Category Archives: संघर्षरत जनता

लुधियाना के मेहनतकशों के एकजुट संघर्ष की बड़ी जीत

इस जबरदस्त रैली और प्रदर्शन के सफल आयोजन ने जहाँ मज़दूरों में फैले पुलिस और गुण्डों के डर के माहौल को तोड़कर पहली जीत दर्ज करवाई थी वहीं दूसरी जीत तब हासिल हुई जब रैली को अभी दो दिन भी नहीं बीते थे कि 19 जनवरी की रात को 39 मज़दूर को जेल से बिना शर्त रिहा कर दिया गया। रिपोर्ट लिखे जाने तक 3 नाबालिग बच्चों को कुछ कागजी कार्रवाई के चलते रिहाई नहीं मिल सकी थी लेकिन उनकी रिहाई का रास्ता साफ हो चुका है। कारखाना मज़दूर यूनियन लुधियाना तथा अन्य संगठन बच्चों की रिहाई की कार्रवाई जल्द पूरी करवाने के लिए प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं। पंजाब सरकार ने पंजाब प्रवासी कल्याण बोर्ड के जरिये पीड़ितों के लिए 17 लाख रुपये मुआवजे के तौर पर भी जारी किये हैं। संगठनों के साझा मंच ने इस मुआवजे को नाममात्र करार देते हुए पीड़ितों को उचित मुआवजा देने की माँग की है। यह जीत लुधियाना के मज़दूर आन्दोलन की बहुत बड़ी जीत है। इस जीत ने लुधियाना के मज़दूर आन्दोलन में नया जोश भरने का काम किया है।

बिगुल पुस्तिका – 17 : नेपाली क्रान्ति: इतिहास, वर्तमान परिस्थिति और आगे के रास्ते से जुड़ी कुछ बातें, कुछ विचार

इस पुस्तिका में ‘बिगुल’ में मई, 2008 से लेकर जनवरी-फ़रवरी 2010 तक नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन और वहाँ जारी क्रान्तिकारी संघर्ष के बारे में लिखे गये आलोक रंजन के लेख कालक्रम से संकलित हैं। इन लेखों में शुरू से ही नेपाल की माओवादी पार्टी के उन भटकावों-विसंगतियों को इंगित किया है, जिनके नतीजे 2009 के अन्त और 2010 की शुरुआत तक काफ़ी स्पष्ट होकर सतह पर आ गये। नेपाली क्रान्ति की समस्याएँ गम्भीर हैं, लेकिन लेखक उसके भविष्य को अन्धकारमय मानने के निराशावादी निष्कर्षों तक नहीं पहुँचता। उसका मानना है कि दक्षिणपन्थी अवसरवाद की हावी प्रवृत्ति को निर्णायक विचारधारात्मक संघर्ष में शिकस्त देकर और मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी-माओवादी क्रान्तिकारी लाइन पर नये सिरे से अपने को पुनगर्ठित करके ही एकीकृत नेकपा (माओवादी) नेपाली क्रान्ति को आगे बढ़ाने में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती है। यदि वह ऐसा नहीं कर सकती तो फिलहाली तौर पर उसके बिखराव और क्रान्तिकारी प्रक्रिया के विपयर्य की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। लेकिन आने वाले समय में बुर्जुआ जनवादी और संसदीय राजनीति में आकण्ठ धँसे सभी कि़स्म के संशोधनवादी वाम का ‘एक्सपोज़र’ काफ़ी तेज़ी से होगा। साथ ही, क्रान्तिकारी वाम के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया नये सिरे से तेज़ हो जायेगी। नेपाली क्रान्ति की धारा कुछ समय के लिए बाधित या गतिरुद्ध हो सकती है, लेकिन उसका गला घोंट पाना अब मुमकिन नहीं है। पुस्तिका के परिशिष्ट के रूप में रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी, यू.एस.ए. के मुखपत्र ‘रिवोल्यूशन’ (नं. 160, 28 अप्रैल 2009) में प्रकाशित एक लेख का अनुवाद भी दिया गया है। नेपाल में क्रान्ति के रास्ते के प्रश्न पर संसदीय मार्ग बनाम क्रान्तिकारी मार्ग की जो बहस नये सिरे से उठ खड़ी हुई है, उसका सार्वभौमिक विचारधारात्मक महत्त्व है। इस बहस की विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु को समझना भारत की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट क़तारों और सर्वहारा वर्ग के लिए भी उतना ही ज़रूरी है जितना नेपाल की पार्टी क़तारों और मेहनतकशों के लिए।

बादाम मज़दूरों की 15 दिन लम्बी ऐतिहासिक हड़ताल समाप्त

इस हड़ताल के समापन के साथ दिल्ली के असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की अब तक की विशालतम हड़ताल का समापन हुआ। बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में हज़ारों असंगठित मज़दूरों ने सिद्ध किया कि वे लड़ सकते हैं और जीत सकते हैं। जाहिर है कि मज़दूर अपनी सभी माँगों को नहीं जीत सके। लेकिन इस हड़ताल का महत्व महज़ इतना नहीं रह गया था कि मज़दूरी कितनी बढ़ती है और कितनी नहीं। एक ऐसे उद्योग में जहाँ मज़दूरों को मालिक और ठेकेदार गुलामों की तरह खटाते थे, उनकी साथ लगातार बदसलूकी की जाती थी और उन्हें इंसान तक नहीं समझा जाता था, वहाँ मज़दूरों ने एक ऐतिहासिक और जुझारू लड़ाई लड़कर इज्जत का अपना हक हासिल किया। मालिकों को पहली बार मज़दूरों की ताक़त का अहसास हुआ और उनकी यह गलतफहमी दूर हो गयी कि मज़दूर उनकी ज़्यादतियों को चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे और कभी कुछ नहीं बोलेंगे। हड़ताल के अंत के दौर तक मालिक मज़दूरों के सामने हर तरह से झुकने लगे थे। इसके अतिरिक्त, न सिर्फ मालिकों को मज़ूदरों की ताक़त का अन्दाज़ा चला, बल्कि पूरे इलाके में संगठित मज़दूरों की ताक़त एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी।

लुधियाना की सड़कों पर हज़ारों मज़दूरों के गुस्से का लावा फूटा

4 दिसम्बर को लुधियाना की सड़कों पर हज़ारों मज़दूरों का प्रदर्शन और पुलिस द्वारा उनके दमन की घटना सारे देश के अख़बारों और ख़बरिया टीवी चैनलों की सुर्खियों में रही। लेकिन मज़दूरों के इस आन्दोलन और उनके दमन की सही-सही तस्वीर किसी ने पेश नहीं की। किसी ने प्रदर्शनकारी मज़दूरों को उप्रदवी कहा तो किसी ने उत्पाति। एक मशहूर पंजाबी अख़बार ने मज़दूरों को दंगाकारियों का नाम दिया। एक अख़बार ने मज़दूरों के प्रदर्शन को बवालियों द्वारा की गयी हिंसा और तोड़-फोड़ कहा। एक अंग्रेज़ी अख़बार ने लुधियाना की इन घटनाओं को प्रवासी मज़दूरों और स्थानीय लोगों के बीच की हिंसा कहकर ग़लत प्रचार किया। उन पूँजीवादी अख़बारों ने, जो मज़दूरों के पक्ष में लिखने वाले महसूस भी हुए, यूपी-बिहार के क्षेत्रीय नज़रिये से ही लिखा और घटनाक्रम को इस तरह पेश किया जैसे यह यू.पी.-बिहार के नागरिकों और पंजाब के नागरिकों के बीच की लड़ाई हो। इस घटनाक्रम का सही-सही ब्योरा और उसके पीछे के असल कारण इन पूँजीवादी अख़बारों और टी.वी. चैनलों से लगभग ग़ायब रहे; और इन्होंने कुल मिलाकर लोगों को ग़लत जानकारी मुहैया कराकर मज़दूरों के इस विरोध प्रदर्शन को बदनाम किया, इसके बारे में देश की जनता को गुमराह और भ्रमित किया।

गोरखपुर में अड़ियल मालिकों के ख़िलाफ मज़दूरों का संघर्ष जारी

अंकुर उद्योग लि, वी एन डायर्स धागा व कपड़ा मिल तथा जालानजी पालिटेक्स के मज़दूरों ने लड़कर काम के घण्टे आठ कराये थे लेकिन मालिकान फिर से 12 घण्टे काम कराने की जी-तोड कोशिश में लगे हैं। लगातार मौखिक दबाव बनाने के बाद अन्त में अंकुर के मालिकान ने एक नोटिस लगा दिया कि अब कम्पनी में 12 घण्टा काम होगा। इसके बाद मजदूरों ने टोलियाँ बनाकर रातभर कमरे-कमरे घूमकर प्रचार किया और तैयारी कर लिया कि काम आठ घण्टा ही करेंगे। इसके बाद अगले दिन सुबह वाली शिफ्ट 2 बजे के 10 मिनट पहले ही मशीनें बन्द कर बाहर आ गयी। बाहर खडी दूसरी शिफ्ट ने ताली बजाकर उसका स्वागत किया। दूसरी शिफ्ट को मालिक ने अन्दर नही लिया। फिर गेट पर ही एक मैराथन मीटिंग शाम तक हुई। मजदूरों ने यह तय किया कि रात 10 बजे नहीं आयेंगे। दो बजे ही आयेगे। अपने अधिकारों के प्रति वे जाग गये हैं इसका एहसास मालिक को करा दिया। अगले दिन दूसरी शिफ्ट नही चली। तीसरे दिन फिर काम के घण्टे आठ रहने की नोटिस लग गयी।

2000 मज़दूरों ने विशाल चेतावनी रैली निकाली

यह पहला मौका है जब इतनी बड़ी तादाद में एकजुट होकर करावलनगर के मज़दूरों ने हड़ताल की है। इसके पहले भी कुछ छिटपुट हड़तालें हुई थीं, लेकिन तब बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के मज़दूर एकजुट नहीं हो पाते थे और हड़तालें सफल नहीं हो पाती थीं। बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में यह पहला मौका है जब सभी मज़दूर जाति, गोत्र और क्षेत्र के बँटवारों को भुलाकर अपने वर्ग हित को लेकर एकजुट हुए हैं।

बादाम मज़दूरों के नेता रिहा

करावलनगर इलाके में चौथे दिन भी हज़ारों की संख्या में मज़दूर हड़ताल स्थल पर मौजूद रहे। हड़ताल के जारी रहने से करावलनगर का पूरा बादाम संसाधन उद्योग ठप्प पड़ गया है। बादाम मज़दूर यूनियन के नवीन ने कहा कि करावलनगर पुलिस थाने के पक्षपातपूर्ण व्यवहार और मज़दूरों की ओर से प्राथमिकी दर्ज़ न कराए जाने के कारण यूनियन सीधे पुलिस उपायुक्त, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के पास शिकायत दर्ज़ कराएगी और अगर तब भी कार्रवाई नहीं होती है तो फिर हमारे पास अदालत जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा। ग़ौरतलब है कि बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में पिछले एक वर्ष से बादाम मज़दूर अपने कानूनी हक़ों की माँग कर रहे हैं और साथ ही बादाम संसाधन उद्योग को सरकार द्वारा औपचारिक दर्ज़ा दिये जाने की माँग कर रहे हैं। फिलहाल, सभी बादाम गोदाम मालिक गैर-कानूनी ढंग से बिना किसी सरकारी लाईसेंस या मान्यता के ठेके पर मज़दूरों से अपने गोदामों में काम करवा रहे हैं। इसमें बड़े पैमाने पर महिला मज़दूर हैं लेकिन उनके लिए शौचालय या शिशु घर जैसी कोई सुविधा नहीं है। बादाम मज़दूरों को तेज़ाब में डाल कर सुखाए गए बादामों को हाथों, पैरों और दांतों से तोड़ना पड़ता है। उनके लिए सुरक्षा के कोई इंतज़ाम नहीं हैं और उन्हें टी.बी., खांसी, आदि जैसे रोग आम तौर पर होते रहते हैं। महिला मज़दूरों के बच्चे भी काफ़ी कम उम्र में ही जानलेवा बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।

बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में मज़दूरों की जुझारू हड़ताल तीसरे दिन भी जारी

उत्तर-पूर्वी दिल्ली के करावलनगर क्षेत्र में करीब 30 हज़ार मज़दूर परिवार बादाम तोड़ने का काम करते हैं। यह पूरा व्यवसाय देशव्यापी नहीं, बल्कि विश्वव्यापी है। बेहद आदिम परिस्थितियों में गुलामों की तरह खटने वाले ये मज़दूर जिन कम्पनियों के बादाम का संसाधन करते हैं, वे कम्पनियाँ भारत की नहीं बल्कि अमेरिका, आस्‍ट्रेलिया और कनाडा की हैं। ये भारत के सस्ते श्रम के दोहन के लिए अपने ड्राई फ्रूट्स की प्रोसेसिंग यहाँ करवाते हैं। दिल्ली की खारी बावली पूरे एशिया की सबसे बड़ी ड्राई फ्रूट मण्डी है। खारी बावली के बड़े मालिक सीधे विदेशों से बादाम मँगवाते हैं और उन्हें संसाधित करके वापस भेज देते हैं। ये मालिक संसाधन का काम छुटभैये ठेकेदारों से करवाते हैं जिन्होंने दिल्ली के करावलनगर, सोनिया विहार, बुराड़ी-संतनगर और नरेला में अपने गोदाम खोल रखे हैं। इन गोदामों कोई भी सरकारी मान्यता या लाईसेंस नहीं प्राप्त है और ये पूरी तरह से गैर-कानूनी तरह से काम कर रहे हैं। एक-एक गोदाम में 20 से लेकर 40 तक मज़दूर काम करते हैं। इनके काम के घंटे अधिक मांग के सीज़न में कई बार 16 घण्टे तक होते हैं। इन्हें बादाम की एक बोरी तोड़ने पर मात्र 50 रुपये दिये जाते हैं। इनमें महिला मज़दूर बहुसंख्या में हैं। उनके साथ मारपीट, गाली-गलौज और उनका उत्पीड़न आम घटनाएँ हैं।

बादाम तोड़ने वाले 25-25 हज़ार मज़दूर हड़ताल पर

नई दिल्‍ली के करावल नगर इलाके में बादाम तोड़ने वाले मज़दूरों ने हड़ताल की घोषणा कर दी है। ‘बादाम मज़दूर यूनियन’ के बैनर तले इन मज़दूरों के हड़ताल पर जाने से अमेरिका और ऑस्‍ट्रेलिया सहित कई यूरोपीय देशों में बादाम निर्यात प्रभावित हो गया है। बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक आशीष ने कहा कि सरकार ने 1970 में ठेका मज़दूरी क़ानून के तहत जो बुनियादी अधिकार दिए थे उनका यहां कोई पालन नहीं हो रहा है। श्रम क़ानूनों के उल्‍लंघन से यहां के 20 हज़ार से ज्‍़यादा मज़दूर त्रस्‍त हैं। यूनियन के सदस्‍य राहुल ने कहा कि बेहिसाब महंगाई में न्‍यूनतम मज़दूरी भी न मिलने से मज़दूरों के परिवारों के सामने दाल-रोटी की चिंता बढ़ गयी है। लिहाज़ा मज़दूरों ने काम बंद कर दिया है।

बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजकों पर हमला, पुलिस ने गुण्‍डो की जगह संयोजकों को ही गिरफ्तार किया

पुलिस की इस अंधेरगर्दी से पूरे क्षेत्र के मज़दूरों में गुस्‍से की लहर दौड़ गयी। इस पूरे इलाके में क़रीब 25,000 मज़दूर बादाम तोड़ने का काम करते हैं। इन मज़दूरों के ठेकेदार बेहद निरंकुश हैं और क़रीब-क़रीब मुफ्त में मज़दूरों से काम करवाने के आदि हैं। बादाम मज़दूर यूनियन ने गुण्‍डों द्वारा मारपीट और पुलिस की मालिक परस्‍त भूमिका की तीखे शब्‍दों में निंदा की है। यूनियन ने बताया कि कल एक प्रतिनिधिमण्‍डल पुलिस के उच्‍चाधिकारियों से मिलेगा और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करेगा। युनियन का कहना हैकि यदि उन्‍हें न्‍याय नहीं मिला तो वे आन्‍दोलनात्‍मक रुख अपनाने के लिए तैयार रहेंगे।