Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

नीमराना के ऑटो सेक्टर के मज़दूरों की लड़ाई जारी है…

आपको यह जानकर हैरत होगी कि मज़दूरों के धरने पर बैठने के फ़ैसले पर सबसे ज़्यादा आपत्ति श्रम विभाग या कम्पनी प्रबन्धन को नहीं बल्कि एटक को है। श्रम विभाग में अधिकारियों से हर रोज़ घण्टों बैठक करके एटक का नेतृत्व धरने पर बैठे मज़दूरों के पास यह निष्कर्ष लेकर पहुँचता है कि यहाँ पर धरने पर बैठने से कुछ नहीं होगा घर जाओ…

चीन में आर्थिक संकट और मज़दूर वर्ग

चीन के सामाजिक फासीवादी देश के पूँजीपतियों के लिए जहाँ संकट से बचने के लिए बेल आउट पैकेज दे रहा है वहीँ मज़दूरों को तबाह कर उनसे उनके तमाम अधिकार भी छीन रहा है। चीन में अमीर-गरीब पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। पार्टी के खरबपति “कॉमरेड” और उनकी ऐयाश संतानों का गिरोह व निजी पूँजीपती चीन की सारी संपत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी संपत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है। लेकिन मज़दूर वर्ग भी पीछे नहीं हैं और अपने हक़ और मांगों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। राज्य के दमन के बावजूद भी मज़दूर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। एक तरफ चीन का शासक वर्ग आर्थिक संकट के दौर में मज़दूरों को अधिक रियायतें नहीं दे सकता है और दूसरी तरफ मज़दूरों की ज़िन्दगी पहले से ही नरक में है और अब जब वे सड़कों पर उतरे हैं तो इसी कारण कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यह इस व्यवस्था का असमाधेय अन्तरविरोध है। इस अन्तरविरोध का समाधान मज़दूर वर्ग अपने पक्ष में सिर्फ तब कर सकता है जब वह मज़दूर वर्ग की पार्टी के अंतर्गत संगठित होकर चीनी शासकों का तख्ता पलट दे वरना संकट के ये कुचक्र चलते रहेंगे और पूँजीवादी व्यवस्था मर-मर कर भी घिसटती रहेगी।

मारुति मजदूरों के संघर्ष की बरसी पर रस्म अदायगी

अगर आज मज़दूर वर्ग के हिरावल को गुडगाँव-मानेसर-धारुहेरा-बावल तक फैली इस आद्योगिक पट्टी में मज़दूर आन्दोलन की नयी राह टटोलनी है तो पिछले आंदोलनों का समाहार किये बगैर, उनसे सबक सीखे बगैर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। अगर बरसी या सम्मलेन से यह पहलू नदारद हो तो उसकी महत्ता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। अगर ईमानदारी से कुछ सवालों को खड़ा नहीं किया जाय या उनकी तरफ अनदेखी की जाय तो यह किसी भी प्रकार से मज़दूर आन्दोलन की बेहतरी की दिशा में कोई मदद नहीं कर सकता। जहाँ इस घटना के बरसी के अवसर पर आर.एस.एस मार्का नारे लगते हैं, महिला विरोधी प्रसंगों का ज़िक्र किया जाता है वहीँ अभी बीते सम्मलेन से पिछले साढ़े तीन साल के संघर्ष का समाहार गायब रहता है। अपनी गलतियों से सबक सीखने की ज़रुरत पर बात नहीं की जाती है। ‘क्या करें’, ‘आगे का रास्ता क्या हो‘, ये सवाल भी परदे के पीछे रह जाते हैं। हमें लगता है कि आज क्रन्तिकारी मज़दूर आन्दोलन की ज़रूरत है कि दलाल गद्दार ट्रेड यूनियनों को उनकी सही जगह पहुँचाया जाय यानी इतिहास की कूड़ा गाडी में। आम मज़दूर आबादी के बीच उनका जो भी थोड़ा बहुत भ्रम बचा है उसका पर्दाफाश किया जाय। आज भी ये मज़दूरों के स्वतंत्र क्रन्तिकारी पहलकदमी की लुटिया डुबाने का काम बखूबी कर रहे हैं। श्रीराम पिस्टन से लेकर ब्रिजस्टोन के मज़दूरों का संघर्ष इसका उदाहरण हैं।

महिन्द्रा एंड महिन्द्रा के मालिकाने वाली दक्षिण कोरिया की सांगयोंग कार कम्पनी के मज़दूरों का जुझारू संघर्ष

दक्षिण कोरिया की कार कम्पनी सांगयोंग मोटर्स के मज़दूर पिछले 7 सालों से छंटनी के ख़िलाफ़ एक शानदार संघर्ष चला रहे हैं। इन सात सालों में उन्होंने सियोल शहर के पास प्योंगतेक कारखाने पर 77 दिनों तक कब्ज़ा भी किया है, राज्यसत्ता का भयंकर दमन भी झेला है, कई बार हार का सामना किया है लेकिन अभी भी वे अपनी मांगों को लेकर डटे हुए हैं। दमन का सामना करते हुए 2009 से अब तक 28 मज़दूर या उनके परिवार वाले आत्महत्या या अवसाद (डिप्रेशन) के कारण जान गँवा चुके हैं।

आज की परिस्थिति और आगे का रास्ता

2014 की हड़ताल को एक साल बीत चुका है, जो वेतन में 1500 हमने हासिल किये थे, महँगाई बढ़ने के कारण आज हालत फिर पहले जैसी है। इस परिस्थिति में यूनियन की तरफ़ से मालिकों को न्यूनतम वेतन नोटिस दिये जा चुके हैं। गरम रोला की कुछ फ़ैक्टरियों में इस बार भी वेतन बढ़ा है परन्तु सभी फ़ैक्टरियों में नहीं बढ़ा है। ठण्डा रोला की फ़ैक्टरियों व स्टील लाइन की अन्य फ़ैक्टरी में मालिक दीवाली पर वेतन बढ़ाता है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि सभी मज़दूर एक साथ वेतन वृद्धि व अन्य श्रम क़ानूनों को लागू करवाने को लेकर संघर्ष करें। यानी हमें अपनी लड़ाई को इलाक़ाई और पेशागत आधार पर कायम करना चाहिए। यही ऐसा रामबाण नुस्खा है जो हमारी जीत को सुनिश्चित कर सकता है। यानी माँग सभी पेशे के मज़दूरों की उठायी जाये। पिछले साल की हड़ताल में मुख्यतः गरम रोला के मज़दूरों ने हड़ताल की थी, जिसका समर्थन अन्य सभी मज़दूरों ने किया था जिस कारण से हम हड़ताल को 32 दिन तक चला पाये और आंशिक जीत भी हासिल की। इस बार हमें शुरुआत ही अपनी इलाक़ाई और पेशागत यूनियन के बैनर तले संगठित होकर करनी चाहिए। यानी गरम, ठण्डा, तेज़ाब, तपाई, रिक्शा, प्रेस, पोलिश, शेअरिंग व अन्य स्टील लाइन के मज़दूरों का एक साझा माँगपत्र हमें मालिकों के सामने रखना चाहिए। कोई भी हड़ताल इलाक़ाई और सेक्टरगत आधार पर लड़कर जीती जा सकती है।

मार्क्सवादी पार्टी बनाने के लिए लेनिन की योजना और मार्क्सवादी पार्टी का सैद्धान्तिक आधार

कठिनाई इसी में नहीं थी कि जार सरकार के बर्बर दमन का सामना करते हुए पार्टी बनानी थी। जार सरकार जब-तब संगठनों के सबसे अच्छे कार्यकर्ता छीन लेती थी और उन्हें निर्वासन, जेल और कठिन मेहनत की सजाएँ देती थी। कठिनाई इस बात में भी थी कि स्थानीय कमेटियों और उनके सदस्यों की एक बड़ी तादाद अपनी स्थानीय, छोटी-मोटी अमली कार्रवाई छोड़कर और किसी चीज़ से सरोकार नहीं रखती थी। पार्टी के अन्दर संगठन और विचारधारा की एकता नहीं होने से कितना नुक़सान हो रहा है, इसका अनुभव नहीं करती थी। पार्टी के भीतर जो फूट और सैद्धान्तिक उलझन फैली हुई थी, वह उसकी आदी हो गयी थी। वह समझती थी कि बिना एक संयुक्त केन्द्रित पार्टी के भी मज़े में काम चला सकती है।

संशोधनवादियों के संसदीय जड़वामनवाद (यानी संसदीय मार्ग से लोक जनवाद या समाजवाद लाने की सोच) के विरुद्ध लेनिन की कुछ उक्तियाँ

सिर्फ़ शोहदे और बेवकूफ़ लोग ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग के जुवे के नीचे, उजरती गुलामी के जुवे के नीचे, कराये गये चुनावों में बहुमत प्राप्त करना चाहिए, तथा सत्ता बाद में प्राप्त करनी चाहिए। यह बेवकूफी या पाखण्ड की इन्तहा है, यह वर्ग संघर्ष और क्रान्ति की जगह पुरानी व्यवस्था और पुरानी सत्ता के अधीन चुनाव को अपनाना है

उथल-पथल से गुज़रता दक्षिण अफ्रीका का मज़दूर आन्दोलन

दक्षिण अफ्रीका के अलग-अलग हिस्सों में बेरोज़गारी की दर 30 से 50 प्रतिशत तक बढ़ गयी। मज़दूरियों में भारी गिरावट आयी और मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ बहुत ख़राब हो गयीं। मज़दूरों के वेतनों में ज़बरदस्त कटौतियाँ की जाने लगीं। वॉक्सवैगन (कार बनाने वाली कम्पनी) जैसी कम्पनियों ने काम के दिन सप्ताह में 5 दिन से बढ़ाकर 6 दिन कर दिये। एक कार्यदिवस के दौरान मिलने वाले 2 इंटरवल तथा 2 चायब्रेक को घटाकर एक कर दिया गया। विरोध करने वाले मज़दूरों और उनके नेताओं को काम से निकाला जाने लगा। सन 2012 में मरिकाना प्लेटिनम खदान मज़दूरों के आन्दोलन को राज्यसत्ता के हाथों जघन्य हत्याकाण्ड का सामना करना पड़ा जिसमें 34 खदान मज़दूरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। केवल 2009 से 2012 के बीच दक्षिण अफ्रीकी जनता ने 3000 विरोध प्रदर्शन किये जिनमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया।

माकपा की 21वीं कांग्रेस : संशोधनवाद के मलकुण्ड में और भी गहराई से उतरकर मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की बेशर्म क़वायद

माकपा के नये महासचिव सीताराम येचुरी अपने साक्षात्कारों में कहते आये हैं कि मार्क्सवाद ठोस परिस्थितियों को ठोस विश्लेषण करना सिखाता है।अब कोई उन्हें यह बताये कि ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण तो यह बता रहा है कि माकपा बहुत तेज़़ी से इतिहास की कचरापेटी की ओर बढ़ती जा रही है। हाँ यह ज़रूर है कि इतिहास की कचरापेटी के हवाले होने से पहले चुनावी तराजू में पलड़ा भारी करने के लिए बटखरे के रूप में बुर्जुआ दलों के लिए उसकी भूमिका बनी रहेगी।

मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और मुआवज़े का अर्थशास्त्र

जो लोग किसान आबादी के विभेदीकरण की सच्चाई को नहीं समझ पाते, वे मुआवज़े के अर्थशास्त्र के इस पूरे गड़बड़ घोटाले को नहीं समझ पाते। वे यह समझ ही नहीं पाते कि धनी किसान के लिए मुआवज़े का मतलब केवल उसके मुनाफ़े में आयी कमी की एक हद तक भरपाई करना है, जबकि मझोले और ग़रीब किसान को जीने के लिए वास्तविक राहत की ज़रूरत होती है। ऐसे में उचित तो यह होता कि मुआवज़े की दर भी विभेदीकृत होती। यानी ज़्यादा खेती वाले धनी किसानों के मुकाबले कम खेती वाले छोटे-मझोले किसानों के लिए मुआवज़े की दर अधिक होती।