इलाहाबाद के करछना में जातिवादी गुण्डों का नंगा नाच, ज़िम्मेदार कौन?
अविनाश
फ़ासीवादी भाजपा का शासन दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और आम मेहनतकश आबादी के लिए किसी नरक से कम नहीं है। निश्चित तौर पर, इसमें सबसे बुरी हालत आज मुसलमान आबादी की है क्योंकि संघी फ़ासीवादियों ने पूँजीवादी व्यवस्था के सारे कुकर्मों और देश की सारी समस्याओं के लिए इसी आबादी को बाकी आबादी के सामने एक नक़ली दुश्मन के तौर पर पेश करने के लिए चुना है, ताकि पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे से बाहर किया जा सके। लेकिन दलित मेहनतकश आबादी की स्थिति भी पहले से कहीं ज़्यादा भयंकर होती जा रही है, जो फ़ासीवादी शासन के जातिवादी श्रेष्ठतावादी और कट्टरपन्थी चरित्र को दिखलाती है।
हालिया दलित विरोधी घटनाओं ने यह साबित कर दिया है कि उत्तर प्रदेश ना केवल हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की प्रयोगशाला बनता जा रहा है बल्कि दलित उत्पीड़न और फ़ासीवाद पोषित ब्राह्मणवादी ताकतों के गुण्डागर्दी का नया केन्द्र भी बनता जा रहा है। इलाहाबाद शहर से सटे करछना इलाके में जातिवादी गुण्डों ने मानवता को शर्मसार करने वाले कुकृत्य को अंजाम दिया है। करछना थाना क्षेत्र के इटौरा गाँव में रहने वाले 35 वर्षीय दलित मज़दूर युवक देवीशंकर को जातिवादी गुण्डों ने गेहूँ के बोझ के साथ केवल इसलिए ज़िन्दा जलाकर मार डाला क्योंकि इस युवक ने गेहूँ का बोझ ढोने से मना कर दिया था। परिजनों का आरोप है कि दिलीप सिंह और उसके कुछ दोस्तों ने शंकर को गेहूँ की ढुलाई का काम दिलाने के बहाने बुलाया जहाँ शंकर द्वारा काम करने से मना करने पर गुण्डों ने उसे जलाकर मार डाला। यह निर्मम घटना उत्तर प्रदेश की डबल इंजन सरकार में जंगलराज और ब्राह्मणवादी गुण्डागर्दी का जीता जागता सबूत है। इलाहाबाद वही शहर है जहाँ कुछ दिनों पहले लगे कुम्भ में योगी-मोदी समेत तमाम भाजपाई और संघी “विश्वबन्धुत्व”, “वसुधैव कुटुम्बकम”, “प्रयागराज की दैवीयता”, “संगम की अलौकिकता” और “हिन्दू एकता” का राग अलापते नहीं थक रहे थे। लेकिन “कुम्भ नगरी” की इसी “अलौकिकता” के बीच फलते-फूलते ब्राह्मणवादियों-मनुवादियों की घृणित जातिवादी मानसिकता की कुरूपताओं का नंगा प्रदर्शन भी अक्सर देखने को मिल जाता है।
प्रदेश की योगी सरकार, भोंपू मीडिया और अपने तमाम अन्य माध्यमों से दम्भ भर रही है कि प्रदेश को अपराधमुक्त बनाया जा चुका है। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इसके बिल्कुल उलट है। उत्तर प्रदेश में गुण्डागर्दी और अपराध की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ रहीं हैं। आम दलित आबादी, स्त्रियाँ, अल्पसंख्यक खौफ़ के साये में जीने के लिए मज़बूर हैं और अपराधी बेख़ौफ़ घूम रहे हैं। देश में दलित विरोधी, जातिगत नफ़रत व हिंसा का लम्बा इतिहास रहा है। 1989 में एससी/एसटी एक्ट के लागू होने के 35 साल बाद भी आज स्थिति यह है कि हर घण्टे दलितों के ख़िलाफ़ पाँच से ज़्यादा हमले दर्ज होते हैं; हर दिन दो दलितों की हत्या कर दी जाती है। दलित महिलाओं की स्थिति और भी भयावह है। प्रतिदिन औसतन 6 दलित स्त्रियाँ बलात्कार का शिकार होती हैं। इसमें भी देश भर में होने वाली कुल दलित विरोधी घटनाओं में से 81 फ़ीसदी घटनाएँ देश के उन छः राज्यों में घटित हो रही है जहाँ भाजपा की सरकार है या भाजपा गठबन्धन में है।
भाजपा और संघ न केवल सवर्णवादी, जातिवादी, ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रसित है बल्कि इसके पोषक भी है। धीरेन्द्र शास्त्री जैसे संघी जातिवादी फ़ासिस्टों गुण्डों के प्रवचन में भाजपा के नेताओं का जाना, मोदी द्वारा धीरेन्द्र शास्त्री को अपना छोटा भाई बताना इसके कुछ उदहारण हैं। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कुलदीप सिंह सेंगर जैसे अपराधियों को बचाने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया। हाथरस में बलात्कार की शिकार दलित लड़की की लाश बग़ैर पोस्टमार्टम के पुलिस प्रशासन द्वारा जला देना उत्तर प्रदेश प्रशासन की मानसिकता को दर्शाने के लिए काफ़ी है। ऐसे में सहज ही समझा जा सकता है कि इस क़िस्म की मानसिकता के लोग जब शासन-प्रशासन में बैठे हों तो दलित उत्पीड़न का बढ़ना लाज़मी है। इन वजहों से ब्राह्मणवादी/सवर्णवादी मानसिकता के लोगों में क़ानून का जो थोड़ा बहुत भय था वह भी ख़त्म हो गया है। जिसकी वजह से ऐसी घटनाएँ आज आम हो गयी हैं।
ऐसी घटनाओं पर संगठित होकर क़ानूनी कार्रवाई की माँग तो उठानी ही चाहिए साथ ही यह भी समझना ज़रूरी है कि केवल क़ानूनी कार्रवाई ऐसी घटनाओं की पुनरावृति को नहीं रोक सकती। इसके लिए ज़रूरी है कि पूरे देश स्तर पर जाति विरोधी आन्दोलन संगठित किया जाय और जाति व्यवस्था को बनाये रखने वाली पूँजीवादी व्यवस्था को ही चकनाचूर कर दिया जाये।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन