’