बजट और आर्थिक सर्वेक्षण : झूठ का एक और पुलिन्दा

मुकेश असीम

29 जनवरी को जब वित्त मन्त्री अरुण जेटली ने सालाना आर्थिक सर्वे संसद में पेश किया तो एक बड़ा दावा यह भी किया कि वर्तमान सरकार महिला सशक्तिकरण के लिए बहुत काम कर रही है। इसके पक्ष में मुख्य बात तो यह निकली कि आर्थिक सर्वे का मुखपृष्ठ गुलाबी रंग में छपा था! साथ ही यह भी कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान चलाने वाली सरकार ने सर्वे में पूरा एक अध्याय (!) महिलाओं की स्थिति के विश्लेषण पर दिया है, जिसमें दिखाया गया है कि कैसे स्वयं के जीवन पर फ़ैसले ले सकने के 17 में से 12 आयामों पर महिलाओं की स्थिति में बेहतरी आयी है। पर यह अध्याय पढ़ने पर पता चलता है कि सशक्तिकरण के सर्वाधिक अहम पहलू अर्थात महिलाओं के आर्थिक स्वावलम्बन में भारी गिरावट आयी है – 2005-06 में 36.3% स्त्रियाँ किसी किस्म का ग़ैर-घरेलू रोज़गार करती थीं। 2015-16 अर्थात 10 वर्ष बाद यह संख्या घटकर 24% ही रह गयी है! साफ़ है कि रोज़गार सृजन में भारी गिरावट और बढ़ती बेरोज़गारी का सबसे ज़्यादा प्रभाव स्त्रियों पर पड़ा है, जो बड़ी संख्या में सामाजिक कार्य जगत से ही बाहर हो गयी हैं। पर यह बेरोज़गारी के आँकड़ों में नहीं झलकता क्योंकि उसमें उनकी ही गिनती की जाती है जो रोज़गार ढूँढ़ने में लगा हो। यहाँ स्त्री मुक्ति के सवाल में जाये बग़ैर संक्षेप में यही कहना पर्याप्त है कि आर्थिक रूप से परावलम्बी स्त्री के ख़ुद के निर्णय ले पाने के सशक्तिकरण का दावा पूर्णतया मिथ्या है तथा शिक्षा, सांस्कृतिक प्रचार माध्यमों के द्वारा पारम्परिक, घरेलू स्त्री के महिमामण्डन तथा जौहर, सती के गौरव के प्रचार ही नहीं, संघी गुण्डा दलों द्वारा स्त्रियों की स्वतन्त्र सामाजिक गतिविधियों पर किये जा रहे विभिन्न हमलों का एक मुख्य कारण भी पूँजीवाद द्वारा उत्पन्न बेरोज़गारी के तीव्र संकट में पाया जा सकता है।
इसके बाद अपने बजट प्रस्तावों में तो महिला सशक्तिकरण के लिए जेटली ने और भी ज़बरदस्त प्रस्ताव दिया – महिलाओं का नगद वेतन बढ़ाने के लिए अब से मूल वेतन का 12% के बजाय सिर्फ़ 8% ही प्रोविडेण्ट फ़ण्ड में जमा होगा, शेष नगद मिलेगा, अर्थात बिना कुछ दिये ही दानवीर कर्ण बनने का नाटक! एक सशक्त मज़दूर आन्दोलन के अभाव में ही आज ऐसे क्रूरता भरे मज़ाक़ मुमकिन हैं। ख़ास बात यह कि ऐसी ही स्थितियाँ इस वर्ष के आर्थिक सर्वे और बजट प्रस्तावों में छाई हुई हैं। जिन भी तबक़ों, समुदायों, क्षेत्रों के सशक्तिकरण, प्रगति, आर्थिक सुधार के दावे-वादे किये गये हैं, उन सबकी ही थोड़ी भी जाँच-पड़ताल की जाये तो उपरोक्त वर्णित स्त्रियों जैसी ही स्थिति सामने आ जाती है। किसानों, बेरोज़गारों, ग़रीबों के स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि जिनके लिए भी बड़े दावे प्रचारित किये गये उन सबके हितों के लिए घातक प्रस्ताव इन दस्तावेजों में मौजूद हैं।
मोदी केयर या मोदी लूट?
सबके लिए स्वास्थ्य की व्यवस्था के बजाय 10 करोड़ ग़रीब परिवारों के लिए घोषित की गयी बीमा योजना का फ़ायदा कृषि बीमा की तरह बीमा कम्पनियों को ही होगा। स्वास्थ्य बीमा योजना स्वास्थ्य सेवाओं के पूर्ण निजीकरण का ऐलान ही है, जिसका फ़ायदा निजी सामान्य बीमा कम्पनियों और मुनाफ़े के लिए मरीज के साथ कुछ भी करने को तैयार फ़ोर्टिस, अपोलो, जैसे निजी कॉर्पोरेट अस्पतालों को ही होगा। कृषि बीमा के नाम पर ऐसा पहले ही हो चुका है जहाँ 22 हज़ार करोड़ रुपये का प्रीमियम जमा हुआ और 8 हज़ार करोड़ के दावे का भुगतान – बीमा कम्पनियों को 14 हज़ार करोड़ रुपये का सीधा लाभ जिसका एक हिस्सा तो बैंकों ने किसानों के खातों से ज़बरदस्ती निकाला और दूसरा आम जनता के टैक्स के पैसे से गया। स्वास्थ्य बीमा में भी यही होने वाला है। अब सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के पूर्ण निजीकरण की तैयारी करेगी। उसके अनुसार 50 करोड़ जनता के लिए तो बीमा कराया जायेगा, लेकिन शेष 85 करोड़ जनता का क्या होगा? क्या ये सब अमीर लोग हैं? अब ये सब होंगे ख़ुद पर पूरी तरह निर्भर और निजी अस्पतालों द्वारा लुटने के लिए मजबूर। इसके लिए 2 हज़ार करोड़ का प्रावधान बजट में है! जबकि बीमा के लिए शुरुआती अनुमान के अनुसार इससे कहीं बहुत अधिक धन की आवश्यकता होगी। यह कहाँ से आयेगा – एक हिस्सा तो यहाँ भी जनता से वसूल होगा और दूसरा हिस्सा केन्द्र व राज्यों द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बन्द करके बचाये गये ख़र्च या नये टैक्स लगाकर आयेगा। कुल मिलाकर यह आम लोगों की लूट और बीमा व निजी अस्पताल कम्पनियों के लिए बड़ी सबसिडी है।
भारत में स्वास्थ्य बीमा वाला काम अभी थोड़ा नया है, पर यहाँ की हक़ीक़त तो पहले ही बहुत ख़तरनाक है। स्क्रॉल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पहले की राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के बारे में कुछ विवरण है। 2011 में सिर्फ़ बिहार में ही 16000 महिलाओं के गर्भाशय निकालने के ऑपरेशन का बीमा अस्पतालों ने लिया, कुछ के तो झाँसे में फँसाके निकाल ही डाले, कुछ के तो सिर्फ़ काग़ज़ों में ही ऑपेरशन हो गये! 2013 में कर्नाटक के कलबुर्गी जि़ले में 38 गाँवों के सर्वे में 707 महिलाओं के गर्भाशय निकालने के केस मिले, इनमें से आधी 35 वर्ष से कम, 20% तो 30 वर्ष से कम थीं, कुछ मात्र 20 साल की! पेट दर्द हुआ, डॉक्टर को दिखाया तो ‘बच्चेदानी ख़राब है, निकलवाओ नहीं तो कैंसर हो जायेगा!’ डराओ, ऑपरेशन करो, बीमा ले लो!
ऐसे मामले राजस्थान, आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, पूरे देश में पकड़े गये हैं। यह तो 25-30 हज़ार के बीमा की स्थिति थी, अब पाँच लाख में सरकार का प्रिय निजी क्षेत्र क्या-क्या जुल्म ढा सकता है, यह कल्पना तो फ़ोर्टिस, अपोलो, जैसे अस्पतालों के हाल में सामने आये मामले बता ही रहे हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बदले बीमा का विचार स्वास्थ्य सुधारने का नहीं पूँजीपतियों के फ़ायदे का विचार है! इसीलिए अस्पताल चलाने वाली और बीमा कम्पनियों के अनुसार ग़रीब मरीजों के लिए बजट में विश्व का सबसे बड़ा क़दम उठाया गया है!
किसानों की आय दोगुनी!
सर्वे में कृषि सम्बन्धित मुख्य बातों में एक है कि 1960-61 में भारतीय कृषि में लगने वाली कुल चालक शक्ति का 93% जीवित (मनुष्य-पशु) स्रोतों से आती थी, 2014-15 में वह 10% ही रह गयी जबकि 90% चालक शक्ति यान्त्रिक/विद्युत जनित हो गयी। यही वजह है कि भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा ट्रैक्टर बनाने वाला देश है – कुल वैश्विक उत्पादन का एक तिहाई। हाल के सालों में बुआई से कटाई तक के लिए अन्य मशीनों के प्रयोग में भी भारी तेज़ी आयी है और इन्हें किराये पर देने का कारोबार भी ज़ोर पकड़ा है। यह भी कि श्रम केन्द्रित के मुक़ाबले यान्त्रिक कृषि में लागत 20% कम और उत्पादकता 30% अधिक होती है। दूसरे, उत्पादन वृद्धि के कारण अभी कृषि उत्पादों के भी ‘अति-उत्पादन’ की स्थिति पैदा हो गयी है जिससे अधिकांश किसानों को प्राप्त होने वाले फ़सलों के बाज़ार भाव अक्सर न्यूनतम समर्थन मूल्य के नीचे ही रहते हैं। इसलिए अधिकांश किसानों की वास्तविक आय में पिछले सालों में काफ़ी गिरावट आयी है। तीसरे, तापमान और वर्षा के पर्यावरण परिवर्तन के कारण खेती ख़ासकर 55% से भी अधिक अभी भी असिंचित खेती में किसानों की आय में लगभग 20% कमी आने की सम्भावना है जिसके समाधान के लिए उन्नत सिंचाई तकनीक के प्रसार और बिजली डीजल पर सबसिडी को समाप्त कर बाज़ार लागत से जोड़ने की ज़रूरत है। चौथे, जीडीपी में 16% योगदान वाले कृषि क्षेत्र से 49% रोज़गार प्राप्त होते हैं, जीडीपी में कृषि का योगदान बढ़ना मुमकिन नहीं इसलिए यहाँ से अतिरिक्त श्रमिकों को उद्योग या सेवा क्षेत्र में ले जाने की आवश्यकता है।
स्पष्ट है कि छोटी-मँझली जोतों वाले किसान जो या तो कृषि यन्त्रों को क़र्ज़ पर लेकर कम जोत की वजह से पूरा प्रयोग नहीं कर पाते, या ऊँचे किराये पर प्रयोग करते हैं या मानवीय-पशु श्रम का अधिक इस्तेमाल करते हैं, उनकी उत्पादन लागत ज़्यादा है, जबकि अमीर किसान (ख़ासकर 10 हेक्टेयर से अधिक जोत वाले) इनका अधिक उत्पादक स्तर व कम लागत पर इस्तेमाल करते हैं। फिर 5-6% अमीर किसान अपनी फ़सल को समर्थन मूल्य पर भी बेच पाते हैं या भण्डारण कर सही वक़्त पर ऊँचे मूल्य प्राप्त कर सकते हैं। ये ही अन्य किसानों की उपज भी कम दामों में ख़रीद कर बिचौलिए वाला लाभ भी प्राप्त करते हैं, जबकि शेष किसान समर्थन मूल्य के बजाय फ़सल आते ही क़र्ज़ चुकाने और ज़रूरतों के बोझ की वजह से गरज बेचा होकर लागत से भी कम मूल्य पाते हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का यह प्रभाव ही अधिकांश किसानों के कंगालीकरण का मुख्य कारण है।
आर्थिक सर्वे के ही ठीक पहले राष्ट्रपति ने संसद में यह भी ऐलान किया कि सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुना करके ही रहेगी! बाद में आर्थिक सर्वे में बताया गया कि पिछले 4 साल से इसमें कोई बढ़ोत्तरी हुई ही नहीं है और आगे पर्यावरण परिवर्तन से इसके 25% तक कम होने का जोखिम भी है!
पूँजीवाद के अनिवार्य नियम से अधिकांश छोटे, मँझोले किसानों का कंगाल होना तय है। उनकी खेती को लाभप्रद नहीं बनाया जा सकता। इस प्रक्रिया में उन्हें नयी औद्योगिक खेती द्वारा निगल ही लिया जायेगा, जिसकी पहले से ही तेज़ होती गति को प्रस्तावित कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग क़ानून द्वारा बढ़ाया जा रहा है और आर्थिक सर्वे भी इस दिशा की पुष्टि कर रहा है।
सर्वे यह भी बता रहा है कि पिछले कई सालों से (2016 के अच्छे मानसून के कुछ अपवाद स्वरूप महीनों को छोड़कर) महँगाई के साथ देखने पर खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी नहीं बढ़ रही है जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार कुल कृषि आधारित जनसंख्या के 47% भूमिहीन मज़दूर हैं तथा अधिकांश सीमान्त किसानों की आय का मुख्य स्रोत भी मज़दूरी है। अतः कृषि में छोटे सीमान्त किसानों और खेत मज़दूरों के लिए जीवन निर्वाह नामुमकिन हो गया है। यन्त्रीकरण की तेज़ होती गति श्रमिकों की माँग और मज़दूरी की दर को और भी कम करेगी।
बजट प्रस्ताव इसके लिए क्या समाधान देते हैं? बजट में वित्त मन्त्री ने कहा कि सरकार स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फ़सलों की उत्पादन लागत पर 50% लाभ वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य देगी; लेकिन बजट बाद के बयान में स्पष्ट किया गया है कि यह मौजूदा गणना के अनुसार ही ए2 (प्रत्यक्ष भुगतान लागत) + एफ़एल (किसान परिवार के श्रम की अनुमानित लागत) वाले सूत्र से तय होगा ना कि स्वामीनाथन आयोग वाले सी2 सूत्र से जिसमें उपरोक्त के अतिरिक्त निवेशित पूँजी का ब्याज़ और ज़मीन का किराया शामिल होता है। इस गणना के आधार पर तो सरकार रबी की फ़सलों के समर्थन मूल्य में पहले ही लागत पर 50% लाभ दे चुकी है, अब ख़रीफ़ की फ़सलों में भी यह लाभ इसी तरह दे दिया जायेगा; हो सकता है कि कुछ फ़सलों के समर्थन मूल्य में कुछ वृद्धि हो। पर इसका जो भी मतलब हो यह न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ़ 5-6% किसानों को ही मिलता है। इससे ग्रामीण जनता के अधिकांश को कोई लाभ नहीं होने वाला।
अन्य प्रस्तावों में अब लीज पर ज़मीन लेने वालों को भी बैंक क़र्ज़ मिलेगा। पर बैंक क़र्ज़ के लिए समझा जा सकता है कि औपचारिक कॉण्ट्रैक्ट की ज़रूरत होगी, छोटे बटाईदारों को इसका लाभ नहीं मिलेगा। सरकार बड़ी संख्या में नयी मण्डियाँ बनायेगी। कृषि प्रसंस्करण उद्योगों के लिए पूँजी और क़र्ज़ उपलब्ध कराया जायेगा। मछली पालन, बाँस उद्योग, आदि के लिए भी पूँजी और तकनीक उपलब्ध करायी जायेगी। सर्वोपरि यह कि किसानों की संयुक्त कृषि उत्पादक कम्पनियाँ अब 100 करोड़ तक के कारोबार पर कोई टैक्स नहीं देंगी।
स्वाभाविक है कि इन कम्पनियों के पास बड़ी जोत होगी और ये अधिक यन्त्रीकृत और श्रम शक्ति पर कम निर्भर औद्योगिक खेती करेंगी। आर्थिक सर्वे पहले ही बता चुका है कि यन्त्रीकृत खेती में लागत 20% कम आती है और उत्पादकता 30% अधिक होती है – ऐसे समझें कि अगर एक सामान्य किसान 100 रुपये लागत पर 100 रुपये मूल्य का उत्पादन करता है, कोई लाभ नहीं कमाता तो यन्त्रीकृत खेती में 80 रुपये की लागत पर 130 रुपये मूल्य का उत्पादन होगा अर्थात 50 रुपये या 62% का लाभ! बड़ी पूँजी के साथ बड़े पैमाने पर उत्पादन, भण्डारण क्षमता, व्यापार, क्रय-विक्रय में प्राप्त होने वाले अन्य लाभ भी होंगे। इस तरह किसी भी स्तर के बाज़ार मूल्यों पर भी छोटे किसान इनके साथ प्रतियोगिता में टिक नहीं सकते। उपरोक्त अन्य घोषणाएँ भी कृषि में बैंक पूँजी के दख़ल और उन्नत तकनीक के प्रयोग को बढ़ायेंगी जिसमें छोटे ग़रीब किसान असमर्थ होंगे। इससे कृषि के व्यावसायीकरण, संकेन्द्रण और छोटे किसानों की बेदख़ली और सर्वहाराकरण की रफ़्तार तेज़ होगी। यह माना जा सकता है कि इस सबसे इन पूँजीपति किसानों की आमदनी दोगुनी हो जायेगी 2022 तक लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इससे अधिकांश छोटे-सीमान्त किसानों और खेत मज़दूरों के जीवन में संकट और गहन ही होगा।
अभी अधिकांश किसान अपने अनुभव से इस बात को जानते हैं मगर दूसरा कोई विकल्प नहीं होने से उसमें लगे रहने को मजबूर हैं। लेकिन वे भी अपने बच्चों के लिए खेती के बाहर कोई जीवन निर्वाह योग्य रोज़गार ही चाहते हैं। इसीलिए आज किसी सरकारी दफ़्तर में चपरासी जैसी नौकरी का भी मौक़ा हो तो रिश्वत देने के लिए अधिकांश किसान अपनी ज़मीन बेचने तक को तैयार हैं। पंजाब जैसे सबसे विकसित कृषि वाले राज्य में इसीलिए बच्चों को कनाडा, इटली कहीं भी जाकर मज़दूरी कराने के लिए किसान ज़मीनें बेच दे रहे हैं। इस स्थिति को सिर्फ़ वही नहीं जानते जो गाँव और खेती से कोई वास्ता नहीं रखते, ख़ुद ज़मीन हो तो भी कभी शहर छोड़कर गाँव नहीं जाने वाले, हाँ, कभी-कभी पर्यटक के तौर पर गाँव की ताज़ा आबोहवा का आनन्द उठाने ज़रूर जाते हैं! पर आम किसानों को लाभप्रद खेती का कभी पूरा न हो पाने वाला सपना दिखाने में कोई गुरेज महसूस नहीं करते! आज खेत मज़दूरों और छोटे-सीमान्त किसानों के सामने मुख्य सवाल जीवन निर्वाह योग्य रोज़गार का है।
पर रोज़गार कहाँ हैं?
आर्थिक सर्वे के कुछ दिन पहले ही स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया और आईआईएम, बैंगलोर के दो घोष नामक विद्वानों ने संगठित क्षेत्र में 70 लाख नयी सृजित औपचारिक नौकरियाँ ढूँढ़ निकाली, मोदी सरकार ने भी तुरन्त इसका प्रचार शुरू कर दिया। आर्थिक सर्वे में भी इस ‘असाधारण खोज’ को आगे बढ़ाते हुए औपचारिक क्षेत्र में बढ़ते रोज़गार की चर्चा की गयी है! इन विद्वानों का कहना है कि पिछले वर्ष हर महीने 5.9 लाख नये पीएफ़ खाते खुले मतलब 70 लाख रोज़गार तो सिर्फ़ औपचारिक संगठित क्षेत्र में ही सृजित हुए! लेकिन ख़ुद सर्वे के अनुसार इस वक़्त भारत में कुल 6 करोड़ रोज़गार ही संगठित क्षेत्र में हैं जिसमें से पिछले एक साल में ही 70 लाख नये जुड़े हैं अर्थात 13.2% इज़ाफ़ा! आश्चर्य है कि रोज़गार में इतनी भारी वृद्धि की यह बात और किसी को तो छोड़िए इसके पहले ख़ुद सरकार और रिज़र्व बैंक, लेबर ब्यूरो किसी को पता नहीं थी! साथ ही यह भी बताया जा रहा है कि नौ करोड़ मुद्रा लोन भी बाँटे गये हैं पिछले दो वर्ष में स्वरोज़गार के लिए! ऊपर से मोदी जी के ‘पकौड़े’ वाले रोज़गार भी हैं! अगर यह सब सच है तो मानना पड़ेगा कि देश में अब कोई बेरोज़गार बचा ही नहीं है। जिसे बेरोज़गारी नज़र आती है वह ‘नकारात्मक’ बातें फैला रहा है! जबकि सेण्टर ऑफ़ मॉनिटरिंग ऑफ़ इण्डियन इकोनॉमी के आँकड़ों के अनुसार देश में इस वक़्त कुल रोज़गार ही 40 करोड़ से कुछ अधिक हैं।
वैसे तो रोज़गार सृजन के इस दावे को ग़लत सिद्ध करने में ज़्यादा कुछ तर्क की ज़रूरत तो नहीं है, फिर भी चन्द बातें अर्थशास्त्र/सांख्यिकी के नज़रिये से कही जा सकती हैं – प्रथम, रिटायर, छँटनी वाले कहाँ गये, उसे घटाना होगा; दूसरे, नोटबन्दी, जीएसटी की वजह से कुछ हद तक हुए औपचारिकीकरण के असर को घटाना होगा क्योंकि ये नये रोज़गार नहीं हैं; तीसरे, आज भी नौकरी बदलने पर अक्सर पीएफ़ खाता बदल जाता है, इसका असर भी घटाना होगा; सबसे बड़ी बात, यह ‘चमत्कारी’ डाटा इन दो ‘विद्वानों’ को ही उपलब्ध क्यों कराया गया है, इसे सब शोधकर्ताओं के लिए सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया?
फिर थोड़ी देर के लिए सरकारी दावों को सही मान भी लें कि संगठित क्षेत्र में बड़ी तादाद में रोज़गार सृजित हो रहे हैं तो अगली बात आर्थिक सर्वे से यह पता चलती है कि 86% पीएफ़ खाते वालों का मासिक वेतन 15 हज़ार रुपये से कम है। औसत 5 सदस्यों का परिवार लें तो 100 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति दिन! यह तो संगठित क्षेत्र के औपचारिक रोज़गार का हाल है, असंगठित की कल्पना कर लीजिए जबकि ख़ुद केन्द्र सरकार के वेतन आयोग ने तीन वर्ष पहले 5 सदस्यों के परिवार के लिए 18 हज़ार रुपये न्यूनतम वेतन तय किया था जिसे अब महँगाई के कारण ख़ुद इसी सरकार द्वारा 22 हज़ार रुपया करने की ख़बर भी है।
वैसे तो सरकारी दावों के मुताबिक़ शायद कोई बेरोज़गार बचा ही नहीं है फिर भी मेहनतकश जनता पर असीम कृपा करते हुए बजट में अब डेढ़ करोड़ और रोज़गार देने का वादा किया गया है। इसके लिए कहा गया है कि नयी नौकरियाँ देने वाली कम्पनियों को प्रोत्साहन देने के लिए नये श्रमिकों के प्रोविडेण्ट फ़ण्ड में मूल वेतन के 12% का मालिकों की ओर से दिया जाने वाला योगदान अब पहले 3 साल तक सरकार देगी। इससे मालिकों को फ़ायदा होगा यह तो निश्चित है लेकिन रोज़गार सृजित होंगे यह नहीं क्योंकि इस 12% का फ़ायदा लेने के लिए अतिरिक्त श्रमिक रखने का फ़ैसला कोई पूँजीपति क्यों लेगा? हाँ, कुछ मौजूदा श्रमिकों की जगह नये रख कर फ़ायदा ले लिया जायेगा। दूसरे, सरकार अब ठेका रोज़गार और निश्चित अवधि नौकरी (fix term hire) को बढ़ावा देगी। इसके नियमों से अब नौकरी से निकालने के लिए 3 महीने के नोटिस की ज़रूरत नहीं रही। 3 महीने के अन्दर बिना नोटिस, उसके बाद 15 दिन का नोटिस देकर कर्मचारी को नौकरी से निकाला जा सकेगा। पूँजीपति और चारण विशेषज्ञ वाहवाही में कह रहे हैं कि इससे नौकरियाँ बढ़ जायेंगी!
लेकिन नये रोज़गार आयें कहाँ से? पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पहले ही ‘अति-उत्पादन’ की शिकार है क्योंकि अधिकांश मेहनतकश जनता घटती या स्थिर आमदनी के कारण अपने उपभोग की वस्तुएँ ख़रीदने में असमर्थ है जिससे निजी पूँजी निवेश बहुत कम हो गया है। अभी औद्योगिक क्षेत्र 70% स्थापित क्षमता पर काम कर रहा है, उद्योगों के कम क्षमता पर काम करने से ताप विद्युत केन्द्रों में भी उत्पादन स्थापित क्षमता के 66% पर ही हो रहा है; शायद पहली बार बिजली की माँग उत्पादन क्षमता से कम है। नतीजा यह कि 2004-05 के आधार वर्ष के हिसाब से कुल स्थाई पूँजी निवेश 2009 के लगभग 33% से घटकर 2018 में अनुमानित 26% पर पहुँच गया है। साथ ही ख़ुद केन्द्र सरकार का ख़र्च भी संकटग्रस्त है – उसमें वृद्धि की दर जो 2008 में 24% होती थी, अब सिर्फ़ 8% रह गयी है क्योंकि सरकार की वित्तीय हालत ख़राब है।
सरकार की वित्तीय स्थिति ख़राब क्यों है?
बजट के अनुसार वित्तीय घाटा अनुमानित 3.2% के बजाय 3.5% हो गया है। नोटबन्दी के बाद तो सरकारी आमदनी में भारी वृद्धि के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे। मोदी-जेटली रोज़ दावे करते थे कि करोड़ों टैक्स चोर पकड़े गये! बड़ी ख़बरें आती थीं कि इतने लोग शक के घेरे में हैं, जाँच हो रही है! लेकिन अब आर्थिक सर्वे के अनुसार नोटबन्दी-जीएसटी के कारण 18 लाख नये व्यक्तियों ने आयकर रिटर्न तो ज़रूर जमा की जो पहले आयकर दाताओं का 3% हैं। पर इनमें से अधिकांश आयकर की सीमा ढाई लाख से नीचे वाले हैं और इनसे आयकर की वसूली में कोई ख़ास वृद्धि नहीं हुई है! साफ़ है कि कुछ मँझली आय वाले किसी वजह से नक़दी होने से चाहे फँस गये हों पर कोई बड़ा लुटेरा जाल में न फँसा! यही वजह है कि मध्यवर्गीय भक्तों की भारी उम्मीदों के बावजूद भी उन्हें आयकर दरों में राहत तो मिली नहीं, उसके बजाय और थोड़ा सरचार्ज ही लग गया! जेटली साहेब ने उनको याद दिलाया कि नौकरीपेशा ग़रीब नहीं अमीर होते हैं और हर नौकरीपेशा आयकरदाता औसत 76 हज़ार रु सालाना टैक्स देता है।
आर्थिक सर्वे यह भी दिखाता है कि विभिन्न देशों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से सरकार को कितनी आय होती है जिससे पता चलता है कि सबसे तेज़ आर्थिक विकास के दोनों बड़े दावेदार, भारत और चीन, अमीरों पर लगने वाले प्रत्यक्ष कर बहुत कम लगाते हैं और अमीर-ग़रीब, पूँजीपति-मेहनतकश सब पर समान दर पर लगने वाले अप्रत्यक्ष कर बहुत अधिक – सरकार की कुल टैक्स आमदनी के 70% से भी ज़्यादा। सर्वे यह शुभ समाचार (पूँजीपतियों के लिए, और किसके, सरकार उनकी प्रबन्धकारिणी समिति जो है!) भी देता है कि जीएसटी के बाद अप्रत्यक्ष करों का अनुपात और भी बढ़ जायेगा। प्रत्यक्ष करों में और भी छूट देने का इरादा है – कॉर्पोरेट हो या आयकर! वैसे भी पिछले कुछ वर्षों से इनका हिस्सा घट रहा है। जाहिर है कि विकास का अर्थ पूँजीपतियों का विकास है, सारे देश का नहीं, वर्गविभाजित समाज में ‘सारे देश के हित’ की बात सिर्फ़ शोषण, अन्याय के खि़लाफ़ विद्रोह को रोकने के लिए ही होती है! पूँजीवाद में तेज़ विकास के लिए मेहनतकशों का शोषण भी तेज़ करना होता है। अप्रत्यक्ष कर मज़दूरों की श्रम शक्ति से हुए उत्पादन में से पूँजीपति वर्ग द्वारा हस्तगत किये गये अधिशेष को बढ़ा देता है, उनका विकास करता है!
इसके विपरीत पूँजीपति तबक़े को ठोस, वास्तविक लाभ हुआ है। पीएफ़ योगदान, स्वास्थ्य बीमा, हवाई योजना की सबसिडी के लाभों के अतिरिक्त उनके लिए कॉर्पोरेट टैक्स की दर में कमी की गयी है। अब 250 करोड़ रुपये तक कारोबार वाली कम्पनी सिर्फ़ 25% टैक्स देंगी। वैसे भी बड़ी कम्पनियाँ तो ख़ुद आयकर विभाग के आँकड़ों के अनुसार सिर्फ़ 21-22% ही टैक्स चुकाती हैं चाहे घोषित दर 30% हो क्योंकि उन्हें इसमें कई तरह की छूट दी जाती है। कृषि उत्पादक कम्पनियों को तो अब 100 करोड़ के कारोबार तक पूरा टैक्स माफ़ कर दिया गया है।
टैक्स आमदनी के साथ ग़ैर-टैक्स आमदनी भी जो पहले कुल सरकारी आमदनी का 16-18% रहती थी अब 2018-19 के लिए अनुमानित 10% ही रहने वाली है। इस किस्म की आमदनी में रिज़र्व बैंक, अन्य बैंकों, वित्तीय-ग़ैर वित्तीय संस्थानों के लाभांश होते हैं जो सभी कम हुए हैं या अपेक्षित रूप से नहीं बढ़े हैं। साथ ही सरकार द्वारा व्यावसायिक गतिविधियों के लिए वसूले जाने वाले शुल्कों में भी पूँजीपतियों को समय-समय पर राहत पैकेज के नाम पर भारी छूट दी गयी है। अडानी पोर्ट्स नामक कम्पनी पर लगी 200 करोड़ की पेनाल्टी माफ़ करना, टेलीकॉम कम्पनियों को दी गयी छूटें इसके कुछ उदाहरण हैं।
बैंकिंग व्यवस्था का संकट
पूँजी निवेश और सरकारी ख़र्च घटने के पीछे एक और वजह है बैंकिंग व्यवस्था का संकट, जिसे सँभालने के लिए ही केन्द्र सरकार को बड़ी मात्रा में पूँजी की व्यवस्था करनी पड़ी है। आर्थिक सर्वे और बजट में यह आशा जाहिर की गयी थी कि दिवालिया क़ानून और रिज़र्व बैंक द्वारा उठाये गये उपायों से यह संकट जल्दी ही दूर हो जायेगा, कम से कम नये एनपीए अब सामने नहीं आयेंगे। मगर यह आशा मात्र 8 दिनों में ही ग़लत सिद्ध हो गयी। 8 फ़रवरी को आये नतीजों के मुताबिक़ अक्टूबर-दिसम्बर की तिमाही में स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया को 2,416 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। उसके 25 हज़ार 836 करोड़ के क़र्ज़ और डूब गये, कुल एनपीए अब 1 लाख 99 हज़ार करोड़ है, जिसमें वो शामिल नहीं जो पहले ही राइट ऑफ़ कर दिये गये हैं। कुल क़र्ज़ का 10.35% अब एनपीए है और अनुमान है कि अभी यह और बढ़ेगा, हालाँकि सरकार और रिज़र्व बैंक मिलकर इसे छिपाने की कोशिश में जुटे हैं – 6 फ़रवरी को ही बैंकों को छूट दी गयी है कि कुछ छोटी-मध्यम कम्पनियों के क़र्ज़ को 6 महीने तक वसूली न होने पर ही एनपीए दिखाया जाये, जबकि पहले 90 दिन तक वसूली रुकने पर ही एनपीए दिखाना होता था। घाटे का यह स्तर भी तब है जबकि बैंक ने अभी डूबे क़र्ज़ से होने वाली हानि के 2 तिहाई से कम के लिए ही अलग राशि का इन्तज़ाम किया है – अर्थात होने वाले घाटे के लिए प्रोविजन अभी 66% से कम हैं!
एसबीआई भारत की कुल बैंकिंग का एक चौथाई है अर्थात इसके नतीजों से पूरी अर्थव्यवस्था के बारे में निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। हुआ यह है कि पहली संकटग्रस्त कम्पनियाँ तो अभी फँसी ही हैं, पर अब कुछ और नयी कम्पनियाँ आर्थिक संकट के दलदल में जा गिरी हैं – ख़ास तौर पर स्टील और बिजली क्षेत्र में संकट ने कुछ और कॉर्पोरेट को निगल लिया है जिसका नतीजा ये नये सिरे से बढ़ते एनपीए हैं। साथ ही नोटबन्दी से बैंकों के पास सस्ते जमा का जो भण्डार इकठ्ठा हुआ था, अब वह ख़त्म है; मोदी-जेटली और भाड़े के भोंपुओं के तमाम झूठे दावों के बावजूद अर्थव्यवस्था में नक़दी लेन-देन पहले के स्तर पर जा पहुँचा है। सस्ते फ़ण्ड के ख़त्म होने से बैंकों की सेहत में हुए नक़ली सुधार का दौर ख़त्म हो चुका है। जमा की तरलता के अभाव में ब्याज़ दर बढ़ने लगी हैं, उनके कम ब्याज़ दर वाले सरकारी बाॅण्ड भी उतने फ़ायदेमन्द नहीं रहे, उनकी क़ीमतें भी गिर रही हैं। इस संकट का नतीजा सिर्फ़ एसबीआई और सरकारी बैंकों में ही नहीं, अब तक बड़े सशक्त माने जाने वाले एचडीएफ़सी, आईसीआईसीआई, एक्सिस, यस, कोटक महिन्द्रा बैंकों के नतीजों में भी प्रतिबिम्बित हो रहा है। साथ ही कुछ दशक पहले की तरह यह संकट आ और जा नहीं रहा बल्कि एक दौर के ख़त्म होने की बातें करते-करते नये संकट की आहट आ जा रही है। स्पष्ट है कि बैंकिंग व्यवस्था को सँभालने के लिए केन्द्र सरकार को अभी और मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होगी तथा नया पूँजी निवेश अभी भी सीमित ही रहेगा अर्थात पूँजीवादी व्यवस्था का संकट जारी रहेगा, लेकिन इसका सारा बोझ आम मेहनतकश जनता पर ही डाला जायेगा।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018


 

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