Category Archives: आन्‍दोलन : समीक्षा-समाहार

मारुति सुज़ुकी मज़दूरों का आन्दोलन इलाक़ाई मज़दूर उभार की दिशा में

इन तात्कालिक और ठोस माँगों को रखने के साथ ही हमें समस्त ऑटोमोबाइल मज़दूरों के साझा माँगपत्रक को भी सरकार और प्रशासन के सामने रखना होगा। यह गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा- बावल के समस्त मज़दूरों के बीच एक दीर्घकालिक इलाक़ाई वर्ग एकजुटता का बीज डालेगा। इस बीज के अंकुरण और इसके एक शक्तिशाली वृक्ष में तब्दील होने में समय लग सकता है। लेकिन हमें इसकी शुरुआत आज ही करनी होगी, हमें बीज आज ही डालना होगा। यह न सिर्फ आज के जारी संघर्ष को जीतने के लिए ज़रूरी है बल्कि भविष्य में इस पूरी औद्योगिक पट्टी के सभी भावी संघर्षों के लिए ज़रूरी है। सन् 2000 में मारुति के निजीकरण की शुरुआत के साथ ही इस पूरी औद्योगिक पट्टी में मज़दूर आन्दोलनों की एक श्रृंखला शुरू हुई है जो होण्डा, रिको, ओरियेण्ट क्राफ़्ट के संघर्षों से होते हुए आज मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के संघर्ष तक पहुँच चुकी है। इस एक दशक से जारी संघर्ष के अनुभवों का निचोड़ हमें क्या बताता है? हमें दो औज़ारों की ज़रूरत है-पहला, इलाक़ाई मज़दूर वर्ग एकजुटता और इलाक़ाई मज़दूर उभार, और दूसरा, एक सूझबूझ वाला क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व।

मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन की सफ़लता का एक ही रास्ता आन्दोलन को कारख़ाने की चौहद्दी से बाहर निकालो!

जब इस समूचे औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों के मुद्दे एक हैं, उनकी समस्याएँ एक हैं, उनकी माँगें एक हैं, तो क्या उनका संघर्ष भी एक नहीं होना चाहिए? निश्चित तौर पर, आज मारुति सुज़ुकी कम्पनी में मुद्दा उठा है; 2005 में मुद्दा होण्डा में उठा था; उसके बाद रिको में; यह सूची अन्तहीन है! कल को मुद्दा किसी और कारख़ाने में होगा। लेकिन मुद्दे वही हैं! आज ज़रूरत इस बात की है कि मारुति सुज़ुकी के मज़दूर सीधे अन्य कारख़ानों के मज़दूरों का सक्रिय समर्थन हासिल करें! अन्य कारख़ानों के अपने साथियों के पास हमें दलाल ट्रेड यूनियनों के नेताओं-नौकरशाहों के ज़रिये जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। उनके पास जाने से हमें एक बार फिर से नपुंसक ज़ुबानी समर्थन मिल जायेगा, जिसका अब तक के हमारे आन्दोलन में कोई अर्थ नहीं रहा है। मारुति सुज़ुकी के संघर्षरत मज़दूरों को प्रचार टोलियाँ बनाकर अन्य कारख़ानों के मज़दूरों के बीच सीधे प्रचार के लिए जाना चाहिए, उन्हें बताना चाहिए कि हमारी समस्याएँ और माँगें एकसमान हैं; उन्हें बताना चाहिए कि आज मसला मारुति सुज़ुकी में उठा है, लेकिन कल यह उनके कारख़ानों में भी उठेगा; यह समझना चाहिए कि अगर आज से ही हम कारख़ाना-पारीय, सेक्टर-पारीय मज़दूर एकजुटता स्थापित नहीं करते, तो आज न तो मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का संघर्ष जीता जा सकता है, और न ही कल अन्य किसी भी कारख़ाने के मज़दूरों का; उन्हें यह बताना चाहिए कि आज मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के आन्दोलन को उनकी सक्रिय भागीदारी और समर्थन की ज़रूरत है क्योंकि इसके बिना यह आन्दोलन जीता नहीं जा सकता; उन्हें यह भी बताना होगा कि आज मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन की हार का अर्थ इस समूची औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों की हार होगी! हमें पूरा यक़ीन है कि मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूर यदि इस प्रकार का सीधा प्रचार अभियान चलायें तो गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के औद्योगिक क्षेत्र की एक बड़ी मज़दूर आबादी का प्रत्यक्ष और सक्रिय समर्थन और भागीदारी उन्हें मिल सकती है। इसके बिना, यह आन्दोलन अपने मुक़ाम तक नहीं पहुँच सकता, और इसके बिना इस क्षेत्र का कोई भी भावी आन्दोलन शायद ही सफलता हासिल करे।

मारुति के मज़दूरों के समर्थन में विभिन्न जनसंगठनों का दिल्ली में प्रदर्शन

मारुति सुज़ुकी, मानेसर के सैकड़ों मजदूरों को मैनेजमेण्‍ट द्वारा मनमाने ढंग से बर्खास्त किये जाने और मज़दूरों के लगातार जारी उत्पीड़न के विरुद्ध विभिन्न जन संगठनों, यूनियनों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 21 अगस्त को नयी दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किया और केन्द्रीय श्रम मन्त्री को ज्ञापन देकर मज़दूरों की बर्खास्तगी पर रोक लगाने की माँग की। इसी दिन एक महीने की तालाबन्दी के बाद कम्पनी मैनेजमेण्ट ने कारख़ाना दुबारा शुरू करने की घोषणा की थी। सुबह से हो रही बारिश के बावजूद जन्तर-मन्तर पर हुए प्रदर्शन में दिल्ली, गाज़ियाबाद, नोएडा और गुड़गाँव से बड़ी संख्या में आये मज़दूरों तथा कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

मज़दूरों के ख़िलाफ़ एकजुट हैं पूँजी और सत्ता की सारी ताक़तें

मारुति सुज़ुकी जैसी घटना न देश में पहली बार हुई है और न ही यह आख़िरी होगी। न केवल पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में, बल्कि पूरे देश में हर तरह के अधिकारों से वंचित मज़दूर जिस तरह हड्डियाँ निचोड़ डालने वाले शोषण और भयानक दमघोंटू माहौल में काम करने और जीने को मजबूर कर दिये गये हैं, ऐसे में इस प्रकार के उग्र विरोध की घटनाएँ कहीं भी और कभी भी हो सकती हैं। इसीलिए इन घटनाओं के सभी पहलुओं को अच्छी तरह जानना-समझना और इनके अनुभव से अपने लिए ज़रूरी सबक़ निकालना हर जागरूक मज़दूर के लिए, और सभी मज़दूर संगठनकर्ताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

आन्दोलन को थकाकर तोड़ने की पुरानी कहानी फिर दोहरायी जा रही है

मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न की यह सच्चाई उस कम्पनी की है जहाँ एच.एम.एस. पिछले लगभग तीन साल से काम कर रही है और जहाँ मज़दूरों की एक ट्रेड यूनियन भी पंजीकृत है। मज़दूरों के अधिकार लगातार छीने जा रहे है, मज़दूरों में असंतोष लगातार बढ़ रहा है, और एच.एम.एस., एटक, सीटू जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें चुप्पी साधे रहती हैं। लेकिन जब मज़दूरों का दबाव ज्यादा बढ़ जाता है, तब प्रतीकात्मक हड़तालों का सहारा लेकर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की कोशिश करती हैं। बजाय इसके कि इन आन्दोलनों के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था के मज़दूर और जन-विरोधी चरित्र का पर्दाफाश करें और उन्हें व्यापक स्तर पर संगठित करने का प्रयास करें। गुड़गाँव में 20 कम्पनियों में एच.एम.एस. से जुड़ी यूनियनें हैं, जो कभी हरसोरिया जैसे आन्दोलन तो कभी एक दिन के प्रतीकात्मक विरोध जैसी कार्रवाइयाँ करके मज़दूरों के गुस्से पर पानी के छींटे मारने का काम कर रही हैं। अगर एच.एम.एस. अपने साथ जुड़ी सभी यूनियनों को भी मज़दूरों के साझा सवालों पर एक साथ कार्रवाई करने के लिए लामबन्द नहीं कर सकता तो व्यापक मज़दूर एकता के लिए उससे कुछ करने की उम्मीद करना भी बेकार है।

समस्या की सही पहचान करो, साझे दुश्मन के ख़िलाफ़ एकजुट हो!

सभी मज़दूरों का मुख्य विरोध मालिकों के साथ है जो मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़कर मुनाफ़ा कमाने में लगे हुए हैं। सरकारी तंत्र में सब जगह उनकी पहुँच है। अधिकार लेने के लिए उठी मज़दूरों की आवाज़ को ख़ामोश करने के लिए वे हमेशा मंसूबे बनाते रहते हैं। इसलिए आपसी झगड़ों को दोस्ताना ढंग से हल करना चाहिए और साझे दुश्मन के ख़िलाफ़ एकता बनानी चाहिए। इन बातों की समझ लेकर अगर कोई भी संगठन आगे बढ़ता है तो वह स्वागतयोग्य है। अगर साझे दुश्मन के ख़िलाफ़ संघर्ष को दरकिनार करते हुए कोई संगठन मज़दूरों को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटने का काम करता है तो वह पूँजीपतियों की ही सेवा कर रहा होगा।

गुड़गाँव औद्योगिक क्षेत्र : सतह के नीचे सुलगते मज़दूर असन्तोष को दिशा देने की ज़रूरत

पिछले कुछ समय से गुडगाँव में अलग-अलग कारख़ानों में भड़के मज़दूरों के ग़ुस्से को देखकर आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़बरदस्त शोषण का शिकार है। सिर्फ़ ठेका मज़दूर ही शोषण का शिकार नहीं हैं, बल्कि कई कारख़ानों में स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। मारुति, पावरट्रेन, हीरो होण्डा, मुंजाल शोवा आदि इसके उदाहरण हैं। मगर नेतृत्व और किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में शोषण और उत्पीड़न से बेहाल इस मज़दूर आबादी का आक्रोश अराजक ढंग से इस प्रकार की घटनाओं के रूप में सड़कों पर फूट पड़ता है। इसके बाद पुलिस और मैनेजमेण्ट का दमन चक्र चलता है जिसका मुक़ाबला बिखरे हुए मज़दूर नहीं कर पाते और ग़ुस्से का उबाल फिर शान्त हो जाता है।

मारुति के मज़दूर आन्दोलन से उठे सवाल

मारुति के मज़दूरों ने आन्दोलन के दौरान जुझारूपन और एकजुटता का परिचय दिया लेकिन वे एक संकुचित दायरे से निकलकर अपनी लड़ाई को व्यापक बनाने और इसे सुनियोजित तथा सुसंगठित ढंग से संचालित कर पाने में विफल रहे। महीनों चले इस आन्दोलन में बहुत कुछ हासिल कर पाने की सम्भावना थी जो नहीं हो सका। भले ही आज यूनियन को मान्यता मिल गयी है और आने वाले महीने में स्थायी मज़दूरों के वेतनमान में बढ़ोत्तरी की सम्भावना है, लेकिन मज़दूरों का संघर्ष केवल इन्हीं बातों के लिए नहीं था। कहने को तो यूनियन गुड़गाँव प्लाण्ट में भी है, अगर ऐसी ही एक यूनियन मिल भी जाये तो क्या है? 1200 कैज़ुअल मज़दूर इस यूनियन का हिस्सा नहीं होंगे। यूनियन के गठन की प्रक्रिया जिस ढंग से चली है, उससे नहीं लगता कि इसमें ट्रेड यूनियन जनवाद के बुनियादी उसूलों का भी पालन किया जायेगा। श्रम क़ानूनों का सीधे-सीधे उल्लंघन करते हुए मैनेजमेण्ट ने यह दबाव डाला कि यूनियन किसी भी तरह की राजनीति से सम्बद्ध नहीं होगी, और आन्दोलन के तीनों दौरों में बारी-बारी से एटक, एचएमएस और सीटू के गन्दे खेल को देखकर बिदके हुए मज़दूरों ने भी इसे स्वीकार कर लिया।

लुधियाना के पॉवरलूम मज़दूरों का विजयी संघर्ष उपलब्धियों को मज़बूत बनाते हुए, कमियों-कमज़ोरियों से सबक़ लेकर आगे बढ़ने की ज़रूरत

मज़दूर अपनी छोटी-छोटी आर्थिक लड़ाइयों (जो कि बेहद ज़रूरी हैं) से ख़ुद-ब-ख़ुद समाजवाद के लिए लड़ना नहीं सीख लेंगे। बल्कि मज़दूरों को समाजवादी चेतना से लैस करना मज़दूर नेताओं का काम है। आर्थिक संघर्ष की जीत की ख़ुशी में मगन होने के बजाए लेनिन की यह शिक्षा हमेशा याद रखनी चाहिए कि आर्थिक संघर्ष, मज़दूरों की समाजवादी शिक्षा के अधीन होने चाहिए न कि इसके विपरीत। मज़दूरों में समाजवादी चेतना के प्रचार-प्रसार की कार्रवाई संघर्ष के दौरान भी (अगर सम्भव हो तो) और उसके बाद भी लगातार जारी रखनी चाहिए।

बरगदवा, गोरखपुर का मज़दूर आन्दोलन कुछ ज़रूरी सबक़, कुछ कठिन चुनौतियाँ

आज की वस्तुगत स्थिति यदि मालिकों के पक्ष में है तो कल की वस्तुगत स्थिति निश्चित तौर पर मज़दूरों के पक्ष में होनी है। जो गोरखपुर में हो रहा है, वही पूरे देश के सभी कारखानों में हो रहा है। ठेकाकरण-दिहाड़ीकरण का सिलसिला जारी है। ऐसी स्थिति में आने वाले दिनों में व्यापक मज़दूर एकता का भौतिक आधार तैयार और मज़बूत होगा, यह तय है। इसके मद्देनज़र हमें अपनी तैयारी तेज़ कर देनी होगी और रत्तीभर भी ढिलाई नहीं करनी होगी।