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मारुति सुज़ुकी के मज़दूर फ़िर जुझारू संघर्ष की राह पर

आन्दोलन के समर्थन में प्रचार करने के दौरान हमने ख़ुद देखा है कि गुड़गाँव-मानेसर- धारूहेड़ा से लेकर भिवाड़ी तक के मजदूर तहेदिल से इस लड़ाई के साथ हैं। लेकिन उन्हें साथ लेने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। जून की हड़ताल की ही तरह इस बार भी व्यापक मजदूर आबादी को आन्दोलन से जोड़ने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। मारुति के आन्दोलन में उठे मुद्दे गुड़गाँव के सभी मजदूरों के साझा मुद्दे हैं – लगभग हर कारखाने में अमानवीय वर्कलोड, जबरन ओवरटाइम, वेतन से कटौती, ठेकेदारी, यूनियन अधिकारों का हनन और लगभग ग़ुलामी जैसे माहौल में काम कराने से मजदूर त्रस्त हैं और समय-समय पर इन माँगों को लेकर लड़ते रहे हैं। बुनियादी श्रम क़ानूनों का भी पालन लगभग कहीं नहीं होता। इन माँगों पर अगर मारुति के मजदूरों की ओर से गुडगाँव-मानेसर और आसपास के लाखों मज़दूरों का आह्वान किया जाता और केन्द्रीय यूनियनें ईमानदारी से तथा अपनी पूरी ताक़त से उसका साथ देतीं तो एक व्यापक जन-गोलबन्दी की जा सकती थी। इसका स्वरूप कुछ भी हो सकता था – जैसे, इसे एक ज़बर्दस्त मजदूर सत्याग्रह का रूप दिया जा सकता था।

मारुति सुज़ुकी, मानेसर का मज़दूर आंदोलन संघर्ष को व्‍यापक और जुझारू बनाना होगा

ठेका मज़दूर और अप्रेंटि‍स आसपास के जि‍न गांवों में कि‍राये पर रहते हैं उनके सरपंचों के ज़रि‍ए मज़दूरों पर दबाव डाला जा रहा है कि‍ वे आन्‍दोलन से दूर रहें। कारखाना गेट की ओर आ रहे मज़दूरों को रास्‍ते में रोककर गांवों के दबंगों द्वारा डराने-धमकाने की कई घटनाएं सामने आने के बाद कल मज़दूरों ने यह नि‍र्णय लि‍या कि‍ ठेका मज़दूर और अप्रेंटि‍स कंपनी की वर्दी में नहीं आयेंगे। मैनेजमेंट मज़दूरों में भ्रम पैदा करने और उनका मनोबल तोड़ने के लिए तमाम तरह के घटिया हथकंडे अपनाने में लगा हुआ है। मीडिया में कभी यह प्रचार किया जा रहा है कि प्‍लांट में प्रोडक्‍शन शुरू हो गया है तो कभी यह कहा जा रहा है कि प्रोडक्‍शन को गुड़गाँव प्‍लांट में शिफ्ट करने पर विचार किया जा रहा है। हालांकि मज़दूरों पर इन हथकंडों का कोई असर नहीं है और वे लड़ने के लिए तैयार हैं।

मारुति सुज़ुकी के मैनेजमेण्ट ने मज़दूर नेताओं को प्रताड़ित करने और उकसावेबाज़ी की घटिया तिकड़में शुरू कीं

मारुति के मज़दूरों को इसे हल्के तौर पर न लेकर अपनी एकजुटता बनाये रखनी चाहिए और मैनेजमेण्ट की चालों में न आकर यूनियन के रजिस्ट्रेशन के लिए श्रम विभाग पर दबाव डालते रहना चाहिए। साथ ही, उन्हें अपने कारख़ाने के दायरे से बाहर गुड़गाँव के अन्य कारख़ानों के मज़दूरों और दुनिया भर में ऑटोमोबाइल उद्योग के मज़दूरों के साथ संवाद और एकजुटता की कोशिशें तेज़ कर देनी चाहिए।

मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों की जुझारू हड़ताल — क़ुछ सवाल

मारुति उद्योग, मानेसर के 2000 से अधिक मज़दूरों ने पिछले दिनों एक जुझारू लड़ाई लड़ी। उनकी माँगें बेहद न्यायपूर्ण थीं। वे माँग कर रहे थे कि अपनी अलग यूनियन बनाने के उनके क़ानूनी अधिकार को मान्यता दी जाये। मारुति के मैनेजमेण्ट द्वारा मान्यता प्राप्त मारुति उद्योग कामगार यूनियन पूरी तरह मैनेजमेण्ट की गिरफ़्रत में है और वह मानेसर स्थित कारख़ाने के मज़दूरों की माँगों पर ध्यान ही नहीं देती है। भारत सरकार और हरियाणा सरकार के श्रम क़ानूनों के तहत मज़दूरों को अपनी यूनियन बनाने का पूरा हक़ है और जब कारख़ाने के सभी मज़दूर इस माँग के साथ हैं तो इसमें किसी तरह की अड़ंगेबाज़ी बिल्कुल ग़ैरक़ानूनी है। मगर मारुति के मैनेजमेण्ट ने ख़ुद ही गैरक़ानूनी क़दम उठाते हुए यूनियन को मान्यता देने से इंकार कर दिया और हड़ताल को तोड़ने के लिए हर तरह के घटिया हथकण्डे अपनाये। इसमें हरियाणा की कांग्रेस सरकार की उसे खुली मदद मिल रही थी जिसने राज्यभर में पूँजीपतियों की मदद के लिए मज़दूरों का फासिस्ट तरीक़े से दमन करने का बीड़ा उठा रखा है। गुड़गाँव में 2006 में होण्डा के मज़दूरों की पुलिस द्वारा बर्बर पिटाई को कौन भूल सकता है।

‘सरूप सन्स’ के मज़दूरों को जुझारू संघर्ष से मिली आंशिक जीत

सीटू की हमेशा से ही नीति रही है कि प्रोडक्शन बढ़वाकर और अधिक से अधिक ओवरटाइम लगवाकर आमदनी बढ़वाने का ड्रामा किया जाये। यह नीति मज़दूरों के लिए बेहद ख़तरनाक है। मज़दूरों की असल लड़ाई तो आठ घण्टे के काम की मज़दूरी बढ़वाने तथा अन्य अधिकार हासिल करने की है। बिगुल मज़दूर दस्ता और कारख़ाना मज़दूर यूनियन के आह्वान का बजाज ग्रुप के मज़दूरों ने ज़ोरदार स्वागत किया। सीटू के नेताओं को मजबूरी में आपातकालीन मीटिंग करके कुशलता के मुताबिक़ वेतन लागू करवाने, पहचानपत्र बनवाने, ओवरटाइम का दोगुना भुगतान आदि माँगें उठानी पड़ीं। श्रम विभाग में तारीख़ें पड़ने लगीं। बिना मज़दूरों से पूछे और बिना मालिक से कुछ हासिल किये सीटू नेताओं ने ओवरटाइम चलवाने का समझौता कर लिया। इसके विरोध में मज़दूरों ने सीटू नेताओं द्वारा बुलायी गयी मीटिंग में सीटू और इसके नेताओं के ख़िलाफ जमकर नारे लगाये। 95 प्रतिशत मज़दूरों ने सीटू का फैसला मानने से इनकार दिया। लेकिन सीटू नेताओं ने उन अगुवा मज़दूरों की लिस्ट कम्पनी को सौंप दी जो अब ओवरटाइम बन्द रखने के लिए मज़दूरों की अगुवाई कर रहे थे। अन्य मज़दूरों को भी सीटू ने तरह-तरह से धमकाकर और मज़दूरों को ओवरटाइम दुबारा शुरू करने के लिए बाध्य किया। लेकिन इस घटनाक्रम ने बजाज सन्स कम्पनी के मज़दूरों के बीच सीटू को बुरी तरह नंगा कर दिया है। बजाज सन्स के ये सारे मज़दूर अगर दलाल और समझौतापरस्त सीटू से पूरी तरह पीछा छुड़ाकर सरूप सन्स के मज़दूरों की राह अपनाते हैं तो इसमें कोई शक नहीं कि वे बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर सकते हैं।

हरसूर्या हेल्थकेयर, गुड़गाँव के मज़दूरों का संघर्ष और हिन्द मज़दूर सभा की समझौतापरस्ती

पहले चार मज़दूर बाहर थे तो हड़ताल की गयी थी लेकिन फिर सात लोगों को बाहर रखने के मालिक के निर्णय के बाद भी समझौता कर लिया गया! यहाँ तक कि समझौते के बाद एचएमएस के नेताओं ने मज़दूरों से कहा कि आगे क्या करना है उसे वे ख़ुद देख लेंगे और अब मज़दूरों को कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। इस पूरे संघर्ष के निचोड़ के तौर पर देखा जाये तो मज़दूरों के हित में एक भी निर्णय नहीं हुआ, उनकी कोई भी माँग पूरी नहीं हुई, और एचएमएस ने मज़दूरों को मालिक का आज्ञाकारी बने रहने की शर्त पर समझौता कर लिया। वह भी तब जबकि मज़दूर जुझारू संघर्ष करने के लिए तैयार थे। आन्दोलन का नेतृत्व कर रही एचएमएस दूसरी फैक्टरियों की अपनी यूनियनों के समर्थन से मज़दूरों के साथ मिलकर संघर्ष को व्यापक बना सकती थी। लेकिन किसी न किसी चुनावी पार्टी से जुड़ी ये सारी बड़ी यूनियनें अब कोई भी जुझारू संघर्ष करने की क्षमता और नीयत दोनों ही खो चुकी हैं।

मारुति सुजुकी के मजदूरों के समर्थन में सभा कर रहे कार्यकर्ताओं पर कंपनी के सिक्योरिटी गार्डों द्वारा हमले की कड़ी निन्दा

बिगुल मजदूर दस्ता के रूपेश कुमार ने बताया कि वे लोग मजदूर आन्दोलन के समर्थन में गुड़गांव तथा मानेसर में मजदूरों के बीच जगह-जगह सभाएं कर रहे हैं तथा पर्चे बांट रहे हैं। इसी क्रम में कल शाम करीब 7.30 बजे जब वे कार्यकर्ताओं की टोली के साथ मानेसर स्थित मारुति कारखाने के निकट अलियर गांव में मजदूरों की सभा कर रहे थे तो मोटरसाइकिलों और जीप में सवार होकर पहुंचे एक दर्जन से अधिक हथियारबन्द लोगों ने अचानक उन पर हमला कर दिया। इनमें मारुति सुजुकी कंपनी की सिक्योरिटी का काम संभाल रहे ग्रुप फोर कंपनी के वर्दीधारी गार्ड भी शामिल थे। इन लोगों ने कार्यकर्ताओं के साथ गाली-गलौज और मारपीट की तथा वहां उपस्थित करीब 250 मजदूरों को हथियार दिखाकर आतंकित करके भगा दिया। वे कह रहे थे कि यह मारुति का इलाका है और यहां किसी को भी मारुति के मैनेजमेंट के खिलाफ बोलने की इजाजत नहीं दी जाएगी।

ग़द्दार भितरघातियों के विरुद्ध गोरखपुर के मज़दूरों का क़ामयाब संघर्ष

मज़दूर आन्दोलन में इस क़िस्म का भितरघात कोई नयी बात नहीं है। यह पहले भी होता रहा है और आगे भी इसकी सम्भावनाएँ बनी रहेंगी। दरअसल आम मज़दूरों का दब्बूपन और संकीर्ण स्वार्थों में डूबे रहना ऐसे ग़द्दारों के लिए अनुकूल हालात पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। कई मज़दूरों में यह मनोवृत्ति काम करती है कि संगठन और आन्दोलन का काम नेताओं की ज़िम्मेदारी है। कभी-कभी वे नेताओं को ऐसे मोहरों की तरह देखने लगते है जिन्हें लड़ाकर मालिकों से ज़्यादा से ज़्यादा सुविधाएँ हासिल की जा सकें। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अर्थव्यवस्था, राजनीति, इतिहास और मज़दूर आन्दोलन के अनुभवों की जानकारी न होने के कारण मज़दूरों को उन सम्बन्धों को समझने में कठिनाई होती होती है जो कि कारख़ानेदार, स्थानीय प्रशासन, नेताशाही तथा सरकारों के बीच परदे के पीछे काम कर रहे होते हैं। उन्हें लगता है कि यूनियन बना लेने मात्र से ही उनके सारे कष्ट मिट जायेंगे। लेकिन हक़ीकत इसके ठीक उलट है। जैसे ही मज़दूर ट्रेड यूनियन में क्रान्तिकारी ढंग से संगठित होने का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करने लगते हैं वैसे ही कारख़ानेदार तथा सभी मज़दूर विरोधी ताक़तें सबसे पहले उन्हें पतित तथा भ्रष्ट करने का काम करने में जुट जाती हैं। असफल हो जाने पर वे अन्य तरीकों से उनके संगठन को तोड़ने की योजनाएँ बनाने लगते हैं। आज बरगदवा के मज़दूरों के साथ भी यही हो रहा है। भविष्य इस पर निर्भर है कि व्यापक मज़दूर आबादी अपनी मुक्ति की विचारधारा को किस हद तक समझ पाती है।­­­­­­­

सीटू की गद्दारी से आई.ई.डी. के मजदूरों की हड़ताल नाकामयाब

दुर्घटना के शिकार इन मजदूरों को कम्पनी के मालिकान मशीनमैन से हेल्पर बना देते हैं और उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया जाता है। बीती दीपावली के दौरान इस कारख़ाने के मजदूरों ने हड़ताल की थी और कारख़ाने पर कब्जा कर लिया था। सीटू के नेतृत्व ने इस आन्दोलन को अपनी ग़द्दारी के चलते असफल बना दिया था। सीटू के नेतृत्व ने मजदूरों को मुआवजे के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने की बजाय उनके दिमाग़ में यह बात बिठा दी थी कि मालिक उँगलियाँ कटने के बाद भी काम से निकालने की बजाय हेल्पर बनाकर मजदूरों पर अहसान करता है। जब मजदूरों ने दीपावली के दौरान संघर्ष किया तो मालिकों ने छह मजदूरों के ऊपर कानूनी कार्रवाई का नाटक करते हुए उन्हें निलम्बित कर दिया। वास्तव में, इन मजदूरों पर कोई एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की गयी थी। लेकिन सीटू के नेतृत्व ने इस बारे में मजदूरों को अंधेरे में रखा और उनको यह बताया कि फिलहाल कारख़ाने पर कब्जा छोड़ दिया जाये और हड़ताल वापस ले ली जाये, वरना उन मजदूरों पर कानूनी कार्रवाई भी हो सकती है। मजदूर हड़ताल वापस लेने को तैयार नहीं थे, लेकिन सीटू ने बन्द दरवाजे के पीछे मालिकों से समझौता करके हड़ताल को तोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि वे छह मजदूर भी काम पर वापस नहीं लिए गये और मजदूरों की वेतन बढ़ाने, बोनस देने आदि की माँगों को भी मालिकों ने नहीं माना।

एलाइड निप्पोन में सीटू की ग़द्दारी के कारण आन्दोलन दमन का शिकार और मजदूर निराश

एलाइड निप्पोन अभी कुछ समय तक अख़बारों की सुर्खियों में बना रहा था। ज्ञात हो कि साहिबाबाद की एलाइड निप्पोन फैक्टरी में मजदूरों ने अपने ऊपर प्रबन्धान के गुण्डों द्वारा फायरिंग के जवाब में आत्मरक्षा में जो संघर्ष किया, उसमें प्रबन्धान का एक आदमी मारा गया। इसके बाद, मालिकों के इशारे पर ग़ाजियाबाद प्रशासन ने मजदूरों पर एकतरफा कार्रवाई करते हुए दर्जनों मजदूरों को गिरफ्तार किया और यह रपट लिखे जाने तक मजदूरों की धरपकड़ जारी थी। प्रबन्धान के लोगों पर गोली चलाने और मजदूरों को उकसाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गयी। साफ था कि प्रशासन मालिकों की तरफ से कार्रवाई कर रहा था। ऐसे में सीटू ने इस संघर्ष में प्रवेश किया और मजदूरों के संघर्ष को अन्दर से कमजोर और खोखला बना दिया। सीटू ने न तो गिरफ्तार मजदूरों को छुड़वाने के लिए कोई जुझारू संघर्ष किया और न ही प्रबन्धान पर कार्रवाई की माँग को लेकर कोई आक्रामक रुख़ अपनाया। उल्टे सीटू ने मजदूरों के दिमाग़ में ही ग़लती होने की बात बिठाना शुरू कर दिया। दोगलेपन की हद तो तब हो गयी, जब सीटू ने सिर्फ अपने कुछ लोगों को छोड़ने की दरख्वास्त ग़ाजियाबाद प्रशासन से की। बाकी मजदूरों की उसे कोई फिक्र नहीं थी। मजदूरों पर प्रशासन ने आतंक का राज कायम करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। कारख़ाने के इर्द-गिर्द के इलाके को छावनी में तब्दील कर दिया गया है और कारख़ाने को इसके तहत खोल दिया गया है। गिरफ्तार मजदूरों की कोई सुनवाई नहीं है; सीटू अब दृश्यपटल से ग़ायब है (मजदूरों के संघर्ष को तोड़ने और पस्त करने का उसका काम जो पूरा हो गयाध्द; बचे-खुचे मजदूर निराशा और पस्तहिम्मती का शिकार हैं और शोषण की मशीनरी पुराने ढर्रे पर लौट रही है। मालिक सन्तुष्ट और निश्चिन्त है और प्रशासन उसकी सेवा में चाक-चौबन्द! सीटू मालिकों की चाकरी करने का अपना कर्तव्य पूरा कर आराम फरमा रही है!