Category Archives: आन्‍दोलन : समीक्षा-समाहार

हैरिंग इण्डिया में मजदूरों का शानदार संघर्ष और अर्थवादी सीटू का विश्वासघात

संघर्ष के इस रूप में मजदूर कहाँ तक माँगें मनवा पायेंगे यह आगे देखना होगा। जब तक वे अपने साथ अपने ही कारख़ाने के ठेका, दिहाड़ी मजदूरों की माँग नहीं रखते तब तक कारख़ाने के आधार पर भी ताकत अधूरी है। आने वाले समय में जिस तरह से ठेकाकरण का जोर बढ़ता जायेगा वैसे-वैसे स्थायी मजदूरों को भी एक-एक करके निकाला जायेगा और ठेका मजदूरों की संख्या बढ़ायी जायेगी। वहाँ ऐसे में अगर संघर्ष महज वेतन भत्तों तक सीमित रहेगा तो उतना ही कमजोर पड़ता जायेगा। हैरिंग इण्डिया के मजदूरों को भी सोचना पड़ेगा कि अर्थवादी चवन्नीवादी फेडरेशन सीटू की भूमिका आन्दोलन के समय कैसी थी? जब मजदूर संघर्ष कर रहे थे तो ये लगभग ग़ायब ही थे। जब मजदूर संघर्ष करना चाहते हैं और करते हैं तो यह (सीटू) मालिकों की हाँ में हाँ मिलाते मजदूरों को कम से कम पर मनाने की कोशिश करते हैं। यही इनका चरित्र है। हर जगह के आन्दोलन में इनकी यही भूमिका देखने को मिलती है।

21वीं सदी के पहले दशक का समापन : मजदूर वर्ग के लिए आशाओं के उद्गम और चुनौतियों के स्रोत

साफ नजर आ रहा है कि पूरी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अपने अन्तकारी संकट से जूझ रही है और हर बीतते वर्ष के साथ उसका आदमख़ोर और मरणासन्न चरित्र और भी स्पष्ट तौर पर नजर आने लगा है। पूँजीवाद की अन्तिम विजय को लेकर जो दावे और भविष्यवाणियाँ की जा रही थीं, वे अब चुटकुला बन चुकी हैं। दुनियाभर में कम्युनिज्म और मार्क्‍सवाद की वापसी की बात हो रही है। बार-बार यह बात साफ हो रही है कि दुनिया को विकल्प की जरूरत है और पूँजीवाद इतिहास का अन्त नहीं है। आज स्वत:स्फूर्त तरीके से दुनिया के अलग-अलग कोनों में मजदूर सड़कों पर उतर रहे हैं। कहीं पर नौसिखुए नेतृत्व में, तो कहीं बिना नेतृत्व के वे समाजवाद के आदर्श की ओर फिर से देख रहे हैं। जिन देशों में समाजवादी सत्ताएँ पतित हुईं, वहाँ का मजदूर आज फिर से लेनिन, स्तालिन और माओ की तस्वीरें लेकर सड़कों पर उतर रहा है। वह देख चुका है कि पूँजीवाद उसे क्या दे सकता है। यह सच है कि पूरी दुनिया में अभी भी श्रम की शक्तियों पर पूँजी की शक्तियाँ हावी हैं और मजदूर वर्ग की ताकत अभी बिखराव और अराजकता की स्थिति में है। लेकिन इसका कारण पूँजीवाद की शक्तिमत्ता नहीं है। इसका कारण मजदूर वर्ग के आन्दोलन की अपनी अन्दरूनी कमजोरियाँ हैं। लगातार संकटग्रस्त पूँजीवाद आज महज अपनी जड़ता की ताकत से टिका हुआ है।

उँगलियाँ कटाकर मालिक की तिजोरी भर रहे हैं आई.ई.डी. के मज़दूर

पिछले आठ वर्षों में हाथ पर मशीन गिरने के कारण करीब 300 मज़दूर अपने हाथ की एक उँगली, कुछ उँगलियाँ और कईयों की तो पूरी हथेली ही इसकी भेंट चढ़ चुके हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भीतर हम एक ऐसे कारख़ाने की बात कर रहे हैं जहाँ 300 मज़दूर अपने हाथ खो देते हैं, कुशल मज़दूर से बेकार बन जाते हैं, और कहीं कोई चर्चा तक नहीं होती।

कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में 100 से भी अधिक पावरलूम कारख़ानों के मज़दूरों ने कायम की जुझारू एकजुटता

कारख़ाना मज़दूर यूनियन, लुधियाना के नेतृत्व में पहले न्यू शक्तिनगर के 42 कारख़ानों के मज़दूरों की 24 अगस्त से 31अगस्त तक और फिर गौशाला, कश्मीर नगर और माधोपुरी के 59 कारख़ानों की 16 सितम्बर से 30 सितम्बर तक शानदार हड़तालें हुईं। दोनों ही हड़तालों में मज़दूरों ने अपनी फौलादी एकजुटता और जुझारू संघर्ष के बल पर मालिकों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। जहाँ दोनों ही हड़तालों में पीस रेट में बढ़ोत्तरी की प्रमुख माँग पर मालिक झुके वहीं शक्तिनगर के मज़दूरों ने तो मालिकों को टूटी दिहाड़ियों का मुआवज़ा तक देने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन इस हड़ताल की सबसे बड़ी उपलब्धि इस बात में है कि इस हड़ताल ने मज़दूरों में बेहद लम्बे अन्तराल के बाद जुझारू एकजुटता कायम कर दी है। 1992 में पावरलूम कारख़ानों में हुई डेढ़ महीने तक चली लम्बी हड़ताल के बाद 18 वर्षों तक लुधियाना के पावरलूम मज़दूर संगठित नहीं हो पाये थे। इन अठारह वर्षों में लुधियाना के पावरलूम मज़दूर एक भयंकर किस्म की निराशा में डूबे हुए थे। मुनाफे की हवस में कारख़ानों के मालिक उनकी निर्मम लूट में लगे हुए थे। लेकिन किसी संगठित विरोध की कोई अहम गतिविधि दिखायी नहीं पड़ रही थी। लेकिन अब फिर से कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में उनके संगठित होने की नयी शुरुआत हुई है। यही मज़दूरों की सबसे बड़ी जीत भी है। यह आन्दोलन न सिर्फ पावरलूम मज़दूरों के लिए बल्कि लुधियाना के अन्य सभी कारख़ाना मज़दूरों के लिए एक नयी मिसाल कायम कर गया है।

कॉमरेड के ”कतिपय बुध्दिजीवी या संगठन” और कॉमरेड का कतिपय ”मार्क्‍सवाद”

आज के समय में असंगठित सर्वहारा वर्ग कोई पिछड़ी चेतना वाला सर्वहारा वर्ग नहीं है। यह भी उन्नत मशीनों पर और असेम्बली लाइन पर काम करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह यह काम लगातार और किसी बड़े कारख़ाने में ही नहीं करता। उसका कारख़ाना और पेशा बदलता रहता है। इससे उसकी चेतना पिछड़ती नहीं है, बल्कि और अधिक उन्नत होती है। यह एक अर्थवादी समझदारी है कि जो मजदूर लगातार बड़े कारख़ाने की उन्नत मशीन पर काम करेगा, वही उन्नत चेतना से लैस होगा। उन्नत मशीन और असेम्बली लाइन उन्नत चेतना का एकमात्र स्रोत नहीं होतीं। आज के असंगठित मजदूर का साक्षात्कार पूँजी के शोषण के विविध रूपों से होता है और यह उनकी चेतना को गुणात्मक रूप से विकसित करता है। उनका एक अतिरिक्त सकारात्मक यह होता है कि वे पेशागत संकुचन, अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद जैसी ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों का शिकार कम होते हैं और तुलनात्मक रूप से अधिक वर्ग सचेत होते हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि बड़े कारख़ानों की संगठित मजदूर आबादी के बीच राजनीतिक प्रचार की आज जरूरत है और इसके जरिये मजदूर वर्ग को अपने उन्नत तत्त्‍व मिल सकते हैं। लेकिन आज का असंगठित मजदूर वर्ग भी 1960 के दशक का असंगठित मजदूर वर्ग नहीं है जिसमें से उन्नत तत्त्वों की भर्ती बेहद मुश्किल हो। यह निम्न पूँजीवादी मानसिकता से ग्रसित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का श्रेष्ठताबोध है कि वे इस मजदूर को पिछड़ा हुआ मानते हैं।

लुधियाना के मजदूर आन्दोलन में माकपा-सीटू के मजदूर विरोधी कारनामे

भारत के मजदूर आन्दोलन पर जरा सी भी ईमानदार नजर रखने वाले लोगों के लिए आज यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि सी.पी.आई.एम. (माकपा) और उसका मजदूर विंग सी.आई.टी.यू. (सीटू) किस कदर खुलकर पूँजीपतियों की सेवा में लगे हुए हैं। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, बस पिछले 8-10 वर्षों की इनकी कारगुजारियों पर नजर डाल ली जाये तो कोई शक नहीं रह जाता कि माकपा-सीटू के झण्डे का लाल रंग नकली है और ये मजदूरों की पीठ में छुरा घोंपने का ही काम कर रहे हैं। देश में जहाँ-जहाँ भी इनका जोर चला, इन्होंने बड़ी चालाकी के साथ मजदूर आन्दोलन का बेड़ा गर्क करने में किसी तरह की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।

बादाम मजदूर यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली के बादाम मजदूरों की 16 दिन लम्बी हड़ताल

यह हड़ताल मजदूरों की भागीदारी के मामले में 1988 की हड़ताल से बड़ी थी और साथ ही यह गुणात्मक रूप से उस हड़ताल से अलग थी। यह एक पूरे इलाके के मजदूरों की एक इलाकाई यूनियन के नेतृत्व में हुई हड़ताल थी। वास्तव में, इस हड़ताल का प्रभाव अन्य उद्योगों पर भी पड़ने लगा था। महिला मजदूरों के पति आम तौर पर गाँधीनगर और ट्रॉनिका सिटी जैसे करीब के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करते हैं। हड़ताल के दौरान उन्होंने काम पर जाना बन्द कर दिया था और अपनी पत्नियों के साथ हड़ताल चौक पर ही जम गये थे। नतीजा यह हुआ था कि उन उद्योगों में भी दिक्कत पैदा होने लगी थी, जिनमें ये पुरुष मजदूर काम करते थे। यह करावलनगर के प्रकाश विहार, भगतसिंह कॉलोनी और पश्चिमी करावलनगर के मजदूरों की हड़ताल में तब्दील हो गयी थी। आज जब देश के 93प्रतिशत मजदूर छोटे कारखानों, वर्कशॉपों, गोदामों में या घर में काम कर रहे हैं, या फिर रेहड़ी-खोमचे वालों, रिक्शेवालों या पटरी दुकानदारों के रूप में सेवा प्रदाता के तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब देश के केवल 7 फीसदी मजदूर बड़े कारख़ानों में औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब औपचारिक क्षेत्र के भी अच्छे-ख़ासे मजदूर ठेके/दिहाड़ी पर काम करते हुए असंगठित मजदूर आबादी में शामिल हैं और कुल असंगठित मजदूरों की आबादी कुल मजदूर आबादी की97 प्रतिशत हो चुकी हो; तो ऐसे समय में इलाकाई मजदूर यूनियन के रूप में बादाम मजदूर यूनियन और उसके संघर्ष का यह प्रयोग गहरा महत्तव रखता है।

थैली की ताकत से सच्चाई को ढँकने की नाकाम कोशिश

एक बार फिर, खिसियानी बिल्ली उछल-उछलकर खम्भा नोच रही है। तथाकथित ‘उद्योग बचाओ समिति’ के स्वयंभू संयोजक पवन बथवाल ने थैली के ज़ोर से हमारे खिलाफ एक नया प्रचार-युद्ध छेड़ दिया है – झूठ-फरेब, अफवाहबाज़ी, और कुत्सा-प्रचार की नयी गालबजाऊ मुहिम शुरू हुई है। इसकी शुरुआत स्थानीय अख़बारों में छपे एक विज्ञापन से हुई है, जिसमें हमारे ऊपर कुछ नयी और कुछ पुरानी, तरह-तरह की तोहमतें लगाई गयी हैं। इनमें से कुछ घिनौने आरोपों के लिए हम पवन बथवाल को अदालत में भी घसीट सकते हैं, लेकिन उसके पहले हम इस फरेबी प्रचार की असलियत का खुलासा अवाम की अदालत में करना चाहते हैं।

गोरखपुर में मज़दूर आन्दोलन की शानदार जीत

आज के दौर में जब कदम-कदम पर मज़दूरों को मालिकों और शासन-प्रशासन के गँठजोड़ के सामने हार का सामना करना पड़ रहा है, गोरखपुर के मज़दूरों की यह जीत बहुत महत्वपूर्ण है। इसने दिखा दिया है कि अगर मज़दूर एकजुट रहें, एक जगह लड़ रहे मज़दूरों के समर्थन में मज़दूरों की व्यापक आबादी एकजुटता का सक्रिय प्रदर्शन करे, विश्वासघातियों और दलालों की दाल न गलने दी जाये और एक कुशल नेतृत्व की अगुवाई में साहस तथा सूझबूझ से पूँजीपतियों और प्रशासन की सभी चालों का मुकाबला किया जाये तो इस कठिन समय में भी मज़दूर छोटी-छोटी जीतें हासिल करते हुए बड़ी लड़ाई में उतरने की तैयारी कर सकते हैं। इस आन्दोलन ने देशभर में, विशेषकर मज़दूर संगठनों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा है और इससे गोरखपुर ही नहीं, पूरे पूर्वी प्रदेश में मज़दूर आन्दोलन का नया एजेण्डा सेट करने की शुरुआत हो गयी है। इस आन्दोलन के सबकों और इसके दौरान सामने आये कुछ ज़रूरी सवालों पर आगे भी चर्चा जारी रहेगी।

दिल्ली मेट्रो फीडर के चालकों-परिचालकों की सफल हड़ताल

‘मेट्रो कामगार संघर्ष समिति’ ने घोषणा की कि जब तक कर्मचारियों की जायज माँगें पूरी नहीं हो जाती तब तक अनिश्चितकालीन हड़ताल जारी रहेगी। मेट्रो फीडर की इस हड़ताल को प्रिण्ट व इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी कवर किया। मीडिया में खबरें आने के बाद डी.एम.आर.सी. अपनी जान बचाने के लिए कर्मचारियों पर पुलिस प्रशासन से दबाव डलवाने लगा और ‘मेट्रो कामगार संघर्ष समिति’ को लांछित और बदनाम करने की पुरजोर कोशिश करने लगा। परन्तु मेट्रो फीडर के चालकों-परिचालकों की अटूट एकजुटता और एकता के आगे ये तमाम चालबाजियाँ और हथकण्डे धरे के धरे रह गये।