स्त्री मुक्ति के संघर्ष को शहरी शिक्षित उच्च मध्यवर्गीय कुलीनतावादी दायरों के बाहर लाना होगा
जिस देश की ज्यादातर महिलाएँ मेहनत-मजदूरी करके, किसी तरह अपने परिवार का पेट भरने के लिए दिन-रात खटती रहती है, जो घर के भीतर, चूल्हे-चौखट में ही अपनी तमाम उम्र बिता देने को अभिशप्त हैं, जो आये दिन अनगिनत किस्म के अपराधें और बर्बरताओं का शिकार होती हैं, उनकी गुलामी और दोयम दर्जे की स्थिति को कोई कानून या अधिनियम नहीं खत्म कर सकता। वास्तव में स्त्रियों की मुक्ति पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर सम्भव है ही नहीं। स्त्रियों की मुक्ति सिर्फ उसी समाज में सम्भव होगी जो पूरी मानवता को उसकी पूँजी की बेड़ियों से मुक्त करेगा। इसलिए आज स्त्री मुक्ति के क्रान्तिकारी संघर्ष को सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के साथ जुड़ना ही होगा। दूसरी ओर, यह भी सही है कि सामाजिक परिवर्तन की कोई भी लड़ाई आधी आबादी की भागीदारी के बिना नहीं जीती जा सकती।