Category Archives: इतिहास

अख़बार और मज़दूर

सर्वोपरि, मज़दूर को बुर्जुआ अख़बार के साथ किसी भी प्रकार की एकजुटता को दृढ़ता से ख़ारिज करना चाहिए। और उसे हमेशा, हमेशा, हमेशा यह याद रखना चाहिए कि बुर्जुआ अख़बार (इसका रंग जो भी हो) उन विचारों एवं हितों से प्रेरित संघर्ष का एक उपकरण होता है जो आपके विचार और हित के विपरीत होते हैं। इसमें छपने वाली सभी बातें एक ही विचार से प्रभावित होती हैं: वह है प्रभुत्वशाली वर्ग की सेवा करना, और जो आवश्यकता पड़ने पर इस तथ्य में परिवर्तित हो जाती है: मज़दूर वर्ग का विरोध करना। और वास्तव में, बुर्जुआ अख़बार की पहली से आखि़री लाइन तक इस पूर्वाधिकार की गन्ध आती है और यह दिखायी देता है।

समाजवादी रूस और चीन ने नशाख़ोरी का उन्मूलन कैसे किया

सोवियत सरकार ने अब तक शराबख़ोरी के खि़लाफ़ चली लहरों की मौजूदा रिपोर्टों और जानकारियों का अध्ययन किया। इन तथ्यों की छानबीन के बाद सोवियत अधिकारियों ने शराबख़ोरी की समस्या की जाँच-पड़ताल का काम नये सिरे से अपने हाथ में लिया। इस जाँच-पड़ताल के दौरान यह सामने आया कि रूस में शराबख़ोरी की समस्या सामाजिक और आर्थिक समस्या के साथ जुड़ी हुई है। लोग शराब की तरफ़ उस समय दौड़ते हैं जब वे अपने आपको ग़रीबी, भुखमरी, बेकारी जैसी समस्याओं से घिरा हुआ देखते हैं। उनको अपने दुख-तकलीप़फ़ों को भूलने का एक ही हल नज़र आता था – शराब। दूसरा इसको प्रोत्साहन इसलिए दिया जाता था कि सरकार इससे टैक्सों के द्वारा भारी लाभ कमा सके। ज़ार सरकार की कुल आमदनी का चौथा हिस्सा शराब से आता था।

इण्डोनेशिया में 10 लाख कम्युनिस्टों के क़त्लेआम के पचास वर्ष

जनसमर्थन और सांगठनिक विस्तार के नज़रिये से देखा जाये तो इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी बेहद मज़बूत पार्टी थी लेकिन विचारधारात्मक तौर पर वह पहले ही ख़ुद को नख-दन्तविहीन बना चुकी थी। असल में 1950 के दशक में ही उसने समाजवादी लक्ष्य हासिल करने का शान्तिपूर्ण रास्ता चुना। वर्ष 1965 तक उसने न सिर्फ़ अपने सशस्त्र दस्तों को निशस्त्र किया बल्कि अपना भूमिगत ढाँचा भी समाप्त कर दिया। विचारधारा के स्तर पर वह पूरी तरह सोवियत संशोधनवाद के साथ जाकर खड़ी हो गयी। उसने इण्डोनेशियाई राज्यसत्ता की संशोधनवादी व्याख्या प्रस्तुत की और दावा किया कि यहाँ के राज्य के दो पहलू हैं – एक प्रतिक्रियावादी और दूसरा प्रगतिशील। उन्होंने यहाँ तक कहा कि इण्डोनेशियाई राज्य का प्रगतिशील पहलू ही प्रधान पहलू है। यह बात पूरी तरह ग़लत है और अब तक के क्रान्तिकारी इतिहास के सबक़ों के खि़लाफ़ है। राज्य हमेशा से ही जनता के ऊपर बल प्रयोग का साधन रहा है। शोषकों के हाथों में यह एक ऐसा उपकरण है जिसके ज़रिये वह शोषणकारी व्यवस्थाओं का बचाव करते हैं। पूँजीवाद के अन्तर्गत प्रगतिशील पहलू वाले राज्य की बात करना क्रान्ति के रास्ते को छोड़ने के बराबर है। यह राजनीतिक लाइन पहले भी इतिहास में असफल रही है और एक बार फिर उसे ग़लत साबित होना ही था। लेकिन इस ग़लत राजनीतिक लाइन की क़ीमत थी 10 लाख कम्युनिस्टों की मौत और लाखों को काल कोठरी।

दूसरे विश्वयुद्ध के समय हुए सोवियत-जर्मन समझौते के बारे में झूठा प्रोपेगैण्डा

1939 के साल में जब जर्मनी, इटली और जापान की मुख्य शक्तियाँ दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध की तरफ़ खींचने के लिए जीजान से लगी हुई थीं, तो फासीवादी हमलों को रोकने और फासीवादी हमलों के साथ निपटने के लिए सोवियत यूनियन ने छह बार ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका को आपसी समझौते के लिए पेशकशें कीं, लेकिन साम्राज्यवादियों ने लगातार इन अपीलों को ठुकराया। दूसरी और इन देशों में जनमत और ज़्यादा से ज़्यादा सोवियत यूनियन के साथ समझौता करने के पक्ष में झुकता जा रहा था। अप्रैल, 1939 में ब्रिटेन में हुए एक मतदान में 92 प्रतिशत लोगों ने सोवियत यूनियन के साथ समझौते के पक्ष में वोट दिया। आखि़र 25 मई, 1939 को ब्रिटेन और फ़्रांस के हुक्मरानों को सोवियत यूनियन से बातचीत शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन यह बातचीत दिखावे की थी, फ़्रांस और ब्रिटेन का सोवियत यूनियन से समझौता करने का कोई इरादा नहीं था, क्योंकि बातचीत के लिए भेजे गये प्रतिनिधिमण्डल के पास कोई भी समझौता करने की अधिकारिक शक्ति ही नहीं थी और न ही फ़्रांस और ब्रिटेन सोवियत यूनियन के साथ आपसी सैन्य सहयोग की धारा को जोड़ने के लिए तैयार थे। निष्कर्ष के तौर पर 20 अगस्त, 1939 को बातचीत टूट गयी

मई दिवस के अवसर पर मज़दूर शहीदों को याद किया, पूँजी की गुलामी के ख़ि‍लाफ़ संघर्ष आगे बढ़ाने का संकल्प लिया

विभिन्न वक्ताओं ने कहा कि आठ घण्टे काम दिहाड़ी का क़ानून बनवाने के लिए पूरे विश्व के मज़दूरों ने संघर्ष किया है। उन्नीसवीं सदी में अमेरिकी औद्योगिक मज़दूरों ने ‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन’ के नारे के तहत बेहद शानदार, कुर्बानियों से भरा जुझारू संघर्ष किया था। पहली मई 1886 को अमेरिकी मज़दूरों ने देशव्यापी हड़ताल की थी जिसका अमेरिकी हाकिमों ने दमन किया था। दमन द्वारा मज़दूरों की आवाज़ को दबाया नहीं जा सका। आगे चलकर पूरे विश्व में आठ घण्टे काम दिहाड़ी, जायज़ मज़दूरी और अन्य अनेकों अधिकारों के लिए मज़दूरों के संघर्ष आगे बढ़े और विश्व भर की सरकारों को मज़दूरों को संवैधानिक अधिकार देने पड़े। रूस, चीन जैसे देशों में मज़दूर हुक़ूमतें स्थापित हुईं जिनके द्वारा मानवता ने शानदार उपलब्धियाँ हासिल कीं।

मई दिवस के महान शहीद आगस्‍ट स्‍पाइस के दो उद्धरण

सच बोलने की सज़ा अगर मौत है तो गर्व के साथ निडर होकर वह महँगी क़ीमत मैं चुका दूँगा। बुलाइये अपने जल्लाद को! सुकरात, ईसा मसीह, जिआदर्नो ब्रुनो, हसऊ, गेलिलियो के वध के ज़रिये जिस सच को सूली चढ़ाया गया वह अभी ज़िन्दा है। ये सब महापुरुष और इन जैसे अनेक लोगों ने हमारे से पहले सच कहने के रास्ते पर चलते हुए मौत को गले लगाकर यह क़ीमत चुकाई है। हम भी उसी रास्ते पर चलने को तैयार हैं

मई दिवस के अवसर पर बिगुल मज़दूर दस्‍ता, मुम्‍बई द्वारा जारी पर्चा

आज मज़दूरों की 93 फ़ीसदी (लगभग 56 करोड़) आबादी ठेका, दिहाड़ी व पीस रेट पर काम करती है जहाँ 12 से 14 घण्टे काम करना पड़ता है और श्रम क़ानूनों का कोई मतलब नहीं होता। जहाँ आए दिन मालिकों की गाली-गलौज का शिकार होना पड़ता है। इतनी हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी हम अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के सपने नहीं देख सकते। वास्तव में हमारा और हमारे बच्चों का भविष्य इस व्यवस्था में बेहतर हो भी नहीं सकता है। आज ज़रूरत है कि हम मज़दूर जो चाहे किसी भी पेशे में लगे हुए हैं, अपनी एकता बनायें। आज हम ज्यादातर अलग-अलग मालिकों के यहाँ काम करते हैं इसलिए आज ये बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी इलाकाई यूनियनें भी बनायें। अपनी आज़ादी के लिए, अपने बच्चों के भविष्य के लिए, इन्सानों की तरह जीने के लिए और ये दिखाने के लिए कि हम हारे नहीं हैं, हमें एकजुट होने की शुरुआत करनी ही होगी।

समाजवादी चीन ने स्त्रियों की गुलामी की बेड़ियों को कैसे तोड़ा

समाजवादी चीन (1949-1976) ने महिला मुक्ति के मोर्चे पर जो कुछ भी हासिल किया था उसके मूल में कानूनी परिवर्तन नहीं बल्कि वे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन थे जिन्हें क्रान्ति ने सम्पन्न किया था। यूँ तो पूँजीवादी समाजों में भी महिलाओं के लिए कानून बनाये जाते हैं, लेकिन इन कानूनों से मिलने वाले लाभ पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों की वजह से निष्प्रभावी हो जाते हैं और इस तरह पूँजीवाद में कानून होने के बावजूद स्त्रियों की दासता बनी रहती है और स्त्री-पुरुष समानता दूर की कड़ी नज़र आती है।

उत्तर-पूर्व की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ और दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता

केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध उपजे जनअसन्तोष को बन्दूक़ की नोंक पर दबाने के मक़सद से 1959 से ही पूरे उत्तर-पूर्व में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्स्पा) लागू है। यह दमनकारी काला क़ानून सेना और अर्द्धसैनिक बलों को उत्तर-पूर्व की जनता के ऊपर मनमाना व्यवहार करने की पूरी छूट देता है। अंग्रेज़ों की ही तरह दिल्ली की सरकार की उत्तर-पूर्व के इलाक़े में बुनियादी दिलचस्पी भूराजनीतिक-रणनीतिक ही है। इसीलिए इन समस्याओं का राजनीतिक समाधान ढूँढ़ने की बजाय दमन का जमकर इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा इन राज्यों में विकसित हो रहे नये मध्यम वर्ग को प्रलोभन और दबाव के सहारे सरकारी पिट्ठू बनाने की रणनीति भी अपनायी गयी। उत्तर-पूर्व के पूरे इलाक़े की शेष भारत के साथ सांस्कृतिक-आत्मिक एकता का आधार तैयार करने के लिए सरकार ने शायद ही कभी कुछ किया हो। आलम तो यह है कि इतिहास की पुस्तकों में इस भूभाग का उल्लेख तक नहीं मिलता। इस क्षेत्र के लोगों की सांस्कृतिक विभिन्नता की मूल वजह यह भी है कि यहाँ का समाज ज़्यादा खुला है, उसमें औरतों को कहीं ज़्यादा आज़ादी और बराबरी हासिल है तथा यहाँ जाति-व्यवस्था अनुपस्थित है।

स्तालिन कालीन सोवियत संघ के इतिहास के कुछ तथ्य और नये खुलासों पर एक नज़र

पूरी दुनिया में आज तक आधुनिक संशोधनवादी, त्रत्स्की-पन्थी व अराजकतावादी ख्रुश्चेव द्वारा तैयार किये गये “स्‍तलिन की ग़लतियों” के पर्दे की आड़ लेकर सर्वहारा वर्ग के साथ अपनी ग़द्दारी को छुपाने का काम कर रहे हैं। सर्वहारा वर्ग के प्रति ख्रुश्चेव की इस ग़द्दारी के झण्डे को उठाकर पूरी दुनिया के साम्राज्यवादी-पूँजीवादी आज तक कम्युनिस्ट आन्दोलनों को बदनाम करने और पूँजीवादी समाज में दमन-उत्पीड़न से जूझ रही मेहनतकश जनता के बीच समाजवाद के प्रति सन्देह पैदा करने के लिए हरसम्भव कोशिश में लगे हैं, ताकि आने वाले समय में कम्युनिस्ट आन्दोलनों को दिग्भ्रमित किया जा सके और व्यापक मेहनतकश जनता की लूटमार और शोषण पर खड़े अपने स्वर्ग के टापू को उजड़ने से बचाया जा सके। लेकिन यह झण्डा इतिहास के तथ्यों की मार से लगातार चिथड़ा होता जा रहा है और दुनिया की जनता के दिलों से स्तालिन को मिटाने की उनकी हर कोशिश नाकाम रही है।