मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? 
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (बारहवीं क़िस्त)

शिवानी

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इस शृंखला में हमने अब तक मज़दूर आन्दोलन के भीतर मौजूद अर्थवाद की प्रवृत्ति के विषय में अपने विचार रखे। मुख्य तौर पर हमने इस प्रश्न पर मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन के विचारों को ही प्रस्तुत करने का काम किया है। दरअसल अर्थवाद के विरुद्ध समझौताविहीन संघर्ष चलाने का श्रेय सबसे अधिक लेनिन को ही जाता है जिन्होंने रूसी अर्थवादियों के खिलाफ़ इस विचारधारात्मक संघर्ष के दौरान ही क्रान्तिकारी पार्टी की अवधारणा को भी सुपरिभाषित और व्याख्यायित किया। पार्टी की यह लेनिनवादी अवधारणा आज भी दुनिया भर के कम्युनिस्टों के लिए मार्गदर्शन का काम करती है। इसके साथ ही लेनिन के विचार अर्थवाद की ख़तरनाक प्रवृत्ति के विरुद्ध हमें सचेतन तौर पर निर्मम संघर्ष चलाने के लिए आज भी प्रेरित करते हैं।

लेनिन अर्थवादी प्रवृत्ति के दुष्परिणामों को रूस के मज़दूर आन्दोलन में प्रकट होते हुए देख रहे थे और समझ रहे थे कि रूस के क्रान्तिकारी आन्दोलन के समक्ष यह न सिर्फ़ एक बहुत बड़ी चुनौती है बल्कि यह रूस के क्रान्तिकारी आन्दोलन के पिछड़ेपन के सबसे अहम कारणों में से एक कारण भी है। यही नहीं, लेनिन का स्पष्ट तौर पर मानना था कि अर्थवाद दरअसल मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ विचारधारा और राजनीति की ही नुमाइन्दगी करता है और क्रान्तिकारी सर्वहारा विचारधारा के विरुद्ध खड़ा है।

पिछली किश्त में हमने एक अखिल-रूसी मज़दूर अख़बार की अपरिहार्य आवश्यकता पर लेनिन के विचार प्रस्तुत किए थे। अपनी रचना क्या करें?’ में लेनिन दो उपमाओं का प्रयोग करके क्रान्तिकारी सर्वहारा आन्दोलन को संगठित करने के लिए और एक अखिल-रूसी केन्द्रीकृत पार्टी के निर्माण के लिए एक ऐसे अख़बार की ज़रूरत पर ज़ोर देते हैं। लेनिन इस विषय पर अपने विचार रखते हुए बताते हैं कि एक ऐसा अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार वह मुख्य सूत्र होना चाहिए जिसके सहारे क्रान्तिकारी संगठन को विकसित किया जा सकता है।  इसी संदर्भ मे लेनिन राजगीरों द्वारा ईंटें बिछाते वक़्त इस्तेमाल की गयी डोरी का उदाहरण देते हैं, जिस डोरी की मदद से बिछायी गयी ईंटें एक साथ जुड़कर एक पूर्ण और सबको साथ मिलाकर चलनेवाली रेखा बन जाते हैं। इसके साथ ही लेनिन इस ज़रूरी बात को दुहराते हैं कि अख़बार केवल सामूहिक प्रचारक और सामूहिक उद्वेलक का, बल्कि सामूहिक संगठनकर्ता का भी काम करता है। इस दृष्टि से उसकी तुलना एक निर्माणाधीन इमारत के इर्द-गिर्द बाँधे गये पाड़ (स्कैफ़ोल्डिंग) से की जा सकती है जिसके बग़ैर क्रान्तिकारी संगठन की इमारत बनाने की बात वर्तमान समय में सोची भी नहीं जा सकती।

लेनिन वास्तव में इस चर्चा के दौरान सांगठनिक मामलों मे भी अर्थवादियों की संकीर्णता और नौसिखुएपन तथा गतिविधियों के दायरे में उनके संकुचित दृष्टिकोण और व्यवहार को उजागर कर रहे थे। साथ ही, अर्थवादियों के स्थानीयतावाद को भी लेनिन यहाँ बेनक़ाब कर रहे थे जो केन्द्रीय व अखिल-रूसी कामों के बरक्स स्थानीय कामों की ज़रूरत को ग़ैर-द्वन्द्वात्मक तरीक़े से बार-बार आगे करते थे और इसी कारण से एक अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार की आवश्यकता को नज़रअन्दाज़ करते थे। अर्थवाद ट्रेड यूनियनवादी राजनीति को ही चूँकि मज़दूर वर्ग की क्रियाशीलता का फ़लक समझता है, इसलिए वह समस्त क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए बेहद संकीर्ण उद्देश्य निर्धारित करता है और स्थानीय कामों को ही समस्त कार्यवाई के क्षितिज के तौर पर देखता है। यही कारण है कि वस्तुगत तौर पर क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी की भूमिका अर्थवादियों के लिए कोई विशेष अहमियत नहीं रखती है।

लेनिन बताते हैं कि अर्थवादी चूँकि सचेतनता की जगह स्वतःस्फूर्तता के पूजक होते हैं, यही वजह है कि वे सांगठनिक मामलों में भी सचेतन प्रयासों की अनदेखी करते हैं और लगातार कामों के दायरे को संकुचित बनाते जाते हैं। चूँकि अर्थवादी ट्रेड यूनियन कार्यवाइयों को ही सबसे ज़रूरी काम मानते हैं, इसलिए कामों का दायरा उनके लिए संकुचित होना लाज़मी है। लेनिन बताते हैं कि अर्थवादियों ने जिन कामों को अपने लिए चिन्हित किया है, मसलन स्थानीय अख़बार का प्रकाशन, प्रदर्शनों की तैयारियाँ और बेरोज़गारों के बीच काम, ये सभी कार्य वास्तविक अर्थों में अर्थवादियों की संकीर्णता को ही दिखलाते हैं। कामों के प्रति यह संकुचित दृष्टिकोण और साथ ही गतिविधियों का संकुचित दायरा और अधिक गम्भीर रूप तब ले लेता है जब स्थानीय संगठनों में ही बन्द रहने वाले कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के अभाव के कारण उनके दृष्टिकोण और गतिविधि का संकुचित रहना आवश्यभावी बन जाता है। इस स्थानीयतावाद ने पलटकर अर्थवाद और नौसिखुएपन की प्रवृत्ति को और बढ़ावा दिया था। लेनिन लिखते हैं:

जिस चीज़ की हमें सबसे अधिक, सबसे पहले और तत्काल आवश्यकता है, वह यह है कि हम काम के दायरे को फैलायें, और नियमित और साझा काम के आधार पर विभिन्न शहरों के बीच वास्तविक सम्पर्क क़ायम करें, क्योंकि बिखराव हमारे लोगों के गले में चक्की के पाट की तरह लटका हुआ है, जो (इस्क्रा के एक संवाददाता के शब्दों में) “गड्ढे में फँस गये हैं”, उन्हें पता नहीं है कि दुनिया में क्या हो रहा है, कि उन्हें किससे सीखना है और यह कि अनुभव संचय करने और व्यापक ढंग से कार्य करने की अपनी इच्छा को पूरा करने का क्या तरीक़ा है। मैं फिर ज़ोर देकर कहता हूँ कि वास्तविक सम्पर्क क़ायम करना केवल एक साझा अख़बार के द्वारा ही शुरू किया जा सकता है, क्योंकि वही एक ऐसा नियमित अखिल-रूसी उद्यम हो सकता है, जो विविध प्रकार के कार्यों के परिणामों का सारतत्व निकालकर उसे सबके सामने पेश करेगा और इस तरह जनता को उन तमाम अनगिनत राहों पर अथक गति से चलने के लिए प्रेरित करेगा, जो सबकी सब उसी तरह क्रान्ति की ओर ले जाती हैं, जैसे तमाम सड़कें रोम को जाती हैं। यदि हम केवल नाम के लिए एकता नहीं चाहते, तो हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे प्रत्येक स्थानीय अध्ययन मण्डल तुरन्त अपनी, मान लीजिये, चौथाई शक्तियों को साझा उद्देश्य में सक्रिय रूप से लगाने के लिए अलग कर दे और तब अख़बार तुरन्त ही इस कार्यभार की आम रूप-रेखा, उसका दायरा और स्वरूप उसके सामने पेश करने लगेगा, उसे सटीक तौर पर बतायेगा कि अखिल-रूसी कार्य मे सबसे ज़्यादा कौन-सी खामियाँ महसूस की जा रही हैं, उद्वेलन में कहाँ कमी है, सम्पर्क कहाँ कमज़ोर हैं और इस विशालकाय आम मशीन में कहाँ और कौन-से पहिये ऐसे हैं, जिनकी वह अध्ययन मण्डल मरम्मत कर सकता है या जिनकी जगह बेहतर पुरज़े लगा सकता है। तब कोई ऐसा अध्ययन मण्डल, जिसने अभी काम शुरू नहीं किया है, लेकिन जो काम की तलाश कर रहा है, तब वह, एक अलग छोटे-से कारखाने में काम करनेवाले उस कारीगर की तरह नहीं, जिसे इसका कोई इल्म नहीं है कि उससे पहले “उद्योग” का कितना विकास हो चुका है या उद्योग में प्रचलित उत्पादन के तरीक़ों का आम स्तर क्या है, बल्कि वह एक ऐसे विशाल व्यवसाय के एक साझीदार की तरह काम शुरू कर सकता है, जो निरंकुश शासन के खिलाफ़ सम्पूर्ण आम क्रान्तिकारी आक्रमण का सूचक होगा। इस विशाल यन्त्र का प्रत्येक पुरज़ा जितना ही निर्विकार होगा, साझा उद्देश्य के लिए छोटे-छोटे अनेक काम करनेवालों की संख्या जितनी ही बड़ी होगी, उतना ही हमारा जाल – हमारा संगठन – अधिक सुगठित होता जायेगा और तब पुलिस के अवश्यम्भावी छापों से हमारी पाँतों मे उतनी ही कम अव्यवस्था और निराशा फैलेगी।” (ज़ोर हमारा)

लेनिन स्पष्ट करते हैं कि इस अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार के वितरण के दौरान ही वास्तविक सम्पर्क क़ायम होने लगेंगे। साथ ही, अलग-अलग शहरों के बीच भी संचार एक नियम बन जायेगा, जोकि अभी अपवादस्वरूप ही होता है और इसके ज़रिये न सिर्फ़ अख़बार का वितरण होगा बल्कि अनुभव, सामग्री, शक्तियों और संसाधनों का आदान-प्रदान भी सम्भव हो सकेगा। सांगठानिक काम का दायरा पहले से कहीं ज़्यादा विस्तार प्राप्त कर लेगा और एक जगह मिली सफलता और अधिक पूर्णता और दक्षता प्राप्त करने की प्रेरणा बन जायेगी और देश के अन्य भागों में काम करने वाले साथियों के अनुभव का उपयोग करने की इच्छा को जागृत करेगी। लेनिन के अनुसार ऐसी स्थिति में स्थानीय काम आज से कहीं अधिक समृद्ध और वैविध्यपूर्ण बन जायेगा। पूरे रूस से इक्कट्ठी की गयी राजनीतिक और आर्थिक भण्डाफोड़ की सामग्री मज़दूरों को बौद्धिक ख़ुराक मुहैया करायेगी। लेनिन बताते हैं कि अख़बार में प्रकाशित सामग्री विविध विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत करेगी। इसके अलावा हर प्रदर्शन और हर विस्फोट के सभी पहलुओं पर विचार-विमर्श भी प्रस्तुत किया जायेगा। कुलमिलाकर कहा जाये तो सभी गतिविधियों मे सचेतनता का तत्व बढ़ता जायेगा और स्वतःस्फूर्तता का तत्व कम होता जायेगा। लेनिन निष्कर्ष के तौर पर लिखते हैं:

“यदि हम सचमुच ऐसी हालत पैदा करने में सफल हो जायें, जिसमें सभी, या कम से कम अधिकतर स्थानीय समितियाँ, स्थानीय दल और अध्ययन मण्डल सामान्य उद्देश्य के लिए सक्रिय काम करने लगें, तो हम निकट भविष्य में ही एक ऐसा साप्ताहिक अख़बार प्रकाशित कर सकेंगे, जिसकी दसियों हज़ार प्रतियाँ रूस भर में नियमित रूप से वितरित हुआ करेंगी। यह अख़बार एक ऐसी बड़ी धौंकनी का हिस्सा बन जायेगा, जो वर्ग संघर्ष और जन आक्रोश की प्रत्येक चिंगारी को सुलगाकर धधकती हुई आग में बदल देगी। एक ऐसी चीज़ के इर्द-गिर्द, जो अभी फ़िलहाल अपने आप में अहानिकर और बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन जो एक नियमित और अपने सम्पूर्ण अर्थ में साझा प्रयास है, परखे हुए योद्धाओं की एक स्थायी सेना नियमबद्ध तरीक़े से जमा होती जायेगी और लड़ने का प्रशिक्षण प्राप्त करती जायेगी। इस आम सांगठनिक ढाँचे की सीढ़ियों और पाड़ के सहारे शीघ्र ही हमारे क्रान्तिकारियों में से सामाजिक-जनवादी ज़ेल्याबोव जैसे और हमारे मज़दूरों में से रूसी बेबेल जैसे लोग पैदा होने और सामने आने लगेंगे, वे पूरी जत्थेबन्द सेना का नेतृत्व अपने हाथों मे सँभाल लेंगे तथा रूस के कलंक और अभिशाप से हिसाब चुकाने के लिए देश की समस्त जनता को जगायेंगे।

“इसी का हमें स्वप्न देखना चाहिए!” (ज़ोर हमारा)

लेनिन द्वारा एक अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार की ज़रूरत पर ज़ोर देना अर्थवादियों के साथ विचारधारात्मक संघर्ष में एक बेहद अहम बिन्दु था। यह अर्थवादियों के राजनीतिक गतिविधियों के मामले में संकीर्ण दृष्टिकोण पर क्रान्तिकारी प्रहार था। अर्थवादी किसी भी अखिल-रूसी उपक्रम या उद्देश्य की वांछनीयता को सिरे से ख़ारिज करते थे और मज़दूर वर्ग एक व्यापक राजनीतिक नज़रिया विकसित कर सके, इस कार्यभार में हर सम्भव रुकावट पैदा करने का प्रयास अपने अर्थवादी विचारों के प्रदूषण के द्वारा करते थे। अर्थवादी अखिल-रूसी अख़बार की इस्क्रावादी परियोजना को “कुर्सीतोड़ों के विचारों का प्रचार करने और कुर्सीतोड़ों की कार्यवाई” की संज्ञा देते थे। लेनिन इस अर्थवादी “समझदारी” का अपनी रचना क्या करें?’ में खूब मखौल उड़ाते हैं:

“यह भी सचमुच कैसा कल्पनातीत गड़बड़-घोटाला है : एक तरफ़ तो उत्तेजनात्मक आतंकवादी कार्य तथा “औसत मजदूरों के संगठन” के साथ-साथ यह राय कि स्थानीय अख़बार जैसी “थोड़ी और ठोस” चीज़ के गिर्द लोगों को जमा करना कहीं “ज़्यादा आसान” है और दूसरी तरफ़, यह ख़्याल कि “इस वक़्त” एक अखिल-रूसी संगठन की बात करना कुर्सीतोड़ों के विचारों का प्रचार करना है, या स्पष्ट और दो-टूक शब्दों में “इस वक़्त” इस काम के लिए बहुत देरी हो गयी है! लेकिन फिर “स्थानीय अखबारों के व्यापक संगठन” का क्या होगा, प्रिय नदेज़्दिन महाशय (ल. नदेज़्दिन अपने प्रारम्भिक जीवन में नरोदवादी थे, बाद मे वह सामाजिक-जनवादी बने; हालाँकि अपने लेखन मे इन्होंने अर्थवादियों का समर्थन किया और साथ ही आतंकवाद को जनता को जागृत करने का एक प्रभावी साधन बताया; लेनिन के नेतृत्व में निकालने वाले इस्क्रा का विरोध किया – लेखिका) क्या उसके लिए बहुत देरी नहीं हो गयी है? और इस दृष्टिकोण के साथ इस्क्रा के दृष्टिकोण तथा कार्यनीति की तुलना कीजिये: उत्तेजनात्मक आतंकवादी कार्य की बात बकवास है, औसत मज़दूरों का संगठन बनाने और स्थानीय अखबारों के व्यापक संगठन की बात करने का मतलब अर्थवाद के लिए एकदम दरवाज़ा खोल देना हैं। हमें क्रान्तिकारियों के एक ही अखिल-रूसी संगठन की बात करनी चाहिए और जब तक वह सच्ची चढ़ाई – कागज़ी चढ़ाई नहीं – शुरू नहीं हो जाती, तब तक उसकी बात करना कभी बहुत देर की चीज़ नहीं होगा।” (ज़ोर हमारा)  

लेनिन दुहराते हैं कि यह वास्तव में अर्थवादियों की स्वतःस्फूर्तता की पूजा करने की प्रवृत्ति ही है जो उन्हें हर सचेतन तौर पर व्यवस्थित और संगठित काम करने से रोकती है। अर्थवादियों का तर्क होता है कि ऐसा करके वे जनता के स्वतःस्फूर्त उभार से कट जायेंगे, जनता से अलग-थलग पड़ जायेंगे। जबकि वास्तविक बात यह है कि केवल चौतरफ़ा और सर्वांगीण राजनीतिक प्रचार, उद्वेलन और भण्डाफोड़ ही “जनता की तात्विक विनाशकारी शक्ति और क्रान्तिकारियों के संगठन की सचेतन विनाशकारी शक्ति को एक-दूसरे के क़रीब लाता है और उन्हे मिलाकर एक कर देता है।”

दरअसल अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार का लेनिनवादी विचार क्रान्तिकारी पार्टी की अवधारण से सीधे तौर पर जुड़ता है, जैसा कि हमने अपनी अब तक की चर्चा में देखा भी। लेनिन के लिए पार्टी निर्माण का कार्यभार और एक अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार की योजना वह साझा व सामान्य उद्देश्य और लक्ष्य था, जिससे रूस में क्रान्तिकारी कामों में व्याप्त बिखराव को दूर किया जा सकता था और क्रान्तिकारी गतिविधियों को स्वतःस्फूर्तता के क्षेत्र से बाहर ले जाकर सचेतनता के क्षेत्र में दाखिल कराया जा सकता था। यही वजह है कि अर्थवाद की प्रवृत्ति को लेनिन मज़दूर आन्दोलन में एक विजातीय और ख़तरनाक प्रवृत्ति के तौर पर देखते थे क्योंकि वह ठीक यही काम होने में बाधा उत्पन्न करता था। लेनिन, एक अखिल-रूसी अख़बार के इर्द-गिर्द निर्मित संगठन की योजना पर अमल करने के कई सारे कारण हैं और जो आख़िरी कारण है, उसे इस प्रकार रेखांकित करते हैं:

“इस प्रकार हम अब उस अन्तिम कारण पर आ जाते हैं, जो हमें एक साझा अख़बार के लिए मिलजुलकर काम करने के आधार पर, एक अखिल-रूसी अख़बार के गिर्द संगठन की योजना पर इतना ज़ोर देने के लिए विवश कर रहा है। केवल एक ऐसा संगठन ही उस लचीलेपन की गारण्टी कर सकता है, जिसका एक जुझारू सामाजिक-जनवादी संगठन में होना आवश्यक है, अर्थात यह योग्यता कि संघर्ष तेज़ी से बदलती हुई विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों के अनुरूप वह तेज़ी से अपने को बदलता जाये, कि “एक ओर तो जब किसी दुश्मन की ताक़त अपने से ज़्यादा हो और जब उसने अपनी सारी शक्ति एक स्थान पर लगा रखी हो, तब वह खुली लड़ाई से बच जाये, और दूसरी ओर, वह इस दुश्मन के ढीलेपन से फ़ायदा उठा सके और उस पर ऐसे समय और ऐसे स्थान पर हमला करे, जब और जहाँ दुश्मन को उसकी सबसे कम आशंका हो।” यह सचमुच एक बड़ी ग़लती होगी, यदि हम केवल विस्फोटों और सड़कों पर फूट पड़नेवाले संघर्षों की आशा से, या केवल “नीरस दैनिक संघर्ष की प्रगति” के आधार पर अपना पार्टी संगठन खड़ा करेंगे। हमें तो अपना रोज़मर्रा का काम हमेशा चलाते जाना है और सदा हर बात के लिए तैयार रहना है, क्योंकि बहुधा यह बताना असम्भव होता है कि विस्फोटों का काल कब समाप्त होगा और कब उसकी जगह शान्ति का काल आरम्भ होगा। और ख़ुद क्रान्ति को भी एक कार्य या घटना हरगिज़ नहीं समझना चाहिए (जैसा कि नदेज़्दिन जैसे लोग सम्भवतः समझते हैं); वह तो एक ऐसा क्रम होता है, जिसमें कमोबेश ज़ोरदार विस्फोट और कमोबेश पूर्ण शान्ति के काल बारी-बारी से बहुत जल्दी-जल्दी आते रहते हैं। इस कारण हमारे पार्टी संगठन की गतिविधियों का प्रधान तत्व, इस गतिविधि का प्रधान केन्द्र एक ऐसा काम होना चाहिए, जो ज़्यादा ज़ोरदार विस्फोट के काल में भी सम्भव तथा आवश्यक हो और पूर्ण शान्ति के काल में भी, अर्थात उसे राजनीतिक उद्वेलन का ऐसा काम होना चाहिए, जो सारे रूस में फैला हो, जो जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाले और जो जनता के अधिक से अधिक व्यापक हिस्सों के बीच हो। लेकिन आज के रूस में एक काफ़ी जल्दी-जल्दी निकालने वाले अखिल-रूसी अख़बार के अभाव में ऐसे काम की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस अख़बार के चारों ओर जो संगठन अपने आप खड़ा होगा, उसके सहयोगियों का (यहाँ इस शब्द का हम उसके अधिक व्यापक अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं, अर्थात अख़बार के लिए काम करनेवाले सभी लोगों का) जो संगठन बनेगा वह क्रान्तिकारी काम की घोर “मन्दी” के काल में पार्टी के सम्मान, प्रतिष्ठा और निरन्तरता की रक्षा करने से लेकर देशव्यापी सशस्त्र विद्रोह की तैयारी करने, उसका समय निश्चित करने और उसे सफल बनाने तक हर चीज़ के लिए तैयार रहेगा।” (ज़ोर हमारा)

हम देख सकते हैं की एक देशव्यापी राजनीतिक अख़बार की लेनिनवादी अवधारणा कोई शुद्ध “कुर्सीतोड़” सिद्धान्त या हवाई बात नहीं थी बल्कि सीधे-सीधे कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण से जुड़ा हुआ प्रश्न था। अर्थवादियों की दिक़्क़त ही यही होती है कि अपनी राजनीतिक अंधता और सांगठनिक संकीर्णता  के चलते उन्हे ये सारी बातें “जनता से काट देनेवाली” दिखलायी पड़ती हैं। जबकि जनता से सबसे घनिष्ठ रूप में सम्पर्क स्थापित करने के लिए क्रान्तिकारियों का यह कार्यभार है कि वे न सिर्फ़ शुद्ध आर्थिक संघर्षों से आगे बढ़ें और राजनीतिक प्रचार, उद्वेलन और भण्डाफोड़ की अनवरत कार्यवाई को बिना रुके बिना थके निरन्तरतापूर्वक चलायें बल्कि इसी प्रक्रिया में जनता से सीखते हुए उसे राजनीतिक तौर पर शिक्षित-प्रशिक्षित भी करें। इसलिए आज भारत के क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं और साथ ही आम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए अर्थवाद के खिलाफ़ लेनिन के नेतृत्व मे चले इस विचारधारात्मक संघर्ष का इतिहास जानना बेहद आवश्यक है ताकि आज भी आन्दोलन में मौजूद इस हानिकारक प्रवृत्ति के विरुद्ध वैचारिक और व्यावहारिक जंग छेड़ी जा सके। 

अगले अंक में हम अब तक की इस पूरी चर्चा का एक समाहार प्रस्तुत करेंगे और अर्थवाद पर इस कड़ी को विराम देंगे। इसके बाद ही हम मज़दूर आन्दोलन में व्याप्त एक नयी विजातीय प्रवृत्ति पर अपनी बातचीत शुरू करेंगे।       

             

 

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025


 

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