Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

साहसपूर्ण संघर्ष और कुर्बानियों के बावजूद क्यों ठहरावग्रस्त है मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन?

7-8 नवम्बर से मारुति सुजुकी मज़दूरों का संघर्ष फिर से शुरू हुआ। लेकिन पिछले 8 महीनों के बहादुराना संघर्ष के बावजूद आज मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन एक ठहराव का शिकार है। निश्चित तौर पर, आन्दोलन में मज़दूरों ने साहस और त्याग की मिसाल पेश की है। लेकिन किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए केवल साहस और कुर्बानी ही पर्याप्त नहीं होते। उसके लिए एक सही योजना, सही रणनीति और सही रणकौशल होना भी ज़रूरी है। इनके बग़ैर चाहे संघर्ष कितने भी जुझारू तरीके से किया जाय, चाहे कितनी भी बहादुरी से किया जाय और चाहे उसमें कितनी ही कुर्बानियाँ क्यों न दी जायें, वह सफल नहीं हो सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज मारुति सुजुकी के मज़दूरों का आन्दोलन भी ठहरावग्रस्त है। अगर हम इस ठहराव को ख़त्म करना चाहते हैं, तो पहले हमें इसके कारणों की तलाश करनी होगी। इस लेख में हम इन्हीं कारणों की पड़ताल करेंगे।

दो दिनों की “राष्‍ट्रव्यापी” हड़ताल

वास्तव में हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर ऐसे तमाशों से कुछ हासिल नहीं होता बल्कि हमारे इस हथियार की धार ही कुन्द हो जाती है। मज़दूरों को ऐसे अनुष्ठानों की ज़रूरत नहीं है। मज़दूरों के हक़ों के लिए एकजुट और जुझारू लड़ाई की लम्बी तैयारी आज वक़्त की माँग है। इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि मज़दूर दलाल यूनियनों और नकली लाल झण्डे वाले नेताओं को धता बताकर अपने आप को व्यापक आधार वाली क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों में संगठित करें। एक-एक कारख़ाने में दुअन्नी-चवन्नी के लिए लड़ने के बजाय मज़दूर वर्ग के तौर पर पहले उन क़ानूनी अधिकारों के लिए आवाज़ उठायें जिन्हें देने का वायदा सभी सरकारें करती हैं। और हर छोटे-बड़े हक़ की लड़ाई में क़दम बढ़ाते हुए यह कभी न भूलें कि ग़ुलामी की ज़िन्दगी से मुक्ति के लिए उन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करने की लम्बी लड़ाई में शामिल होना ही होगा।

लुधियाना में टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन का स्थापना सम्मेलन

बिना जनवाद लागू किए कोई भी जनसंगठन सच्चे मायनों में जनसंगठन नहीं हो सकता। जनवाद जनसंगठन की जान होता है। सम्मेलन जनसंगठन में जनवाद का सर्वोच्च मंच होता है। किसी भी जनसंगठन के लिए सम्मेलन करने की स्थिति में पहुँचना एक महत्वपूर्ण मुकाम होता है। वर्ष 2010 में लुधियाना के पावरलूम मज़दूरों की लम्बी चली हड़तालों के बाद अस्तित्व में आयी टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन ने पिछले 4 अगस्त को अपना स्थापना सम्मेलन किया।

मुनाफाख़ोर मालिक, समझौतापरस्त यूनियन

मज़दूरों के पास जानकारी का अभाव होने और संघर्ष का कोई मंच नहीं होने के कारण, उन्होंने सीटू की शरण ले ली। मज़दूरों का कहना है कि हम लड़ने को तैयार हैं, लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है इसलिए हमें किसी यूनियन का साथ पकड़ना होगा। जबकि सीटू ने मज़दूरों से काम जारी रखने को कहा है और लेबर आफिसर के आने पर समझौता कराने की बात कही है। आश्चर्य की बात यह है कि संघर्ष का नेतृत्व करने वाले किसी भी आदमी ने यह स्वीकार नहीं किया कि वे संघर्ष कर रहे हैं। सीटू की सभाओं में झण्डा उठाने वाले फैक्ट्री के एक व्यक्ति का कहना था कि हमारी मालिक से कोई लड़ाई नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि जहाँ मालिक को सीटू के नेतृत्व में आन्दोलन चलने से कोई समस्या नहीं है, वहीं सीटू के लिए यह संघर्ष नहीं ”आपस की बात” है।

मज़दूरों के ख़िलाफ़ एकजुट हैं पूँजी और सत्ता की सारी ताक़तें

मारुति सुज़ुकी जैसी घटना न देश में पहली बार हुई है और न ही यह आख़िरी होगी। न केवल पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में, बल्कि पूरे देश में हर तरह के अधिकारों से वंचित मज़दूर जिस तरह हड्डियाँ निचोड़ डालने वाले शोषण और भयानक दमघोंटू माहौल में काम करने और जीने को मजबूर कर दिये गये हैं, ऐसे में इस प्रकार के उग्र विरोध की घटनाएँ कहीं भी और कभी भी हो सकती हैं। इसीलिए इन घटनाओं के सभी पहलुओं को अच्छी तरह जानना-समझना और इनके अनुभव से अपने लिए ज़रूरी सबक़ निकालना हर जागरूक मज़दूर के लिए, और सभी मज़दूर संगठनकर्ताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

लेनिन – क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों से मज़दूर का वार्तालाप

”आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की माँग राजनीतिक कार्य के क्षेत्र में स्वयंस्फूर्ति की पूजा करने की प्रवृत्ति को सबसे स्पष्ट रूप में व्यक्त करती है। बहुधा आर्थिक संघर्ष स्वयंस्फूर्त ढंग से, अर्थात ”क्रान्तिकारी कीटाणुओं, यानी बुद्धिजीवियों” के हस्तक्षेप के बिना ही, वर्ग-चेतन सामाजिक-जनवादियों के हस्तक्षेप के बिना ही, राजनीतिक रूप धारण कर लेता है। उदाहरण के लिए, समाजवादियों के कोई हस्तक्षेप न करने पर भी ब्रिटिश मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष ने राजनीतिक रूप धरण कर लिया। लेकिन सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार यहीं ख़त्म नहीं हो जाता कि वे आर्थिक आधार पर राजनीतिक आन्दोलन करें; उनका कार्यभार इस ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक संघर्ष में बदलना और आर्थिक संघर्ष से मज़दूरों में राजनीतिक चेतना की जो चिंगारियाँ पैदा होती हैं, उनका इस्तेमाल इस मकसद से करना है कि मज़दूर को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना के स्तर पर उठाया जा सके। किन्तु मार्तीनोव जैसे लोग मज़दूरों की अपने आप उठती हुई राजनीतिक चेनता को और ऊपर उठाने तथा बढ़ाने जाने के बजाय स्वयंस्फूर्ति के सामने शीश झुकाते हैं और उबा देने की हद तक बार-बार यही बात दोहराते रहते हैं कि आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को अपने राजनीतिक अधिकारों के अभाव के बारे में सोचने की ”प्रेरणा देता है”। सज्जनो, यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि अपने आप उठती हुई ट्रेड-यूनियनवादी राजनीतिक चेतना आपको यह प्रेरणा नहीं दे पाती कि सामाजिक-जनवादी होने के नाते आपके क्या कार्यभार हैं।

मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी और मार्क्‍सवाद को विकृत करने का गन्दा, नंगा और बेशर्म संशोधनवादी दस्तावेज़

इन सभी प्रयासों के बावजूद अगर माकपा के इस दस्तावेज़ को कोई आम व्यक्ति भी पंक्तियों के बीच ध्यान देते हुए पढ़े तो माकपा की मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी, उसका पूँजीपति वर्ग के हाथों बिकना, उसका बेहूदे क़िस्म का संशोधनवाद और ‘भारतीय क़िस्म के समाजवाद’ के नाम पर भारतीय क़िस्म के पूँजीवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने का उसका शर्मनाक इरादा निपट नंगा हो जाता है! इस दस्तावेज़ में माकपा के घाघ संशोधनवादी सड़क पर निपट नंगे भाग चले हैं। मज़दूर वर्ग के इन ग़द्दारों की असलियत को हमें हर जगह बेनक़ाब करना होगा! ये हमारे सबसे ख़तरनाक दुश्मन हैं। इन्हें नेस्तनाबूत किये बग़ैर देश में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ पायेगा!

28 फ़रवरी की हड़ताल: एक और ”देशव्यापी” तमाशा

सवाल उठता है कि लाखों-लाख सदस्य होने का दावा करने वाली ये बड़ी-बड़ी यूनियनें करोड़ों मज़दूरों की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी सवालों पर भी कोई जुझारू आन्दोलन क्यों नहीं कर पातीं? अगर इनके नेताओं से पूछा जाये तो ये बड़ी बेशर्मी से इसका दोष भी मज़दूरों पर ही मढ़ देते हैं। दरअसल, ट्रेड यूनियनों के इन मौक़ापरस्त, दलाल, धन्धेबाज़ नेताओं का चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को अब ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। एक जुझारू, ताक़तवर संघर्ष के लिए व्यापक मज़दूर आबादी को संगठित करने के लिए ज़रूरी है कि उनके बीच इन नक़ली मज़दूर नेताओं का, लाल झण्डे के इन सौदागरों का पूरी तरह पर्दाफ़ाश किया जाये। मगर ख़ुद को ‘इंक़लाबी’ कहने वाले कुछ संगठन ऐसा करने के बजाय हड़ताल वाले दिन भी कहीं-कहीं इन दलालों के पीछे-पीछे घूमते नज़र आये।

मारुति के मज़दूर आन्दोलन से उठे सवाल

मारुति के मज़दूरों ने आन्दोलन के दौरान जुझारूपन और एकजुटता का परिचय दिया लेकिन वे एक संकुचित दायरे से निकलकर अपनी लड़ाई को व्यापक बनाने और इसे सुनियोजित तथा सुसंगठित ढंग से संचालित कर पाने में विफल रहे। महीनों चले इस आन्दोलन में बहुत कुछ हासिल कर पाने की सम्भावना थी जो नहीं हो सका। भले ही आज यूनियन को मान्यता मिल गयी है और आने वाले महीने में स्थायी मज़दूरों के वेतनमान में बढ़ोत्तरी की सम्भावना है, लेकिन मज़दूरों का संघर्ष केवल इन्हीं बातों के लिए नहीं था। कहने को तो यूनियन गुड़गाँव प्लाण्ट में भी है, अगर ऐसी ही एक यूनियन मिल भी जाये तो क्या है? 1200 कैज़ुअल मज़दूर इस यूनियन का हिस्सा नहीं होंगे। यूनियन के गठन की प्रक्रिया जिस ढंग से चली है, उससे नहीं लगता कि इसमें ट्रेड यूनियन जनवाद के बुनियादी उसूलों का भी पालन किया जायेगा। श्रम क़ानूनों का सीधे-सीधे उल्लंघन करते हुए मैनेजमेण्ट ने यह दबाव डाला कि यूनियन किसी भी तरह की राजनीति से सम्बद्ध नहीं होगी, और आन्दोलन के तीनों दौरों में बारी-बारी से एटक, एचएमएस और सीटू के गन्दे खेल को देखकर बिदके हुए मज़दूरों ने भी इसे स्वीकार कर लिया।

लुधियाना के पॉवरलूम मज़दूरों का विजयी संघर्ष उपलब्धियों को मज़बूत बनाते हुए, कमियों-कमज़ोरियों से सबक़ लेकर आगे बढ़ने की ज़रूरत

मज़दूर अपनी छोटी-छोटी आर्थिक लड़ाइयों (जो कि बेहद ज़रूरी हैं) से ख़ुद-ब-ख़ुद समाजवाद के लिए लड़ना नहीं सीख लेंगे। बल्कि मज़दूरों को समाजवादी चेतना से लैस करना मज़दूर नेताओं का काम है। आर्थिक संघर्ष की जीत की ख़ुशी में मगन होने के बजाए लेनिन की यह शिक्षा हमेशा याद रखनी चाहिए कि आर्थिक संघर्ष, मज़दूरों की समाजवादी शिक्षा के अधीन होने चाहिए न कि इसके विपरीत। मज़दूरों में समाजवादी चेतना के प्रचार-प्रसार की कार्रवाई संघर्ष के दौरान भी (अगर सम्भव हो तो) और उसके बाद भी लगातार जारी रखनी चाहिए।