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इलाहाबाद में फासिस्टों की गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़ छात्र सड़कों पर

फासिस्ट ताकतें अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती। और भारत में इनके हौसले लगातार बढ़ ही रहे हैं। पिछले दिनों, अंधविश्वास और जादू-टोने के खिलाफ लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र डाभोलकर की हत्या कर दी गयी, फिर पुणे में उनकी श्रद्धांजलि सभा पर एबीवीपी और बजरंग दल के गुंडों ने हमला करके आयोजक छात्रों को घायल कर दिया। इसी तरह, इलाहाबाद में लगायी जाने वाली दो प्रगतिशील दीवार पत्रिकाओं ‘प्रतिरोध’ और ‘संवेग’ को फाड़ने और उन्हें लगाने वाले छात्रों से फोन पर गाली गलौज करने और गुजरात के मुसलमानों की तरह काटकर फेंक देने की धमकी देने का मामला सामने आया है।

आने वाले चुनाव और ज़ोर पकड़ती साम्प्रदायिक लहर

महँगाई, बेरोज़गारी, बदहाली, भूख-कुपोषण, धनी-ग़रीब की बढ़ती खाई – यह सब कुछ चरम पर है। पर कोई पार्टी इन मुद्दों को हवा दे पाने की स्थिति में नहीं है। पिछले बाईस वर्षों के अनुभव ने यह साफ़ कर दिया है कि नवउदारवाद की नीतियों की जिस वैश्विक लहर ने भारत जैसे देशों के आम लोगों की ज़िन्दगी पर कहर बरपा किया है, उन नीतियों पर सभी चुनावी दलों की आम सहमति है। केन्द्र और राज्य में, जब भी और जितना भी मौक़ा मिला है, इन सभी दलों ने उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों को ही लागू किया है। चुनावी वाम दलों के जोकर भी पीछे नहीं है। उनका “समाजवाद” बाज़ार के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहता है, अपने को अब “बाज़ार समाजवाद” कहता है और कीन्सियाई नुस्खों से नवउदारवादी पूँजीवाद को थोड़ा “मानवीय” चेहरा देने के लिए सत्ताधारियों को नुस्खे सुझाता है।

भारतीय उपमहाद्वीप में साम्प्रदायिक उभार और मज़दूर वर्ग

साम्प्रदायिकता की इस नयी लहर के उफ़ान पर होने से बुर्जुआ राजनीति के सभी चुनावी मदारियों के चेहरे चमक उठे हैं क्योंकि उनको बैठे-बिठाये एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसके सहारे वे अपनी डूबती नैया को बचाने की आस लगा रहे हैं। कोई हिन्दुओं का हितैषी होने का दम भर रहा है तो कोई मुसलमानों का रहनुमा होने का दावा कर रहा है और जो ज्यादा शातिर हैं वो धर्मनिरपेक्षता की गोट फेंक अपना हित साध रहे हैं। क़िस्म-क़िस्म के घपलों-घोटालों में आकण्ठ डूबी कांग्रेस को अपनी लूट-पाट से लोगों का ध्यान बँटाने के लिए इससे बेहतर मुद्दा नहीं मिल सकता था। वहीं दूसरी ओर भ्रष्टाचार और अपनी नयी पीढ़ी के नेताओं के बीच की आपसी कलह से त्रस्त भाजपा को भी एक ऐसा मुद्दा सालों बाद मिला है जिसमें उसके कार्यकर्ताओं में पनप रही निराशा को दूरकर एक नयी साम्प्रदायिक ऊर्जा का संचार करने की सम्भावना निहित है। उधर समाजवादी पार्टी को भी उत्तर प्रदेश में अपनी नवनिर्मित सरकार की विफलताओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसकी उसे तलाश थी।

बिगुल पुस्तिका – 16 : फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें?

असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फ़ासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाने और क्रान्ति में आगे बढ़ा पाने में असफल रही। नतीजा था फ़ासीवादी उभार, जो अप्रतिरोध्‍य न होकर भी अप्रतिरोध्‍य बन गया।

लिब्रहान रिपोर्ट – जिसके तवे पर सबकी रोटी सिंक रही हैं

संघ परिवार द्वारा जुटायी गयी उन्मादी भीड़ और हिन्दू फ़ासिस्ट संगठनों के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं द्वारा 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्‍या में बाबरी मस्जिद गिराये जाने की जाँच के लिए गठित जस्टिस लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट 17 वर्ष बाद जिस तरह से पेश की गयी, उससे सभी पार्टियों के हित सध रहे हैं। एक ऐतिहासिक मस्जिद को गिराने और पूरे देश को विभाजन के बाद के सबसे भीषण दंगों की आग में धकेलने वाले संघ परिवार और उसके नेताओं के राजनीतिक करियर पर इस रिपोर्ट से कोई ऑंच नहीं आने वाली है। इस साज़िश में शामिल और इसे शह देने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव और पूजा के लिए मस्जिद का ताला खुलवाने से लेकर शिलान्यास करवाने तक कदम-कदम पर भाजपा का रास्ता आसान बनाने वाली कांग्रेस को भी इससे कोई नुकसान नहीं होने वाला। सच तो यह है कि कांग्रेस और भाजपा से लेकर मुलायम सिंह यादव तक सभी इससे अपने-अपने हित साधने में लगे हुए हैं।

फ़ासीवाद क्‍या है और इससे कैसे लड़ें? (समापन किश्‍त)

मज़दूर आन्दोलन का नेतृत्व पूँजीवादी संकट की स्थिति में अगर क्रान्तिकारी विकल्प मुहैया नहीं कराता है और पूरे आन्दोलन को सुधारवाद, पैबन्दसाज़ी, अर्थवाद, अराजकता- वादी संघाधिपत्यवाद और ट्रेड-यूनियनवाद की अन्‍धी गलियों में घुमाता रहेगा तो निश्चित रूप से अपनी गति से पूँजीवाद अपनी सबसे प्रतिक्रियावादी तानाशाही की ओर ही बढ़ेगा। बल्कि कहना चाहिए एक संगठित और मज़बूत, लेकिन अर्थवादी, सुधारवादी और ट्रेड-यूनियनवादी मज़दूर आन्दोलन पूँजीवाद को संकट की घड़ी में और तेज़ी से फासीवाद की ओर ले जाता है

फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (पाँचवीं किश्त)

भारत में भी कोई जनवादी क्रान्ति नहीं हुई जिसके कारण पूरे समाज में जनवादी चेतना की एक भारी कमी है और भयंकर निरंकुशता है जो फ़ासीवाद का आधार जनता के मनोविज्ञान में तैयार करती है। यहाँ पर भी क्रान्तिकारी भूमि सुधार नहीं हुए और क्रमिक भूमि सुधारों ने प्रतिक्रियावादी युंकर वर्ग को और हरित क्रान्ति ने प्रतिक्रियावादी आधुनिक धनी किसान वर्ग को जन्म दिया। यहाँ भी निम्न-पूँजीपति वर्ग और छोटे उत्पादकों की एक भारी तादाद मौजूद है जो पूँजीवादी विकास के साथ तेज़ी से उजड़ती है और प्रतिक्रियावाद के समर्थन में जाकर खड़ी होती है। साथ ही यहाँ भी ऊपर की ओर गतिमान एक प्रतिक्रियावादी नवधनाढय वर्ग है जो भूमण्डलीकरण के रास्ते हो रहे विकास की मलाई चाँप रहा है। इनमें मोटा वेतन पाने वाला वेतनभोगी वर्ग, ठेकेदार वर्ग, व्यापारी वर्ग, नौकरशाह, आदि शामिल हैं। यहाँ पर मज़दूर वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जो किसानी मानसिकता का शिकार है और पूरी तरह उत्पादन के साधनों से मरहूम नहीं हुआ है। वह भौतिक स्थितियों से सर्वहारा चेतना की ओर खिंचता है और अतीतोन्मुखी आकांक्षाओं और दो-चार मामूली उत्पादन के साधनों का स्वामी होने के कारण निम्न-पूँजीवादी चेतना की ओर खिंचता है। नतीजतन, सर्वहारा चेतनाकरण की प्रक्रिया मुकाम तक नहीं पहुँचती और इस आबादी का भी एक हिस्सा फ़ासीवादी प्रचार और प्रतिक्रिया के सामने अरक्षित होता है और उसका अक्सर शिकार बन जाता है।

फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (चौथी किश्‍त)

आर.एस.एस. ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ किसी भी स्वतन्त्रता संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया। संघ हमेशा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ तालमेल करने के लिए तैयार था। उनका निशाना शुरू से ही मुसलमान, कम्युनिस्ट और ईसाई थे। लेकिन ब्रिटिश शासक कभी भी उनके निशाने पर नहीं थे। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान संघ देशव्यापी उथल-पुथल में शामिल नहीं हुआ था। उल्टे जगह-जगह उसने इस आन्दोलन का बहिष्कार किया और अंग्रेज़ों का साथ दिया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा बंगाल में अंग्रेज़ों के पक्ष में खुलकर बोलना इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण था। ग़लती से अगर कोई संघ का व्यक्ति अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ा गया या गिरफ्तार किया गया तो हर बार उसने माफीनामा लिखते हुए ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफादारी को दोहराया और हमेशा वफादार रहने का वायदा किया। स्वयं पूर्व प्रधानमन्‍त्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी यह काम किया। ऐसे संघियों की फेहरिस्त काफी लम्बी है जो माफीनामे लिख-लिखकर ब्रिटिश जेलों से बाहर आये और जिन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानियों के ख़िलाफ अंग्रेज़ों से मुख़बिरी करने का घिनौना काम तक किया।

लिब्रहान रिपोर्ट – फिर दफनाए जाने के लिए पेश की गई एक और रिपोर्ट

1984 में दिल्ली में हुए सिक्खों के कत्लेआम के दोषियों को सभी जानते हैं, लेकिन आज तक दिल्ली दंगों के किसी भी दोषी का बाल तक बाँका नहीं हुआ। गुजरात 2008 में कन्धमाल में ईसाइयों के कातिलों का भी कुछ नहीं बिगड़ने वाला। लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर भी कुछ दिन संसद में बहसबाजी का नाटक खेला जायेगा। उसके बाद इसे भी कहीं गहरा दफना दिया जायेगा। हुक्मरानों के सभी हिस्से इस हमाम में नंगे हैं। कौन किसे सजा देगा? हुक्मरान वर्ग के सभी हिस्से जनता को बाँटने, लड़वाने, मरवाने, लूटने और पीटने में एक-दूसरे से आगे हैं। इनसे इंसाफ की उम्मीद करना सबसे बड़ी मूर्खता है। इंसाफ तो एक दिन देश की मेहनतकश जनता करेगी। जब एकजुट होकर मेहनतकश जनता उठेगी तो जनता के इन कातिलों के मुकदमों की सुनवाई होगी।