दुनिया का पहला मज़दूर राज क़ायम करने वाली रूसी क्रान्ति के नेता लेनिन के जन्मदिवस (22 अप्रैल) के मौक़े पर
समाजवादी क्रान्ति और राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का अधिकार (लेख के अंश)

वी.आई.लेनिन 

  1. समाजवादी क्रान्ति और जनवाद के लिए संघर्ष

समाजवादी क्रान्ति कोई एकल कार्य नहीं है, एक मोर्चे पर एक एकल लड़ाई नहीं है; बल्कि तीखे वर्ग संघर्षों का एक पूरा युग है, सभी मोर्चों पर लड़ाइयों की, यानी, अर्थशास्त्र और राजनीति की सभी समस्याओं के इर्द-गिर्द लड़ाइयों एक लम्बी श्रृंखला है, जो तभी ख़त्म हो सकती है जब पूँजीपति वर्ग का स्वत्वहरण कर दिया जायेगा। यह मानना ​​एक बुनियादी ग़लती होगी कि जनवाद के लिए संघर्ष सर्वहारा वर्ग को समाजवादी क्रान्ति से भटका सकता है, या उस लक्ष्य को धुँधला या ढँक सकता है, आदि। इसके विपरीत, जिस तरह समाजवाद तब तक विजयी नहीं हो सकता जब तक कि वह पूर्ण जनवाद लागू न करे, उसी तरह सर्वहारा वर्ग पूँजीपति वर्ग पर विजय के लिए तब तक तैयार नहीं हो पायेगा जब तक कि वह जनवाद के लिए बहुआयामी, सुसंगत और क्रान्तिकारी संघर्ष नहीं छेड़ता है।

जनवाद के कार्यक्रम के किसी भी बिन्दु को हटाना भी क़तई कम गलत बात नहीं होगी, उदाहरण के लिए, राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का बिन्दु, इस आधार पर कि यह “असम्भव” है, या साम्राज्यवाद के तहत यह बस एक “मरीचिका” है। राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को पूँजीवाद के ढाँचे के भीतर हासिल नहीं किया जा सकता है, इस दावे को या तो इसके निरपेक्ष, आर्थिक अर्थ में समझा जा सकता है, या फिर पारम्परिक, राजनीतिक अर्थ में।

पहले मामले में, यह दावा सैद्धान्तिक रूप से बुनियादी तौर पर ग़लत है। पहली बात, इस अर्थ में, पूँजीवाद के तहत श्रम धन या संकटों के उन्मूलन, आदि जैसी चीज़ें हासिल करना असम्भव है। लेकिन यह तर्क देना पूरी तरह से ग़लत है कि राष्ट्रों का आत्मनिर्णय भी इसी तरह असम्भव है। दूसरे, 1905 में स्वीडन से नॉर्वे के अलग होने का एक उदाहरण भी इस तर्क का खण्डन करने के लिए पर्याप्त है कि यह इस अर्थ में “असम्भव” है। तीसरे, इस बात से इन्कार करना हास्यास्पद होगा कि राजनीतिक और रणनीतिक सम्बन्धों में थोड़े-से बदलाव के साथ, उदाहरण के लिए, जर्मनी और इंग्लैण्ड के बीच, नये राज्यों, पोलिश, भारतीय आदि का गठन बहुत जल्द “सम्भव” हो जायेगा। चौथे, वित्त पूँजी, विस्तार के अपने प्रयासों के तहत, किसी भी देश की सबसे स्वतन्त्र, सबसे जनवादी और गणतन्त्रात्मक सरकार और निर्वाचित अधिकारियों को “मुक्त रूप से” ख़रीदेगी और रिश्वत देगी, चाहे वे कितने भी “स्वतन्त्र” क्यों न हों। वित्तीय पूँजी का प्रभुत्व, आम तौर पर पूँजी के प्रभुत्व की ही तरह, राजनीतिक जनवाद के क्षेत्र में किसी भी तरह के सुधारों से समाप्त नहीं किया जा सकता है, और आत्मनिर्णय पूरी तरह से और विशेष रूप से इसी क्षेत्र से सम्बन्धित है। हालाँकि, वित्तीय पूँजी का प्रभुत्व, वर्ग उत्पीड़न और वर्ग संघर्ष के अधिक स्वतन्त्र, अधिक व्यापक और अधिक विशिष्ट रूप के तौर पर राजनीतिक जनवाद के महत्व को ज़रा भी नष्ट नहीं करता है। इसलिए, पूँजीवाद के तहत राजनीतिक जनवाद की माँगों में से एक को आर्थिक रूप से हासिल करने की “असम्भाव्यता” के बारे में तमाम तर्क ख़ुद को पूँजीवाद के सामान्य और मूलभूत सम्बन्धों और आम तौर पर राजनीतिक जनवाद की सैद्धान्तिक रूप से ग़लत परिभाषा में सीमित कर देते हैं।

दूसरे मामले में, यह दावा अधूरा और ग़लत है, क्योंकि न केवल राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार, बल्कि राजनीतिक जनवाद की सभी बुनियादी माँगों को साम्राज्यवाद के तहत “हासिल करना सम्भव” है, मगर केवल अपूर्ण, तोड़े-मरोड़े रूप में और एक दुर्लभ अपवाद के रूप में (उदाहरण के लिए, 1905 में स्वीडन से नॉर्वे का अलग होना)। सभी क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादियों द्वारा उठायी गयी उपनिवेशों की तत्काल मुक्ति की माँग भी क्रान्तियों की एक श्रृंखला के बिना पूँजीवाद के तहत “हासिल करना असम्भव” है। हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि सामाजिक जनवाद को इन सभी माँगों के लिए तत्काल और दृढ़तम संघर्ष करने से बचना चाहिए – इससे बचना पूँजीपति वर्ग और प्रतिक्रिया को ही फ़ायदा पहुँचायेगा। इसके विपरीत, इसका मतलब यह है कि इन सभी माँगों को सुधारवादी नहीं, बल्कि क्रान्तिकारी तरीक़े से सूत्रबद्ध करना और उठाना आवश्यक है; बुर्जुआ वैधानिकता के ढाँचे के भीतर रहकर नहीं, बल्कि इसे तोड़कर; संसदीय भाषणों और मौखिक विरोधों तक सीमित रहकर नहीं, बल्कि जनता को वास्तविक कार्रवाई में शामिल करके, हर तरह की बुनियादी, जनवादी माँग के लिए संघर्ष को व्यापक बनाना और भड़काना, पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के प्रत्यक्ष आक्रमण के ऐन समय तक और उसे शामिल करते हुए, यानी समाजवादी क्रान्ति तक, जो पूँजीपति वर्ग का स्वत्वहरण कर देगी। समाजवादी क्रान्ति केवल किसी बड़ी हड़ताल, सड़क के प्रदर्शन, भुखमरी के विरुद्ध बलवे, सेना में बग़ावत या एक औपनिवेशिक विद्रोह के परिणामस्वरूप ही नहीं शुरू हो सकती है, बल्कि किसी भी राजनीतिक संकट के परिणामस्वरूप भी हो सकती है, जैसे कि ड्रेफ़स मामला, [4] ज़ेबर्न की घटना, [5] या किसी उत्पीड़ित राष्ट्र के अलग होने पर जनमत संग्रह के संबंध में, आदि।

साम्राज्यवाद के अन्तर्गत राष्ट्रीय उत्पीड़न का तीखा होना सामाजिक-जनवाद के लिए यह ज़रूरी बना देता है कि वह राष्ट्रों के अलग होने की स्वतन्त्रता के लिए पूँजीपति वर्ग द्वारा “काल्पनिक” बताये जाने वाले संघर्ष को तिलांजलि न दे, बल्कि इसके विपरीत, जनता की कार्रवाई को भड़काने और पूँजीपति वर्ग पर क्रान्तिकारी हमलों के उद्देश्य से इस आधार पर उत्पन्न होने वाले टकरावों का पहले से कहीं अधिक लाभ उठाये।

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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