अँधेरा है घना पर संघर्ष है ठना
साम्प्रदायिक फ़ासीवादी दौर में घटता जनवादी स्पेस व बढ़ते छात्र-युवा आन्दोलन

 अविनाश

 

हाथ मिलाओ साथी, देखो

अभी हथेलियों में गर्मी है
पंजों का कस बना हुआ है
पीठ अभी सीधी है,
सिर भी तना हुआ है
अन्धकार तो घना हुआ है
मगर गोलियथ से डेविड का
द्वंद्व अभी भी ठना हुआ है

                 – शशिप्रकाश

 

फ़ासीवादी मोदी सरकार के कार्यकाल में छात्र-युवा आन्दोलनों पर दमन का पाटा लगातार चल रहा है। मगर सड़कों पर बढ़ते इन आन्दोलनों को दबाने की तमाम कोशिशों के बावजूद संघर्ष थम नहीं रहा है। ऐसे में हमें यह समझने की ज़रूरत है कि छात्र-युवा आन्दोलनों पर हो रहा हमला, जनवादी अधिकारों पर हो रहे व्यापक हमले का ही एक अंग है। आम मेहनतकश जनता को भी इन जनवादी अधिकारों पर हो रहे हमलों को समझने और उनके साथ खड़ा होने की आवश्यकता है। आइए सबसे पहले जनवादी अधिकारों और छात्र-युवा आन्दोलन पर हो रहे हमलों के कारणों की पड़ताल करते हैं।

छात्र-युवा आन्दोलन और जनवादी अधिकारों पर हमले के कारण

आज एक ओर जहाँ फ़ासीवादी मोदी सरकार के आने के बाद से निजीकरण और उदारीकरण की नीतियाँ तेज़ गति से लागू की जा रही हैं, वहीं जनता के पैसे से खड़े किए गए पब्लिक सेक्टर के संस्थानों को जानबूझकर बर्बाद करके पूँजीपतियों को बेचा जा रहा है। “नयी शिक्षा नीति” और “अग्निवीर” जैसी योजनाएँ सीधे तौर पर शिक्षा के बाज़ारीकरण और पब्लिक सेक्टर में ठेकाकरण को बढ़ावा दे रही हैं। दूसरी ओर इन नीतियों का प्रभाव आम जनजीवन में भी साफ़ देखा जा सकता है महँगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी और चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था ने जनता की हालत बदतर बना दी है।

मगर इन मुद्दों पर चर्चा कहाँ हो रही है? इन वास्तविक समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार ने नकली दुश्मन खड़ा करते हुए, साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उन्माद भड़काने का काम तेज़ कर दिया है। हर दिन नए नारे और मुद्दे उछाले जा रहे हैं—”लव जिहाद”, “शरबत जिहाद”, “गौ रक्षा”, “औरंगजेब”, प्रोपेगैण्डा फिल्में, संभल-अजमेर व अन्य जगहों पर पुरातत्व विभाग द्वारा निरीक्षण के आदेश, उपासना स्थल अधिनियम, 1991 में बदलाव की कोशिशें, धार्मिक अनुष्ठानों व धर्म संसदों और वक्फ़ बोर्ड के नाम पर समाज में साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करने की कोशिशें लगातार जारी हैं।

ऐसे में जब प्रगतिशील संगठन, न्यायपसन्द छात्र-युवा, बुद्धिजीवी, कलाकार, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता भाजपा के फ़ासीवादी चरित्र की पोल खोल रहे हैं, तब सरकार जनता के सीमित जनवादी अधिकारों और छात्र-युवा आन्दोलनों को कुचलने पर आमादा है। इसका उद्देश्य स्पष्ट है – जनअसन्तोष की आँच भाजपा के सिंहासन को राख कर देने से पहले ही बुझा दी जाये। यही कारण है कि आज सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, प्रगतिशील लेखकों, निष्पक्ष पत्रकारों, जागरूक छात्र-युवाओं और सच्चाई बोलने वाले कलाकारों की आवाज़ों को व्यवस्थित ढंग से दबाया जा रहा है।

सत्ता के इस दमनचक्र में यूएपीए, एनएसए जैसे काले क़ानूनों का इस्तेमाल, फर्जी मुकदमों का सिलसिला और निरन्तर प्रताड़ना के जरिए विरोध की आवाज़ों को कुचला जा रहा है। इन हालात में हमें यह समझना होगा कि छात्र-युवा आन्दोलन पर हमला, फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा जनवादी अधिकारों को कुचलने की व्यापक रणनीति का हिस्सा है। छात्र-युवा आन्दोलन और कैम्पस जनवाद – यानी कैम्पस में विचारों की खुली अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता – सत्ता की गलत नीतियों को चुनौती देने का प्रमुख केन्द्र बने हुए हैं। यही वजह है कि 2014 के बाद से फ़ासीवादी मोदी सरकार लगातार इन आन्दोलनों को कुचलने की कोशिश कर रही है – चाहे वह रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या हो या FTII के छात्रों का संघर्ष, हैदराबाद विश्वविद्यालय का आन्दोलन हो या जेएनयू में देशद्रोह के झूठे मुकदमे, यह सब उसी कड़ी से जाकर ही जुड़ते हैं।

छात्र-युवा आन्दोलन की बढ़ती तीव्रता

छात्र-युवा आन्दोलन में निरन्तरता और तीव्रता में गुणात्मक वृद्धि हुई है। ऐसे में जहाँ एक ओर विश्वविद्यालयों को फ़ासीवाद की प्रयोगशाला बनाने का काम तेज़ी से किया जा रहा है, जिसके तहत लखनऊ विश्वविद्यालय ने फ़रमान में देखने को मिलता है, जिसमें ‘प्रोफ़ेसर ऑफ़ प्रैक्टिस’ के तहत शिक्षकों की नियुक्ति के लिए शैक्षणिक योग्यता की शर्त ही समाप्त कर दिया गया है। इन तथाकथित प्रोफ़ेसरों की नियुक्ति के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं रखी गई है। ज़ाहिर है, यह शैक्षणिक संस्थानों में फ़ासीवादी गुर्गों को शिक्षकों के नाम पर घुसाने का एक षड्यन्त्र है। ठीक इसी तरह, राम मन्दिर के उद्घाटन की बरसी पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में हनुमान चालीसा के पाठ से लेकर तरह-तरह के धार्मिक कार्यक्रम आयोजित कराये जा रहे है। संघ की फ़ासिस्ट गुण्डावाहिनी एबीवीपी के सम्मेलन के लिए गोरखपुर विश्वविद्यालय प्रशासन ने पलकें बिछा दीं गयी, और जिला प्रशासन ने विद्यालयों को आदेश दिया कि वे अपने छात्रों को सम्मेलन में लेकर जायेँ। वहीं दूसरी ओर फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे व्यवस्थित हमलों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध भी देखने को मिला है। ऐसे में अभी हाल ही में हुये छात्र-युवा आन्दोलन हमारे सामने कुछ बेहद ज़रूरी सवाल लेकर सामने लेकर खड़ें हैं।

जामिया छात्र आन्दोलन : दमन के बावजूद संघी साजिशों का ज़बरदस्त प्रतिरोध

15 दिसम्बर 2019 को हुई पुलिस की जघन्य बर्बरता के विरोध में 16 दिसम्बर 2024 को जामिया के छात्र एक बार फिर एकजुट हुए। यह वही तारीख थी जब दिल्ली पुलिस ने परिसर में घुसकर जाकिर हुसैन पुस्तकालय में पढ़ रहे निरीह छात्रों को बेरहमी से पीटा था। इस बार भी प्रदर्शनकारियों पर भयंकर दमन ढाया गया—पुलिस ने छात्रों को जबरन हटाने की कोशिश की, धरना स्थल को खाली करवाया और आन्दोलन को कुचलने की हर सम्भव साजिश रची। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन की सबसे शर्मनाक हरक़त तब सामने आई, जब उसने शताब्दी द्वार (गेट नम्बर 13), लॉ फैकल्टी गेट और अन्य स्थानों पर 17 छात्रों के नाम, पते, कोर्स और व्यक्तिगत विवरण वाली एक सूची सार्वजनिक कर दी। इनमें कई किशोर महिला छात्राएँ भी शामिल थीं, जिनके निजी फोन नम्बर तक लोगों के सामने प्रकाशित कर दिए गए। यह न सिर्फ निजता के अधिकार का गम्भीर उल्लंघन था, बल्कि छात्रों को प्रताड़ित करने और उनकी सुरक्षा को जानबूझकर ख़तरे में डालने का सुनियोजित षड्यन्त्र भी था। मगर इन सारे दमन की कार्यवाही  में कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि जब जामिया के वीसी खुद एबीवीपी के पूर्व सदस्य रहे हैं और सीएए-एनआरसी जैसे विवादास्पद क़ानूनों का खुला समर्थन कर चुके हैं तो आप इनसे क्या ही उम्मीद रख सकते है। फ़ासीवादी मीडिया ने एक बार फिर इस मौक़े का फायदा उठाकर जामिया को बदनाम करने की कोशिश की, और प्रशासन ने उनके साथ मिलीभगत करते हुए छात्रों के ख़िलाफ़ यह घृणित कदम उठाया। लेकिन छात्रों ने हार नहीं मानी! उनके प्रदर्शन ने न सिर्फ संघी साजिशों को बेनकाब किया, बल्कि इस दमनकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ जबरदस्त प्रतिरोध भी खड़ा किया। यह संघर्ष सिर्फ जामिया तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे देश के छात्रों और युवाओं के लिए एक स्पष्ट सन्देश है कि फ़ासीवादी ताकतों के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रहेगी!

हैदराबाद छात्र आन्दोलन : बुर्जुआ पार्टी के सहारे फ़ासीवाद को हराने का भ्रम

एक गहरा भ्रम आज छात्र आन्दोलनों में व्याप्त है—कि मोदी सरकार के फ़ासीवादी रवैये के ख़िलाफ़ किसी बुर्जुआ चुनावी पार्टी या उसके छात्र संगठनों के माध्यम से प्रतिरोध सम्भव है। हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय (HCU) के हालिया संघर्ष ने इस झूठी उम्मीद की पोल खोलकर रख दी है।

एचसीयू के छात्र तेलंगाना सरकार द्वारा विश्वविद्यालय की 400 एकड़ जमीन की नीलामी के ख़िलाफ़ डटे हुए थे। उनकी माँग स्पष्ट थी—कैम्पस की ज़मीन पर छात्रों के अधिकार और स्थानीय जैव विविधता का संरक्षण। लेकिन जब छात्रों ने पूर्वी कैम्पस में ज़मीन साफ़ करने आयी JCB मशीनों को रोकने की कोशिश की, तो तेलंगाना पुलिस ने बर्बरता का नंगा नाच किया—छात्रों को ज़मीन पर घसीटा, लाठियाँ बरसाईं और दर्जनों को हिरासत में ले लिया गया। यह सारा काम कांग्रेस शासित राज्य में हुआ है और ख़ास तौर से इस पूरे प्रकरण में कांग्रेस की छात्र शाखा एनएसयूआयी की सुनियोजित चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है। साथ ही, यह उन तमाम तथाकथित ‘प्रगतिशील’ छात्र संगठनों की वास्तविक प्रकृति को भी उजागर करता है, जो खुद को स्वतन्त्र बताने का दावा ठोकते रहते हैं। क्या इसी कांग्रेस सरकार के सहारे फ़ासीवाद को हराने की योजना बनाई जा रही है?

जादवपुर विश्वविद्यालय: छात्रों का संघर्ष और टीएमसी सरकार का दमनचक्र

1 मार्च 2025 को जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने पश्चिम बंगाल के शिक्षा मन्त्री ब्रत्य बसु के सामने एक स्पष्ट सवाल रखा—आखिर परिसर में छात्र संघ चुनाव कराने की उनकी न्यायसंगत और लोकतान्त्रिक माँग को लगातार अनसुना क्यों किया जा रहा है? लेकिन जवाब में मन्त्री महोदय ने मौक़े से भागने को ही उचित समझा। और इस भागदौड़ में उनके क़ाफिले की एक गाड़ी ने एक छात्र को गम्भीर रूप से घायल कर दिया। यह घटना इसलिए भी चौंकाने वाली है क्योंकि जादवपुर विश्वविद्यालय में पिछले पाँच साल से कोई छात्रसंघ चुनाव नहीं हुआ है। यह साफ़ दिखाता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन किसके इशारों पर नाच रहा है। जादवपुर पुलिस ने भी सत्तारूढ़ दल के प्रति अपनी निष्ठा का परिचय देते हुए छात्रों के थाने पर धरना देने के बाद ही एफआईआर दर्ज की। हैरानी की बात यह है कि यह एक शान्तिपूर्ण प्रदर्शन था, जिसमें साधारण छात्र शामिल थे। लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें डराने के लिए भारी पुलिस बल और अर्धसैनिक दंगा नियन्त्रण टुकड़ियों को तैनात कर दिया। फिर भी, छात्रों ने हार नहीं मानी और एफआईआर दर्ज करवाकर ही दम लिया। यह कोई अकेली घटना नहीं है। टीएमसी का यह दमनकारी चरित्र पहले भी देखा गया है—2017 में जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों में हिंसा भड़काने से लेकर 2022 में कल्याणी विश्वविद्यालय के छात्र आन्दोलन को बर्बरता से कुचलने तक। ऐसे में जो लिबरल लोकसभा चुनाव में बंगाल में टीएमसी की जीत पर कुलाचे मार रहे थे , वो अक्सर टीएमसी के इन क्रूर फ़ासीवादी चरित्र पर आँखें मूँद कर बैठ जाते है।

केआईआईटी में छात्र आन्दोलन: नस्लवाद, पितृसत्ता और प्रशासनिक उदासीनता

कलिंगा इन्स्टीट्यूट ऑफ़ इण्डस्ट्रियल टेक्नोलॉजी (KIIT), भुवनेश्वर के प्रशासन पर नस्लवादी, पितृसत्तात्मक और उदासीन रवैया अपनाने का आरोप लगा है। यह मामला संस्थान में पढ़ रही एक नेपाली छात्रा, प्रकृति लामसाल, की कथित आत्महत्या और प्रशासन के असंवेदनशील व्यवहार से जुड़ा है। प्रकृति, बी.टेक तृतीय वर्ष की छात्रा थी, जो 16 फरवरी को अपने छात्रावास के कमरे में मृत पाई गई। जाँच में पता चला कि उसी संस्थान के 21 वर्षीय मैकेनिकल इंजीनियरिंग छात्र, अद्विक श्रीवास्तव, ने उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया था। चिन्ताजनक बात यह है कि प्रकृति ने पहले ही केआईआईटी के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध कार्यालय में अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार की शिकायत दर्ज कराई थी, लेकिन प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की। यदि प्रशासन ने समय रहते जिम्मेदारी से काम लिया होता, तो शायद यह त्रासदी टाली जा सकती थी। हालाँकि पुलिस ने आत्महत्या केस दर्ज कर मुख्य आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन मौत के आसपास की परिस्थितियाँ और प्रशासन की प्रतिक्रिया गम्भीर सवाल खड़े करती हैं। प्रकृति की मृत्यु के बाद, केआईआईटी के नेपाली छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया और निष्पक्ष जाँच तथा जवाबदेही की माँग की। छात्रों ने आरोप लगाया कि प्रशासन ने प्रकृति की गुहार को नज़रअन्दाज़ किया। विरोध के जवाब में, प्रशासन ने नस्लवादी टिप्पणियाँ और धमकियाँ दीं। एक वायरल वीडियो में एक वरिष्ठ अधिकारी कहता सुनाई देता है: “इस विश्वविद्यालय के संस्थापक का अपमान न करें। वह 40,000 छात्रों को मुफ्त भोजन देते हैं। यह रक़म आपके देश के पूरे बजट से भी अधिक होगी।”

प्रशासन की प्रतिक्रिया केवल मौखिक दुर्व्यवहार तक सीमित नहीं रहा। केआईआईटी में पढ़ रहे लगभग 1,000 नेपाली छात्रों में से सैकड़ों को जबरन परिसर से निकाल दिया गया। वीडियो सामने आए हैं, जिनमें छात्रों को बसों में भरकर कटक रेलवे स्टेशन छोड़ दिया गया। कई के पास वापसी का टिकट या पैसा तक नहीं था। समाज में फैले नस्लवाद, जातिवाद और अन्य पूर्वाग्रहों से विश्वविद्यालय भी अछूता नहीं है—जबकि इसे तथाकथित ‘पढ़ी-लिखी’ आबादी का केन्द्र माना जाता है। हमारी व्यापक एकता का निर्माण इन सवालों को नज़रअन्दाज़ करके नहीं किया जा सकता।

प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में धाँधली को लेकर छात्र आन्दोलन

बिहार के पटना में BPSC परीक्षा की तैयारी कर रहे सोनू नाम के एक छात्र ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह  BPSC परीक्षा में धाँधली की ख़बरों के बाद से ही वह काफ़ी परेशान था और अन्ततः उसने यह कदम उठाया। ग़ौरतलब है कि आत्महत्या के कुछ दिन पहले ही BPSC परीक्षा में सामान्यीकरण (Normalization) की प्रक्रिया के ख़िलाफ़ छात्रों ने बड़े पैमाने पर सड़कों पर प्रदर्शन किया था। प्रशासन ने लाठी-डण्डों के ज़रिए आन्दोलन को कुचलने की कोशिश की, लेकिन छात्रों के संघर्ष के आगे सरकार को झुकना पड़ा और उनकी माँगें मान ली गयी थी। हालाँकि, परीक्षा के बाद पटना के बापू परीक्षा केन्द्र पर छात्रों ने पेपर लीक होने का आरोप लगाया। छात्रों के भारी विरोध के बाद बिहार लोक सेवा आयोग ने इस केन्द्र पर 12 हज़ार अभ्यर्थियों के लिए परीक्षा दोबारा कराने का आदेश दिया। लेकिन छात्रों का कहना है कि यह सीधा भेदभाव है—अगर पेपर लीक हुआ है तो पूरी परीक्षा ही रद्द करके नए सिरे से आयोजित की जानी चाहिए। सरकार और लोक सेवा आयोग इस माँग को मानने को तैयार नहीं था, जिसके चलते छात्र एक बार फिर सड़कों पर उतर आए हैं। बिहार की जदयू-भाजपा सरकार ने छात्रों के इस शान्तिपूर्ण आन्दोलन को बर्बरता से दबाने का ही काम किया।

ऐसे में यह समझने की ज़रुरत है कि स्पर्धा परीक्षाओं में अनियमितताओं और धाँधली को लेकर छात्रों का गुस्सा लगातार सड़कों पर फूट रहा है। NEET, BPSC, RO/ARO जैसी परीक्षाओं में गड़बड़ियों के ख़िलाफ़ देशभर में प्रदर्शन हुए हैं, और लगभग हर स्पर्धा परीक्षा में धाँधली की ख़बरें सामने आ रही हैं। देशभर के युवा स्वतःस्फूर्त ढंग से इन आन्दोलनों से जुड़ रहे हैं, लेकिन अभी तक यह विरोध बिखरी हुई तात्कालिक माँगों तक ही सीमित रहा है। इसे एक संगठित, दूरगामी और व्यापक आन्दोलन का रूप देने में अभी सफलता नहीं मिली है।

निष्कर्ष : संघर्ष का रास्ता

निश्चित तौर पर छात्र-युवा आन्दोलन भी अपनी कमियों और खामियों से अछूता नहीं है। मगर आज छात्रों को विराजनीतिकरण के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए कैम्पस से बाहर भी निकलना होगा और आम मेहनतकश जनता के साथ मिलकर जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी होगी। साथ ही, आम मेहनतकश जनता को भी जनवादी अधिकारों पर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा, जिसमें छात्र- युवा आन्दोलन के सही माँगो के साथ खड़ा होना भी शामिल है।

आज दुनिया भर में जनता की फौलादी एकजुटता जिसमें छात्र-युवा और आम मेहनतकश जनता शामिल है—श्रीलंका से लेकर बांग्लादेश और बेलग्रेड की सड़कों तक, फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष से जुड़े दुनियाभर के प्रदर्शनों तक—अपना लोहा मनवा रही है। फिर क्या हम इस संघर्ष में पीछे रहेंगे?

 

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025


 

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