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श्रम क़ानूनों में मोदी सरकार के “सुधारों” पर संसदीय वामपन्थियों की चुप्पी

ग़ौरतलब है कि जब मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में संशोधन करके फ़ैक्टरियों को मज़दूरों के लिए यातना शिविर और बन्दीगृह में तब्दील करने के प्रावधान किये जा रहे थे तो सभी संसदीय वामपन्थी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों जैसे सीटू, एटक, एक्टू से लेकर अन्य चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें जैसे इंटक, बीएमएस, एचएमएस एकदम मौन थीं! काफी लम्बे समय बाद इन ट्रेड यूनियनों ने अपनी चुप्पी तोड़कर जुबानी जमाख़र्च करते हुए शिकायत की कि संशोधनों के प्रावधानों के बारे में उनसे कोई सलाह नहीं ली गयी! यानी कि इन ट्रेड यूनियनों की मुख्य शिकायत यह नहीं थी कि पहले से ढीले श्रम क़ानूनों को और ढीला क्यों बनाया जा रहा है, बल्कि यह थी कि यह काम पहले उनसे राय-मशविरा करके क्यों नहीं किया गया! यह वक्तव्य अपने-आप में सरकार की नीतियों को मौन समर्थन है। यानी इन तमाम ग़द्दार ट्रेड यूनियनों की संशोधनों में पूर्ण सहमति है।

मारुति सुजुकी मज़दूरों की “जनजागरण पदयात्रा” जन्तर-मन्तर पर रस्मी कार्यक्रम के साथ समाप्त हुई

साफ है कि चुनावी मदारियों के वादों से मारुति मज़दूरों को कुछ हासिल नहीं होने वाला है लेकिन इस घटना ने एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व के अवसरवादी चरित्र को फिर सामने ला दिया, जिनके मंच पर मज़दूरों को बिना जाँच-सबूत हत्या का दोषी ठहराने वाले योगेन्द्र यादव को कोई नहीं रोकता लेकिन मज़दूरों का पक्ष रखने वाले पत्रकार-समर्थक को रोक दिया जाता है। शायद मारुति मज़दूरों का नेतृत्व आज भी मज़दूरों की ताक़त से ज्यादा चुनावी दलालों से उम्मीद टिकाये बैठे है। तभी मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के मंच पर सीपीआई, सीपीएम से लेकर आप के नेता भी मज़दूरों को बहकाने में सफल हो जाते हैं।

माकपा और सीटू – मज़दूर आन्दोलन के सबसे बड़े गद्दार

गद्दारी करने वाले संगठनों-नेताओं की संख्या तो काफ़ी है लेकिन सबसे अधिक बड़ी गद्दार सी.आई.टी.यू. (सीटू) है जो कि चुनावबाज नकली कम्युनिस्ट पार्टी सी.पी.आई (एम) का मज़दूर फ्रण्ट है। अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए सी.पी.आई. (एम) सीटू का इस्तेमाल करती है। चुनावबाज राजनीति करने वाले हमेशा मालिकों की दलाली करते हैं और जनता के साथ धोखा। यही काम सीपीआई (एम) और सीटू का है। जहाँ इन्होंने पूरे देश में मज़दूर विरोधी-जन विरोधी काली क़रतूतों के कीर्तिमान स्थापित किए हैं और लाल झण्डे को कलंकित व बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है वहीं लुधियाना के मज़दूर आन्दोलन में भी इन्होंने मज़दूरों से गद्दारी और मालिकों की दलाली के, मज़दूर आन्दोलन की पीठ में छुरा खोपने के सारे रिकार्ड तोड़ डाले हैं।

सीटू की असलियत

एफ 2 80, बादली औद्योगिक क्षेत्र जिसके मालिक दो भाई हैं। जिनका नाम अजय बंसल व विपिन बंसल है। इस कारखाने में बाल्टी, टंकी व अनेक प्रकार के बर्तन बनते हैं। इसमें 10 जुलाई 2012 को मालिकों ने तनख्वाह नहीं बढ़ायी जिसके विरोध में क़रीब 50 मज़दूरों ने लिखित रूप से तनख्वाह नहीं ली जिनका प्रमाण है। मालिकों ने जवरी 2012 में 600 रुपये बढ़ाये थे। जबकि मज़दूरों का कहना है कि हर साल मालिक 1100 रुपये बढ़ाता है। इस साल अप्रैल में सरकारी रेट बढ़ा तब से मज़दूर माँग कर रहे हैं कि तनख्वाह बढ़ाओ जो कभी मई तो कभी जून कहकर टाल रहा था और अब जुलाई में बढ़ायेंगे पर वह नहीं बढ़ायेगा। अब तो काम की भी कमी है। किसी दिन ओवरटाइम नहीं लगता।

मुनाफाख़ोर मालिक, समझौतापरस्त यूनियन

मज़दूरों के पास जानकारी का अभाव होने और संघर्ष का कोई मंच नहीं होने के कारण, उन्होंने सीटू की शरण ले ली। मज़दूरों का कहना है कि हम लड़ने को तैयार हैं, लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है इसलिए हमें किसी यूनियन का साथ पकड़ना होगा। जबकि सीटू ने मज़दूरों से काम जारी रखने को कहा है और लेबर आफिसर के आने पर समझौता कराने की बात कही है। आश्चर्य की बात यह है कि संघर्ष का नेतृत्व करने वाले किसी भी आदमी ने यह स्वीकार नहीं किया कि वे संघर्ष कर रहे हैं। सीटू की सभाओं में झण्डा उठाने वाले फैक्ट्री के एक व्यक्ति का कहना था कि हमारी मालिक से कोई लड़ाई नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि जहाँ मालिक को सीटू के नेतृत्व में आन्दोलन चलने से कोई समस्या नहीं है, वहीं सीटू के लिए यह संघर्ष नहीं ”आपस की बात” है।

मारुति सुज़ुकी के मैनेजमेण्ट ने मज़दूर नेताओं को प्रताड़ित करने और उकसावेबाज़ी की घटिया तिकड़में शुरू कीं

मारुति के मज़दूरों को इसे हल्के तौर पर न लेकर अपनी एकजुटता बनाये रखनी चाहिए और मैनेजमेण्ट की चालों में न आकर यूनियन के रजिस्ट्रेशन के लिए श्रम विभाग पर दबाव डालते रहना चाहिए। साथ ही, उन्हें अपने कारख़ाने के दायरे से बाहर गुड़गाँव के अन्य कारख़ानों के मज़दूरों और दुनिया भर में ऑटोमोबाइल उद्योग के मज़दूरों के साथ संवाद और एकजुटता की कोशिशें तेज़ कर देनी चाहिए।

मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों की जुझारू हड़ताल — क़ुछ सवाल

मारुति उद्योग, मानेसर के 2000 से अधिक मज़दूरों ने पिछले दिनों एक जुझारू लड़ाई लड़ी। उनकी माँगें बेहद न्यायपूर्ण थीं। वे माँग कर रहे थे कि अपनी अलग यूनियन बनाने के उनके क़ानूनी अधिकार को मान्यता दी जाये। मारुति के मैनेजमेण्ट द्वारा मान्यता प्राप्त मारुति उद्योग कामगार यूनियन पूरी तरह मैनेजमेण्ट की गिरफ़्रत में है और वह मानेसर स्थित कारख़ाने के मज़दूरों की माँगों पर ध्यान ही नहीं देती है। भारत सरकार और हरियाणा सरकार के श्रम क़ानूनों के तहत मज़दूरों को अपनी यूनियन बनाने का पूरा हक़ है और जब कारख़ाने के सभी मज़दूर इस माँग के साथ हैं तो इसमें किसी तरह की अड़ंगेबाज़ी बिल्कुल ग़ैरक़ानूनी है। मगर मारुति के मैनेजमेण्ट ने ख़ुद ही गैरक़ानूनी क़दम उठाते हुए यूनियन को मान्यता देने से इंकार कर दिया और हड़ताल को तोड़ने के लिए हर तरह के घटिया हथकण्डे अपनाये। इसमें हरियाणा की कांग्रेस सरकार की उसे खुली मदद मिल रही थी जिसने राज्यभर में पूँजीपतियों की मदद के लिए मज़दूरों का फासिस्ट तरीक़े से दमन करने का बीड़ा उठा रखा है। गुड़गाँव में 2006 में होण्डा के मज़दूरों की पुलिस द्वारा बर्बर पिटाई को कौन भूल सकता है।

‘सरूप सन्स’ के मज़दूरों को जुझारू संघर्ष से मिली आंशिक जीत

सीटू की हमेशा से ही नीति रही है कि प्रोडक्शन बढ़वाकर और अधिक से अधिक ओवरटाइम लगवाकर आमदनी बढ़वाने का ड्रामा किया जाये। यह नीति मज़दूरों के लिए बेहद ख़तरनाक है। मज़दूरों की असल लड़ाई तो आठ घण्टे के काम की मज़दूरी बढ़वाने तथा अन्य अधिकार हासिल करने की है। बिगुल मज़दूर दस्ता और कारख़ाना मज़दूर यूनियन के आह्वान का बजाज ग्रुप के मज़दूरों ने ज़ोरदार स्वागत किया। सीटू के नेताओं को मजबूरी में आपातकालीन मीटिंग करके कुशलता के मुताबिक़ वेतन लागू करवाने, पहचानपत्र बनवाने, ओवरटाइम का दोगुना भुगतान आदि माँगें उठानी पड़ीं। श्रम विभाग में तारीख़ें पड़ने लगीं। बिना मज़दूरों से पूछे और बिना मालिक से कुछ हासिल किये सीटू नेताओं ने ओवरटाइम चलवाने का समझौता कर लिया। इसके विरोध में मज़दूरों ने सीटू नेताओं द्वारा बुलायी गयी मीटिंग में सीटू और इसके नेताओं के ख़िलाफ जमकर नारे लगाये। 95 प्रतिशत मज़दूरों ने सीटू का फैसला मानने से इनकार दिया। लेकिन सीटू नेताओं ने उन अगुवा मज़दूरों की लिस्ट कम्पनी को सौंप दी जो अब ओवरटाइम बन्द रखने के लिए मज़दूरों की अगुवाई कर रहे थे। अन्य मज़दूरों को भी सीटू ने तरह-तरह से धमकाकर और मज़दूरों को ओवरटाइम दुबारा शुरू करने के लिए बाध्य किया। लेकिन इस घटनाक्रम ने बजाज सन्स कम्पनी के मज़दूरों के बीच सीटू को बुरी तरह नंगा कर दिया है। बजाज सन्स के ये सारे मज़दूर अगर दलाल और समझौतापरस्त सीटू से पूरी तरह पीछा छुड़ाकर सरूप सन्स के मज़दूरों की राह अपनाते हैं तो इसमें कोई शक नहीं कि वे बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर सकते हैं।

मज़दूर एकता ज़िन्दाबाद!

कारख़ाना मज़दूर यूनियन के आने से पावरलूम कारीगरों में कुछ हिम्मत और एकता बनी। 24 अगस्त से 31 अगस्त तक शक्तिनगर के कारख़ानों और 16 सितम्बर से 30 सितम्बर तक गौशाला, कश्मीर नगर, माधेफरी के पावरलूम कारख़ानों में मज़दूरों ने शानदार हड़तालें लड़ी हैं। इस दौरान काम तेज़ी पर था। मज़दूरों का पलड़ा इस वजह से भी भारी था लेकिन यह मज़दूरों की एकता ही थी जिसने उन्हें जिताया। मालिक पहले तो झुकने को तैयार ही नहीं हो रहे थे लेकिन 18 वर्षों से खीझे मज़दूरों ने प्रण कर लिया था कि बेशक अन्य कोई काम पकड़ना पड़े, लेकिन हार करके इन मालिकों के पास वापस नहीं जाना है। आखि़रकार मालिकों को मज़दूरों के आगे झुकना ही पड़ा और मज़दूरों के साथ लिखित समझौता करके पीस रेट बढ़ाना पड़ा। शक्तिनगर के मज़दूरों के संघर्ष की जीत की ख़बर ने अन्य इलाक़ों के मज़दूरों को भी जगाया और उन्हें भी हड़ताल के लिए प्रेरित किया। इस संघर्ष ने हमें सिखाया कि एकजुटता में इतनी ताक़त होती है कि नामुमक़िन काम मुमक़िन हो जाते हैं। हमने सीखा कि सीटू जैसे दलालों से दूर रहो, और क्रान्तिकारी यूनियन बनाओ।

आई.ई.डी. की फैक्ट्री में एक और मज़दूर का हाथ कटा

लालकुँआ स्थिति आई.ई.डी. के बारे में छपी रिपोर्टों से ‘बिगुल’ के पाठक परिचित ही हैं। यहाँ काम कर रहे मज़दूर आए दिन दुर्घटनाओं का शिकार होते रहते हैं। कभी उंगलियाँ कटती हैं, तो कभी हथेली। मालिक के मुनाफे की हवस के ताज़ा शिकार गुमान सिंह हुए हैं जिनकी उम्र महज 35 साल है। गुमान सिंह इण्टरनेशनल इलेक्ट्रो डिवाइसेज लि. के फ्रेमिंग डिपार्टमेण्ट — जिसमें पिक्चर टयूबों की फ्रेमें बनती हैं — में काम करते थे। घटना 24 जनवरी, 2011 की रात्रि पाली में हुई। कम्पनी की एम्बुलेंस नामधारी निजी कार से उन्हें डॉक्टरी इलाज के लिए ले जाया गया। शुरुआती कुछ ख़र्च देने के बाद प्रबन्‍धन चुप बैठा है। गुमान सिंह इस उम्मीद में हैं कि इस कम्पनी को मैंने जवानी के 15 बरस दिए हैं, वह हमारा ज़रूर ख्याल करेगी। गुमान सिंह गढ़वाल के रहने वाले हैं। 1995 में गाज़ियाबाद आये कि यहाँ मोटर मैकेनिक का काम सीखेंगे। कई-एक फैक्ट्रियों में काम किया, अन्तत: आई.ई.डी. में 1996 से काम करने लगे। 6 माह बाद 1997 में उन्हें कम्पनी ने स्थायी कर दिया। तब से वे इसी कम्पनी में काम करते रहे हैं। गाज़ियाबाद के ज़नता क्वार्टर में अपने तीन बच्चों व बुजुर्ग बाप के साथ रहने वाले गुमान सिंह के सामने भविष्य की ज़िम्मेदारी सामने खड़ी है। शरीर का सबसे कीमती अंग गँवाकर यह मज़दूर अपने बच्चों का पेट कैसे पालेगा, इसके बारे में मुनाफाख़ोर मालिकान के पास क्या कोई जबाव है?