Category Archives: स्‍त्री मज़दूर

दिल्ली आँगनवाड़ी महिलाओं का लम्बा और जुझारू संघर्ष!

अरविन्द केजरीवाल सरकार की इस लगातार जारी वायदा-खि़लाफ़ी को देखते हुए हड़ताल की लीडिंग कमिटी ने 4 अगस्त को फिर एक ज़बरदस्त कार्यक्रम की योजना बनायी। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ के नेतृत्व में हज़ारों आँगनवाड़ी वर्कर्स व हेल्पर्स ने राजघाट से दिल्ली सचिवालय तक ‘आँगनवाड़ी आक्रोश रैली’ का आयोजन किया। 15 अगस्त के मद्देनज़र दिल्ली पुलिस कार्यक्रम को लेकर आना-कानी कर रही थी, लेकिन महिलाओं की ताक़त के आगे आखि़र उसे भी झुकना पड़ा। दिल्ली सचिवालय पहुँचकर महिलाओं ने ज़बरदस्त नारेबाज़ी की और अपनी सभा को चलाया। लेकिन केजरीवाल महाशय उस दिन भी नदारद थे।

महान भारत में औरतों के नहाने के लिए बन्द-बाथरूम भी नहीं

एक बहुत चिन्ताजनक बात यह है कि बन्द बाथरूम की ज़रूरत का मुद्दा कभी चर्चा का विषय नहीं बनता। जब लोगों के साथ इस बारे में बात होती है तो उनका कहना होता है कि भले ही नहाने के लिए बन्द जगह की ज़रूरत होती है, लेकिन हमारे पास इस पर ख़र्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। इससे अधिक महत्वपूर्ण ज़रूरतें भी हैं जिन्हें पूरा करना पहल के आधार पर ज़रूरी है।

लुधियाना में ‘स्त्री मज़दूर संगठन’ की शुरुआत

2 अक्टूबर 2016 को मज़दूर पुस्तकालय, लुधियाना में स्त्रियों की एक मीटिंग हुई। इस मीटिंग में समाज में स्त्रियों की बुरी हालत के बारे में और इस हालत को बदलने के लिए स्त्रियों को जागरूक व संगठित करने की ज़रूरत के बारे में बातचीत की गयी। मज़दूर स्त्रियों की हालत और भी बुरी है। घर और बाहर दोनों जगहों पर स्त्री मज़दूरों को बेहद भयंकर हालातों का सामना करना पड़ता है। मर्दों के बराबर या अधिक काम करने के बावजूद भी उन्हें पुरुष मज़दूरों से कम वेतन मिलता है।

दिल्ली सचिवालय पर घरेलू कामगारों का जुझारू प्रदर्शन

दिल्ली के सैकड़ों घरेलू कामगारों ने दिल्ली सरकार के सचिवालय पर बीते 25 अप्रैल को एक जुझारू प्रदर्शन किया और उनके प्रतिनिधिमंडल ने दिल्ली राज्य के श्रम मन्त्री को अपनी माँगों का ज्ञापन सौंपा। श्रम विभाग में अनिवार्य पंजीकरण, न्यूनतम वेतन, कार्यदिवस, साप्ताहिक छुट्टी एवं अन्य अवकाशों का निर्धारण, स्वास्थ्य और दुर्घटना बीमा, पी।एफ़।, पेंशन, ई।एस।आयी। एवं सामाजिक सुरक्षा के अन्य प्रावधान आदि घरेलू कामगारों की प्रमुख माँगें थीं।

मज़दूरों की कत्लग़ाह बने चाय बागान

बागान मज़दूरों के श्रम को निचोड़कर मालिक जो बेहिसाब म़ुनाफ़ा कमाते हैं उसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चाय उत्पादन से होने वाला सालाना कारोबार 10,000 करोड़ रुपये का है। एक बड़े चाय बागान मकईबाड़ी ने तो हाल में चाय की नीलामी में 4 लाख 30 हज़ार रुपये किलो के भाव से चाय बेची! चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा बड़ा चाय उत्पादक है। भारत में वर्ष 2010 में चाय का उत्पादन 1.44 लाख टन था जो वर्ष 2014 में बढ़कर 1.89 लाख टन हो गया। ज़ाहिर है कि चाय उत्पादन की इस बढ़ोतरी में असंख्य बागान मज़दूरों का खून मिला हुआ है।

आशा वर्कर्स और आँगनवाड़ी के कर्मचारियों ने किया दिल्‍ली विधान सभा का घेराव

इस चेतावनी रैली के ज़रिये आशा वर्कर्स और आँगनवाड़ी के कर्मचारियों ने केजरीवाल सरकार के समक्ष यह साफ़ कर दिया है कि जब तक उनकी माँगों को स्वीकार नहीं किया जाता, तब तक उनका संघर्ष जारी रहेगा। बिगुल मज़दूर दस्ता आशा वर्कर्स और आँगनवाड़ी के कर्मचारियों के इस संघर्ष में लगातार उनका समर्थन कर रहा है। ज्ञात हो कि 14 जुलाई को केजरीवाल सरकार का एक प्रतिनिधिमण्डल हड़तालकर्मियों से मिला था, पर सरकार के इन नुमाइन्दों ने दिलासा देने के अलावा कोई ठोस आश्वासन देना ज़रूरी नहीं समझा, जिसके बाद कर्मचारियों ने एकमत से यह तय किया कि वह एक चेतावनी रैली निकालकर केजरीवाल सरकार को यह चेता देंगे कि उन्हें कोरे दिलासे नहीं बल्कि ठोस कार्यवाही और अपनी माँगों की स्वीकृति चाहिए। आशा वर्कर्स और आँगनवाड़ी के कर्मचारियों ने आज यह घोषणा की कि अगर सरकार जल्द से जल्द उनकी माँगों की सुनवाई नहीं करती है तो अगली बार वह दिल्ली सचिवालय का घेराव करेंगे।

श्रम सुधारों के नाम पर मोदी सरकार का मज़दूरों पर हमला तेज़

सच तो यह है कि छोटे-छोटे प्लाण्टों से लेकर घरेलू वर्कशॉपों तक ठेका, उपठेका और पीसरेट पर उत्पादन के काम को इस तरह बाँट दिया गया है कि उनमें काम करने वाले अधिकांश मज़दूरों का कोई रेकार्ड नहीं रखा जाता। ठेका, कैजुअल या अप्रेण्टिस मज़दूर को मिलने वाले क़ानूनी हक़ भी उन्हें हासिल नहीं होते। व्यवहारतः वे दिहाड़ी मज़दूर होते हैं जो सरकार और श्रम विभाग के लिए अदृश्य होते हैं। नये श्रम सुधारों द्वारा श्रम विभागों को एकदम निष्प्रभावी बनाकर इस किस्म के अनौपचारिकीकरण को अब ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि विदेशी कम्पनियाँ और देश के छोटे-बड़े सभी पूँजीपति खुले हाथों से और मनमाने ढंग से अतिलाभ निचोड़ सके। मोदी द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’ को रफ्तार देने के लिए प्रस्तावित श्रम सुधारों की यह वास्तव में महज़ शुरुआत भर है। यह तो महज़ ट्रेलर है, पूरी पिक्चर अगले दो-तीन वर्षों में सामने आ जायेगी।

समाजवादी चीन ने स्त्रियों की गुलामी की बेड़ियों को कैसे तोड़ा

समाजवादी चीन (1949-1976) ने महिला मुक्ति के मोर्चे पर जो कुछ भी हासिल किया था उसके मूल में कानूनी परिवर्तन नहीं बल्कि वे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन थे जिन्हें क्रान्ति ने सम्पन्न किया था। यूँ तो पूँजीवादी समाजों में भी महिलाओं के लिए कानून बनाये जाते हैं, लेकिन इन कानूनों से मिलने वाले लाभ पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों की वजह से निष्प्रभावी हो जाते हैं और इस तरह पूँजीवाद में कानून होने के बावजूद स्त्रियों की दासता बनी रहती है और स्त्री-पुरुष समानता दूर की कड़ी नज़र आती है।

हरियाणा के रोहतक में हुई एक और “निर्भया” के साथ दरिन्दगी

एक तरफ़ तो ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ का ढोल पीटा जाता है, “प्राचीन संस्कृति” का यशोगान होता है लेकिन दूसरी तरफ़ स्त्रियों के साथ बर्बरता के सबसे घृणित मामले यहीं देखने को मिलते हैं। स्त्री विरोधी मानसिकता का ही नतीजा है कि हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या होती है और लड़के-लड़कियों की लैंगिक असमानता बहुत ज़्यादा है। हिन्दू धर्म के तमाम ठेकेदार आये दिन अपनी दिमाग़ी गन्दगी और स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की अपनी मंशा का प्रदर्शन; कपड़ों, रहन-सहन और बाहर निकलने को लेकर बेहूदा बयानबाज़ियाँ करके करते रहते हैं लेकिन तमाम स्त्री विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ बेशर्म चुप्पी साध लेते हैं। यह हमारे समाज का दोगलापन ही है कि पीड़ा भोगने वालों को ही दोषी करार दे दिया जाता है और नृशंसता के कर्ता-धर्ता अपराधी आमतौर पर बेख़ौफ़ होकर घूमते हैं। अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब हरियाणा के मौजूदा मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खट्टर फ़रमा रहे थे कि लड़कियों और महिलाओं को कपड़े पहनने की आज़ादी लेनी है तो सड़कों पर निर्वस्त्र क्यों नहीं घूमती!

प्रवासी स्त्री मज़दूर: घरों की चारदीवारी में क़ैद आधुनिक ग़ुलाम

घर में काम करने वाले मज़दूरों की स्थिति हमेशा से ही ख़राब रही है, लेकिन आज जब पूँजीवाद अपने सबसे अनुत्पादक और परजीवी चरण में पहुँच गया है और इसने मानवीय मूल्यों के क्षरण और पतन की सारी सीमाएँ तोड़ दी हैं तो इन परिस्थितियों में समाज का सर्वाधिक कमज़ोर और अरक्षित हिस्सा जैसे बच्चे, औरतें और घरों में काम करने वाले आदि इस क्षरण और पतन का शिकार सबसे ज़्यादा होता है। घरों में काम करने वाले स्त्री-पुरुषों के साथ मार-पीट, गालियाँ, यौन उत्पीड़न बेहद सामान्य है लेकिन पिछले एक दशक से स्त्री मज़दूरों में जो ज़्यादातर घरेलू नौकरानी का काम करती हैं, उनमें काम की जगह से भागने के दौरान मौत या आत्महत्या की घटनाएँ बहुत अधिक बढ़ी हैं। इस उत्पीड़न से बच निकली स्त्रियों के लिए लेबनान तथा यूरोप के कई देशों में कुछ आश्रय गृह बने हैं। ब्रिटेन के आश्रयगृह में रहने वाली एक औरत का कहना है कि वह भाग्यशाली है कि वह बच निकली लेकिन उसके जैसी हज़ारों-हज़ार ऐसी औरतें हैं जो चुपचाप यह अत्याचार और उत्पीड़न झेल रही हैं और उनके पास बच निकलने का कोई रास्ता भी नहीं है।