वक़्फ़ क़ानून में नये संशोधनों पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए?

आनन्द

पिछली 3 और 4 अप्रैल को आख़िरकार मोदी-शाह सरकार वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025 को क्रमश: लोकसभा और राज्यसभा में पारित करवाने में कामयाब हो गयी। अगले ही दिन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने झटपट इस विधेयक को मंजूरी देते हुए इसे क़ानूनी जामा पहना दिया। चूँकि फ़ासिस्टों के पास अपने दम पर इस विधेयक को पारित करवाने के लिए ज़रूरी बहुमत नहीं था इसलिए वे अपने गठबन्धन के घटक दलों, मुख्य रूप से चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी और नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड), के समर्थन पर निर्भर पर थे। इन दो घोर जनविरोधी, मौक़ापरस्त और अल्पसंख्यक-विरोधी दलों ने फ़ासिस्टों को निराश नहीं किया और कुछ मामूली संशोधनों को सुझाने के बाद निहायत ही बेशर्मी से इस विधेयक के पक्ष में मत देकर फ़ासिस्टों के संकटमोचन का काम किया। कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों ने संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए इस विधेयक के ख़िलाफ़ मत दिया। सवाल यह उठता है कि इन संशोधनों पर हम मज़दूरों का नज़रिया क्या होना चाहिए। वक़्फ़ क़ानून में फ़ासिस्टों द्वारा किये गये नये संशोधनों का विरोध ज़्यादातर क़ानूनी और संवैधानिक नज़रिये से ही हो रहा है। परन्तु फ़ासिस्टों की असली चाल समझने के लिए हमें क़ानूनी और संवैधानिक पहलुओं से आगे जाकर इस मुद्दे की तह में जाना होगा और इसके पीछे की राजनीति को समझना होगा।

वक़्फ़ है क्या?

वक़्फ़ इस्लाम धर्म में ख़ैरात के कई तरीक़ों में से एक है। इसके तहत कोई व्यक्ति अपनी चल या अचल सम्पत्ति को किसी धर्मार्थ कार्य जैसे मस्जिद, कब्रिस्तान, मदरसा, अनाथालय, अस्पताल इत्यादि के लिए दे सकता है। यह स्थायी रूप से दिया गया दान होता है यानी एक बार कोई सम्पत्ति दान देने के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता है क्योंकि इस्लाम धर्म की मान्यता है कि वक़्फ़ को दिया गया दान अल्लाह को समर्पित होता है। ग़ौरतलब है कि भारत में वक़्फ़ की यह प्रथा सदियों से चली आयी है। दिल्ली सल्तनत और मुग़ल कालीन शासकों के समय से ही वक़्फ़ सम्पत्तियों के प्रशासन और उनके ऊपर निगरानी रखने की व्यवस्था रही है। अंग्रेज़ों ने भारत पर क़ब्ज़ा जमाने के बाद वक़्फ़ की सम्पत्तियों के विनियमन के लिए क़ानून बनाए और उनमें समय-समय पर संशोधन किये। आज़ादी के बाद वक़्फ़ की सम्पत्तियों के प्रबन्धन हेतु 1954 में एक केन्द्रीय वक़्फ़ क़ानून बनाया गया। 1995 में इस क़ानून को भंग करके एक नया क़ानून लाया गया। 2013 में वक़्फ़ अधिनियम 1995 में कुछ संशोधन किये गये थे। मौजूदा संशोधन 1995 के ही वक़्फ़ का़नून में किये गये हैं। वक़्फ़ क़ानून के तहत वक़्फ़ सम्पत्तियों का प्रबन्धन विभिन्न राज्यों में स्थित 30 वक़्फ़ बोर्ड और एक केन्द्रीय वक़्फ़ परिषद द्वारा किया जाता है।       

वक़्फ़ क़ानून में संशोधन के पक्ष में सरकारी दावे    

संसद में वक़्फ़ क़ानून में किये जा रहे संशोधनों की वकालत करते हुए गृहमन्त्री अमित शाह ने कहा कि इन संशोधनों का मक़सद मुस्लिमों के धार्मिक मामलों में राज्य की दख़लन्दाज़ी को बढ़ावा देना नहीं है बल्कि उनकी धार्मिक व धर्मार्थ सम्पत्तियों के प्रशासन को प्रभावी बनाना है। उन्होंने बताया कि सरकार की मंशा वक़्फ़ सम्पत्तियों के प्रशासन को ज़्यादा पारदर्शी व जवाबदेह बनाने तथा भ्रष्टाचार को दूर करने की है। उन्होंने इन संशोधनों के ज़रिये वक़्फ़ निकायों का जनवादीकरण करने की बात भी की। साथ ही उन्होंने वक़्फ़ सम्पत्तियों के रिकॉर्ड के कम्प्यूटरीकरण की ज़रूरत पर बल दिया है। उनका दावा है कि इस विधेयक के लागू होने का फ़ायदा ग़रीब मुसलमानों, मुसलमान औरतों, पसमांदा मुसलमानों आदि को होगा। परन्तु जैसे ही हम इन दावों की पड़ताल सच्चाई की रोशनी में करते हैं तो इन दावों की हवा निकल जाती है और यह स्पष्ट हो जाता है कि यह मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर एक नया फ़ासीवादी हमला और साम्प्रदायिकीकरण की नयी साज़िश है।

वक़्फ़ क़ानून में संशोधन के पीछे फ़ासिस्टों की असली मंशा

वक़्फ़ सम्पत्तियों के कुप्रबन्धन और उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार के तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। परन्तु वक़्फ़ ही क्यों, सच तो यह है कि इस देश में धर्म-कर्म के नाम पर सभी धर्मों की धार्मिक व धर्मार्थ संस्थाओं ने सम्पत्ति का विशाल अम्बार खड़ा किया हुआ है जिनके प्रबन्धन में भी कोई जवाबदेही या पारदर्शिता नहीं है और इस मामले में हिन्दू धर्म के मन्दिरों, ट्रस्टों आदि में जो अरबों-खरबों का भ्रष्टाचार होता है, उसका तो किसी अन्य धर्म में कोई मुक़ाबला ही नहीं है। ऐसे में केवल इस्लाम धर्म की किसी संस्था में भ्रष्टाचार को लेकर ही अमित शाह के पेट में मरोड़ क्यों उठ रहा है? शाह इतने भोले तो हैं नहीं कि उन्हें यह पता ही न होगा कि इस देश में तमाम मन्दिरों, मठों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों और बाबाओं के तमाम आश्रमों ने लोगों की धार्मिक आस्था के नाम पर अकूत सम्पदा इकट्ठी कर रखी है और उनके प्रबन्धन में भी ज़बर्दस्त भ्रष्टाचार होता है। वास्तव में, सबसे ज़्यादा समृद्ध तो तमाम हिन्दू मन्दिरों के ट्रस्ट व बोर्ड आदि हैं, जिनके पास जमा अथाह सम्पत्ति व धन-दौलत पर दशकों से गम्भीर सवाल उठते रहे हैं। इसी प्रकार तमाम गुरुद्वारों व गिरजाघरों और मठों के पास जमा चल व अचल सम्पत्ति का कोई हिसाब नहीं है।

लेकिन सरकार को इन सभी सम्पत्तियों के प्रशासन को प्रभावी व जवाबदेह बनाने का ख़्याल नहीं आया और उनके निशाने पर सिर्फ़ एक ही मजहब की संस्थाएँ आ रही हैं। इस्लाम के अलावा बाक़ी धर्मों की संस्थाओं से जुड़ी सम्पत्तियों के रिकॉर्ड का कम्प्यूटरीकरण करने का ख़्याल अमित शाह के दिमाग़ में क्यों नहीं आया? अगर गृहमन्त्री महोदय धार्मिक संस्थाओं की सम्पत्तियों के प्रबन्धन में हो रहे भ्रष्टाचार से वाक़ई चिन्तित होते तो एक ऐसा विधेयक लाते जिसमें सभी धर्मों से सम्बन्धित सम्पत्तियों के प्रशासन को ज़्यादा पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के प्रावधान होते। आख़िर उनकी पार्टी ही तो इन दिनों ‘समान नागरिक संहिता’ और ‘एक राष्ट्र एक क़ानून’ पर ख़ूब चिल्ल-पों मचा रही है! यह एक अच्छा मौक़ा था जब भाजपा अगर चाहती तो सभी धर्मों के लिए एकसमान क़ानून की दिशा में एक बड़ा क़दम उठा सकती थी। लेकिन असलियत तो यह है कि उसकी मंशा ये है ही नहीं। उसकी मंशा तो मुस्लिम समुदाय को पिछड़ा बताकर लगातार उसके ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल क़ायम रखने और उनके ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की है।        

गृहमन्त्री ने वक़्फ़ सम्पत्तियों के आँकड़े तो संसद में विस्तार से प्रस्तुत किये लेकिन इन मन्दिरों, मठों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों और आश्रमों की सम्पत्तियों पर शातिराना चुप्पी साधे रखी। यानी केवल इस्लाम धर्म की संस्थाओं के प्रशासन को “दुरुस्त” करने को लेकर अमित शाह के पेट में मरोड़ उठ रहा है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा भ्रष्टाचार व व्याभिचार में लिप्त और उससे कहीं ज़्यादा सम्पदा व धन के मालिक मठों, महन्तों व मन्दिरों की जाँच व उनकी सम्पत्तियों के विनियमन में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। यानी, एक ख़ास धर्म को इस मामले में सरकार ने अलग किया है और उसके प्रति सरकार का रवैया भिन्न है। ज़ाहिर है, इस भेदभाव के पीछे मक़सद है मुसलमान अल्पसंख्यक आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना, उनके दमन-उत्पीड़न को तीव्र करना और देश में साम्प्रदायिक उन्माद के तन्दूर को गर्म रखना ताकि उस पर संघ परिवार व भाजपा अपनी चुनावी रोटियाँ सेंक सकें।

जहाँ तक इन संशोधनों का फ़ायदा ग़रीब मुसलमानों, मुसलमान औरतों व पसमाँदा मुसलमानों को मिलने का सवाल है, तो अमित शाह के इस दावे का तथ्यों व तर्कों से कोई रिश्ता नहीं है। अगर उन्हें ग़रीबों, औरतों व दलितों से इतना ही प्रेम है, तो इसी प्रकार का “जनवादीकरण” वह हिन्दू धर्म व उसकी संस्थाओं में क्यों नहीं करते? वहाँ तो ग़रीबों, औरतों व दलितों की और भी ज़्यादा बुरी हालत है। ज़ाहिर है, यह बस एक जुमला है ताकि ‘बाँटो और राज करो’ की नीति के तहत मुसलमान आबादी को आपस में लड़ाकर उनके फ़ासीवादी दमन को आसान बनाया जा सके। बोहरा मुस्लिमों और आग़ा ख़ानियों के लिए अलग वक़्फ़ बोर्ड बनाने के पीछे इन समुदायों की भलाई नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय के अलग-अलग फ़िरकों को आपस में लड़ाने की मंशा काम कर रही है। इसी प्रकार भाजपा द्वारा पसमांदा मुसलमानों का मुद्दा उछालने के पीछे उसकी मंशा ग़रीब मुसलमानों का कल्याण नहीं बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर वर्गीय विभाजन का फ़ायदा अपने फ़ासीवादी हितों को साधने की है। अगर सरकार की मंशा वाक़ई धार्मिक संस्थाओं के जनवादीकरण या सेक्युलराइज़ेशन की होती तो वह सभी धर्मों व उनकी संस्थाओं पर एकसमान रूप में लागू करती। वैसे भी इस विधेयक का ग़रीब मुसलमानों, मुसलमान औरतों व पसमाँदा मुसलमानों से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं है और जहाँ तक जनवादीकरण से होने वाले आम फ़ायदों से इन सामाजिक हिस्सों के लाभान्वित होने की बात है, तो अमित शाह को पहले हिन्दू धर्म और उसकी संस्थाओं और मठों-बाबाओं के बारे में चिन्तित होना चाहिए, जहाँ औरतों के बलात्कार से लेकर दलितों के मन्दिर में प्रवेश पर मनाही और नंगे भ्रष्टाचार और व्यभिचार की घटनाओं तक, जनवाद और सेक्युलरिज़्म के आदर्शों की धज्जियाँ लगातार ही उड़ायी जाती हैं। जहाँ तक वक़्फ़ बोर्डों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का सवाल है तो सरकार ने शातिराना ढंग से यह तथ्य छिपा दिया कि 1995 के वक़्फ़ क़ानूनों में पहले से ही महिलाओं के प्रतिनिधित्व के प्रावधान थे। महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना तो दूर नये संशोधनों में उसे कम ही करने की तैयारी की गयी है। ऐसा इसलिए क्योंकि पहले के प्रावधान में वक़्फ़ बोर्डों में ‘कम से कम दो महिलाओं’ की नुमाइन्दगी की बात थी जबकि नये संशोधनों में बस ‘दो महिलाओं’ की नुमाइन्दगी के प्रावधान हैं। इस प्रकार अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में फ़ासिस्टों को संसद में भी सफ़ेद झूठ बोलने में ज़रा भी शर्म नहीं आयी। 

ग़ौरतलब है कि मुसलमानों की धार्मिक व धर्मार्थ सम्पत्तियों के प्रशासन के लिए तो एक केन्द्रीय क़ानून पहले से ही मौजूद था, लेकिन हिन्दुओं व अन्य धर्मावलम्बियों की धार्मिक सम्पत्तियों के प्रशासन के लिए कोई भी केन्द्रीय क़ानून नहीं है। कुछ राज्यों में हिन्दू संस्थाओं से जुड़ी सम्पत्तियों के लिए क़ानून हैं, परन्तु अखिल भारतीय स्तर पर ऐसा कोई भी क़ानून नहीं है। ऐसे में सबके लिए एकसमान क़ानून की बात करने वाली भाजपा सभी धर्मो की सम्पत्तियों के पारदर्शी प्रशासन के लिए केन्द्रीय स्तर पर कोई विधेयक क्यों नहीं पेश कर रही है? वजह साफ़ है, इन फ़ासिस्टों की मंशा धार्मिक सम्पत्तियों के प्रबन्धन में भ्रष्टाचार ख़त्म करने की है ही नहीं। इन्हें तो बस अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के तहत समाज में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए नये-नये मुद्दे सामने लाकर समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाना है। इसलिए वक़्फ़ विधेयक को भी मुसलमानों को एक नक़ली दुश्मन के रूप में पेश करने की फ़ासिस्ट रणनीति की निरन्तरता में ही देखने की ज़रूरत है।

नये वक़्फ़ संशोधनों में वक़्फ़ बोर्डों और वक़्फ़ परिषद में ग़ैर-मुस्लिमों को भी शामिल करने का प्रावधान है। भाजपा इसे वक़्फ़ निकायों को ज़्यादा वैविध्यीकृत और समावेशी बनाने की दिशा में एक क़दम बता रही है। अच्छी बात है। तो फिर तमाम मन्दिरों-मठों-आश्रमों के प्रबन्धन को वैविध्यीकृत और समावेशी बनाने का ख़याल उनके ज़ेहन में क्यों नहीं आया? क्या वे वैष्णो देवी, तिरुपति बालाजी, शिर्डी के साईं बाबा जैसे मन्दिरों की सम्पत्ति के प्रबन्धन में मुस्लिमों, ईसाइयों आदि को शामिल करने के लिए तैयार होंगे? ज़ाहिरा तौर पर नहीं। वहाँ तो उन्हें वैविध्यीकरण और समावेशन की नहीं बल्कि हिन्दुओं की आस्था याद आने लगेगी और हमें बताया जायेगा कि जो संस्था हिन्दुओं के धार्मिक व आध्यात्मिक कामों के लिए है उसमें किसी अन्य धर्म के लोग भला कैसे रह सकते हैं? उनकी सम्पत्तियों व धन-दौलत की जाँच कैसे की जा सकती है? सारे फ़ासीवादी नफ़रती चिण्टू गोदी मीडिया के तमाम चैनलों पर गले फाड़-फाड़कर पूछेंगे कि “क्या अब इस देश में हिन्दू होना जुर्म है?” जी नहीं। लेकिन इस देश में मुसलमान होने को भाजपा निश्चित ही एक जुर्म बना रही है। नये संशोधनों के तहत वक़्फ़ सम्पत्तियों के विवादों का निपटारा करने का अधिकार वक़्फ़ ट्राइब्युनल नहीं बल्कि ज़िले का कलेक्टर होगा। इस प्रकार केन्द्र में बैठी फ़ासिस्ट सरकार कलेक्टर के ज़रिये किसी भी वक़्फ़ सम्पत्ति को विवादित बताकर उसे हथिया सकती है। 

नये संशोधनों में यह प्रावधान भी डाल दिया गया है कि कोई ग़ैर-मुस्लिम अपनी सम्पत्ति का दान वक़्फ़ सम्पत्ति के रूप में नहीं कर सकता है। इतिहास में ऐसी तमाम मिसालें हैं जिनमें ग़ैर-मुस्लिमों ने भी अपनी सम्पत्ति को वक़्फ़ सम्पत्ति के रूप में दान दिया है। अगर कोई हिन्दू अपनी मर्ज़ी से अपनी सम्पत्ति किसी क़ब्रिस्तान बनाने के लिए देना चाहे तो फिर ऐसे दान पर रोक लगाने का क्या तुक था? एक तरफ़ ग़ैर-मुस्लिमों को मुस्लिमों की धार्मिक सम्पत्ति के प्रबन्धन में शामिल किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ़ ग़ैर-मुस्लिमों को अपनी सम्पत्ति वक़्फ़ सम्पत्ति के रूप में देने से रोका जा रहा है! इस दोगलेपन की जड़ भाजपा-संघ परिवार की मुस्लिम-द्वेषी फ़ासीवादी सोच में है।

फ़ासिस्टों ने अपनी मुस्लिम-द्वेषी सोच का मुजाहिरा वक़्फ़ क़ानून के एक अन्य प्रावधान में भी किया है जिसके तहत उन्होंने यह शर्त लगा दी है कि अगर कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति वक़्फ़ के रूप में देना चाहता है तो उसे कम से कम पाँच सालों तक इस्लाम पर आचरण करने वाला होना चाहिए। यह सरकार तय करेगी कि कोई व्यक्ति पाँच सालों से इस्लाम पर आचरण कर रहा है या नहीं। जाहिरा तौर पर इस प्रावधान का इस्तेमाल करके किसी वक़्फ़ सम्पत्ति पर विवाद खड़ा किया जा सकता है। इसका मतलब यह भी है कि अगर कोई व्यक्तिअपना धर्म बदलकर इस्लाम कबूल करता है तो उसे अपनी सम्पत्ति वक़्फ के रूप में देने के लिए पाँच साल तक इन्तज़ार करना पड़ेगा। इस प्रकार इस्लाम धर्म में यक़ीन करने वाले लोगों पर चयनित रूप से बन्दिशें लगायी गयी हैं जिसका मक़सद उनकी धार्मिक स्वतन्त्रता पर फ़ासिस्ट हमला करना है। 

इसी प्रकार वक़्फ़ क़ानून से ‘वक़्फ़ बाय यूज़र’ के प्रावधान को हटाना भी भाजपा की घृणित साम्प्रदायिक फ़ासीवादी रणनीति का हिस्सा है। इस प्रावधान के तहत मस्जिद, इमामबाड़ा या कब्रिस्तान जैसी जगहें लम्बे समय से अपने इस्तेमाल की वजह से वक़्फ़ सम्पत्ति मानी जाती थीं, भले ही उन्हें प्रमाणित करने के लिए कोई दस्तावेज़ न हो। इस प्रावधान के हटने के बाद मुस्लिमों के तमाम धार्मिक स्थलों की वैधता को समाप्त किया जा सकता है और नये-नये विवाद खड़े किये जा सकते हैं। हाल के दिनों में हमने देखा है किस प्रकार संघ परिवार काशी, मथुरा, सम्भल और अजमेर में धर्म स्थानों के गड़े मुर्दे उखाड़ती आयी है। नये वक़्फ़ संशोधनों ने एक प्रकार से फ़ासिस्टों को किसी भी धार्मिक स्थल को विवादित बनाने की ख़ुली छूट दे दी गयी है। मुस्लिम ही नहीं अक्सर हिन्दू व अन्य धर्मों के धार्मिक स्थलों को वैध करार देने के लिए कोई दस्तावेज़ नहीं होता। परन्तु केवल मुसलमानों के धार्मिक स्थलों को वैधता हासिल करने के लिए कागज़ात दिखाने होंगे जो निहायत ही भेदभावपूर्ण है।

वक़्फ़ क़ानून में संशोधन का राजनीतिक सन्दर्भ

वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025 को आनन-फ़ानन में पारित कराना यह दिखाता है कि भाजपा और संघ परिवार अपनी घोर मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी रणनीति को एक नये स्तर पर ले जा रहे हैं। पिछले साल लोकसभा चुनावों में अपनी सीटों में हुई कटौती को देखकर उन्हें इतना समझ आ चुका है कि अगर समाज में लगातार नफ़रत का माहौल नहीं बना रहा तो यह मुमकिन है कि बढ़ती बेरोज़गारी, आसमान छूती मँहगाई और भीषण आर्थिक संकट की वजह से उन्हें सरकारी सत्ता से बाहर जाना पड़े। यही वजह है कि आये दिन नये-नये मुद्दे उछाले जा रहे हैं। कभी किसी मस्ज़िद का विवाद सामने आ जाता है, कभी नमाज़ का मुद्दा गरमा जाता है तो कभी किसी दरगाह का मुद्दा उछल जाता है। ईद, रमजान, होली और रामनवमी जैसे त्योहार भी इन फ़ासिस्टों के लिए अपनी साम्प्रदायिक रोटियाँ सेंकने के मौक़े बन चुके हैं।

जहाँ एक ओर हिन्दुत्व फ़ासिस्टों की गुण्डावाहिनियाँ मुस्लिमों के धार्मिक स्थलों और उनके त्योहारों पर निशाना साधते हुए समाज में लगातार साम्प्रदायिक तनाव का माहौल बना रही हैं, वहीं दूसरी ओर फ़ासिस्ट मोदी सरकार औपचारिक तौर पर उनके अधिकारों को छीनकर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के अपने विचारधारात्मक लक्ष्य पर बेरोकटोक ढंग से आगे बढ़ रही है। इसी के ज़रिये समाज में साम्प्रदायिकीकरण की अपनी जारी साज़िश को भी संघ परिवार आगे बढ़ाने की फ़िराक़ में है। 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा का ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा एक चुटकुला बन गया था और वह 240 सीटों पर सिमट गयी थी। निश्चित तौर पर यह चुनावी नतीजा अपने आप में फ़ासीवादी ख़तरे के कम होने का लक्षण नहीं था। लेकिन भाजपा को निश्चित तौर पर इससे तात्कालिक झटका लगा था। इसके बाद से ही संघ परिवार ने देश में साम्प्रदायिक उन्माद की लहर को नये सिरे से बढ़ाने और व्यापक आबादी के व्यवस्थित साम्प्रदायिकीकरण की तैयारियाँ कर ली थीं। महाकुम्भ से लेकर ईद तक, संभल से अजमेर तक,  छावा जैसी फ़ासीवादी प्रोपगैण्डा फिल्मों की बाढ़ से लेकर सोशल मीडिया पर फ़ेक न्यूज़ की नयी लहर तक, इसी मंसूबे को असलियत में उतारने का हिस्सा है। वक़्फ़ क़ानून में किये गये संशोधन इसी फ़ासिस्ट साज़िश का अगला क़दम है।

धार्मिक धर्मार्थ सम्पत्तियों के प्रति मज़दूर वर्ग का नज़रिया

वक़्फ़ क़ानून में किये जा रहे संशोधनों का विरोध कर रहे तमाम संगठन व बुद्धिजीवी धार्मिक व धर्मार्थ सम्पत्तियों के प्रशासन में राज्य की दख़ल का निरपेक्ष ढंग से विरोध कर रहे हैं और उसे अपने आप में धार्मिक स्वतन्त्रता के ख़िलाफ़ बता रहे हैं। परन्तु मज़दूर वर्ग ऐसी सम्पत्तियों की जाँच-पड़ताल, उनकी निगरानी, उनका पारदर्शी ऑडिट, उनके दस्तावेज़ों का कम्प्यूटरीकरण, उनके मसलों को राजकीय विनियमन के मातहत लाने, ऐसी संस्थाओं की समितियों में सभी धर्मों के लोगों को शामिल किये जाने का अपने आप में विरोध नहीं करता बशर्ते कि ऐसा सभी धर्मों की संस्थाओं में एकसमान रूप से किया जाये। लेकिन इस प्रकार के राजकीय/सरकारी विनियमन के दायरे में अगर सभी धर्मों व उनकी संस्थाओं को नहीं लाया जाता है, तो यह निश्चित ही एक विशिष्ट धर्म व उसके लोगों के अधिकारों पर हमला है, उनके साथ भेदभावपूर्ण हरकत है, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की साज़िश है। एक सही मायने में सेक्युलर राज्य निश्चय ही जनवादी व समानतामूलक तरीक़े से धार्मिक संस्थाओं व उनके मसलों के राजकीय विनिमयन का प्रावधान कर सकता है, लेकिन ऐसा प्रावधान बिना भेदभाव सभी धर्मों पर लागू हो तो ही वह सही मायने में सेक्युलर व जनवादी माना जायेगा। ठीक इसी वजह से भाजपा सरकार द्वारा वक़्फ़ क़ानून में किया गया संशोधन वास्तव में एक जनवादी व सेक्युलर नहीं, बल्कि एक फ़ासीवादी साम्प्रदायिक क़दम है जिसका मक़सद है हमारे देश में लगातार साम्प्रदायिक उन्माद के माहौल को बनाये रखना और साथ ही मुसलमान आबादी को दोयम दर्जे के नागरिकों में तब्दील करना। इसलिए मज़दूर वर्ग को इन संशोधनों का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए। इसके निशाने पर सिर्फ़ मुसलमान अल्पसंख्यक आबादी ही नहीं आयेगी, बल्कि आम तौर पर मेहनतकश व आम मध्यवर्गीय आबादी आयेगी क्योंकि इससे जो साम्प्रदायिकीकरण होगा, उसका ख़ामियाज़ा देश की आम जनता को ही भुगतना पड़ेगा। इसलिए इस फ़ासिस्ट साज़िश के ख़िलाफ़ सभी धर्मों के मेहनतकशों का एकजुट करना आज की ज़रूरत है।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025


 

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