Category Archives: कला-साहित्‍य

जीवन गाथा (कहानी)

जीवन गाथा (कहानी) विष्णु नागर मैं बहुत खाता था। बहुत खाने से बहुत-से रोग हो जाते हैं इसलिए सुबह और शाम दौड़ा करता था। बहुत दौड़ने से बहुत थक जाता…

फ़ॉक्सकॅान के मज़दूर की कविताएँ

ये कवितायें चीन की फ़ॉक्सकॅान कम्पनी में काम करने वाले एक प्रवासी मज़दूर जू़ लिझी ने लिखी हैं। लिझी ने 30 सितम्बर 2014 को आत्महत्या कर ली थी। लिझी की कविताओं के बिम्ब उस नारकीय जीवन और उस अलगाव का खाका खींचते है जो यह मुनाफ़ाख़ोर मज़दूरों पर व्यवस्था थोपती है और इंसान को अन्दर से खोखला कर देती है।

लेनिन और सल्वादोर में क्रान्ति

रोके दाल्तोन, अल सल्वाडोर के कवि, निबन्धकार, पत्रकार और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थे। सिर्फ़ 40 वर्ष की उम्र में उनकी हत्या कर दी गयी थी। उन्हें लातिनी अमेरिका के सबसे प्रभावशाली कवियों में गिना जाता है।

क्लासिकीय पेण्टिंग्स पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं द्वारा हमला : सही सर्वहारा नज़रिया क्या हो?

पिछले तीन महीनों में पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने आम लोगों का ध्यान पर्यावरण समस्या की ओर खींचने के लिए चुनिन्दा क्लासिकीय चित्रों पर हमला किया है। लिओनार्डो दा विन्ची की मोनालिसा, वैन गॉग की सनफ़्लावर्स तथा मोने का एक चित्र भी निशाने पर आ चुका है। पर्यावरण कार्यकर्ता ‘स्टॉप आयल’ और ‘लेट्जे जेनेरेन’ नामक एनजीओ से जुड़े हैं जिन्होंने म्यूज़ियम में जाकर चित्रों पर टमाटर की चटनी फेंकने से लेकर स्याही फेंकने का तरीक़ा अपनाया है।

शेखर जोशी की याद में

हमारे समय के सबसे बड़े कथाकारों में से एक, शेखर जोशी का इसी महीने की 4 तारीख़ को निधन हो गया। वे 91 वर्ष के थे और अब भी सक्रिय थे। वे हिन्दी के उन बिरले कहानीकारों में से थे जिन्होंने मज़दूरों, ख़ासकर औद्योगिक मज़दूरों के जीवन को अपनी कहानियों का विषय बनाया। उनकी याद में हम यहाँ उनके संस्मरणों के कुछ अंश दे रहे हैं जो बताते हैं कि मज़दूरों की जीवन और उनके संघर्षों की उनकी समझ एक श्रमिक के रूप में ख़ुद उनके जीवन से आयी थी। इन अंशों को हमने वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी के ‘आजकल’ में प्रकाशित लेख से साभार लिया है। ‘मज़दूर बिगुल’ में हमने शेखर जी की कहानियाँ पहले प्रकाशित की हैं और अपने पाठकों के लिए हम श्रमिक जीवन के इस चितेरे की और रचनाएँ आगामी अंकों में प्रस्तुत करेंगे। – सं.

गहरी निराशा, पराजयबोध और विकल्पहीनता से गुज़रते मज़दूर की कहानी : फ़िल्म ‘मट्टो की साइकिल’

अभी हाल ही में ‘मट्टो की साइकिल’ नामक एक फ़िल्म रिलीज़ हुई। इस फ़िल्म की कहानी निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मट्टो नाम के एक मज़दूर के जीवन पर केन्द्रित है। मट्टो गाँव में ही पत्नी और दो बेटियों के साथ रहता है। उसके परिवार की आर्थिक हालत बहुत ख़राब होती है, जैसा कि आम तौर पर सभी मज़दूरों के साथ होता है। वह अपने घर का अकेला कमाने वाला आदमी है। मट्टो अपनी बीस साल पुरानी जर्जर साइकिल से रोज़ बग़ल के शहर में बेलदारी का काम करने जाता है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले एक मज़दूर के साथ जिस प्रकार से ठेकेदार, मालिक और मध्यम वर्ग से आने वाला व्यक्ति बर्ताव करता है उसकी कुछ झलकियाँ आप इस फ़िल्म में देख सकते हैं।

‘पुष्पा’, ‘केजीएफ़’… उन्‍हें बंजर सपने बेचो!

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी फ़िल्मों की एक बाढ़-सी आयी है जिसमें नायक किसी मज़दूर-वर्गीय पृष्ठभूमि से आता है और फिर सभी प्रतिकूल परिस्थितियों का मुक़ाबला करते हुए और उन पर विजय पाते हुए वह कोई बड़ा डॉन बन जाता है। इनमें से अधिकांश फ़िल्में दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी हैं और बाद में हिन्दी में डब की गयी हैं। लेकिन इन डब फ़िल्मों को उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में ही काफ़ी सफलता मिली है। इन फ़िल्मों को भारी संख्या में देखने वालों में एक अच्छी-ख़ासी आबादी मेहनतकश वर्गों के लोग और विशेषकर मज़दूर हैं। हम मज़दूर अपने इलाक़ों में युवा मज़दूरों व आम तौर पर नौजवानों को ‘पुष्पा’ फ़िल्म के नायक की शैली के नृत्य की नक़ल करते, उसकी अदाओं की नक़ल करते और उसके डायलॉग मारते देख सकते हैं। इसी प्रकार ‘केजीएफ़’ फ़िल्म के नायक के संवादों और शैली की नक़ल करते हुए भी पर्याप्त युवा मज़दूर व नौजवान मिल जाते हैं। इन फ़िल्मों और उनके गीतों (अक्सर फूहड़ और अश्लील गीतों) की लोकप्रियता सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर रही है। इसकी क्या वजह है? इन फ़िल्मों में ऐसा क्या है कि हमारे बीच तमाम मज़दूर इसके दीवाने हुए जा रहे हैं?

दो कविताएँ

दो कविताएँ मैं दण्ड की माँग करता हूँ – पाब्लो नेरूदा (चीले देश के महाकवि) अपने उन शहीदों के नाम पर उन लोगों के लिए मैं दण्ड की माँग करता…

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की तीन कविताएँ

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की तीन कविताएँ कसीदा इन्क़लाबी के लिए अक्सर वे बहुत अधिक हुआ करते हैं वे ग़ायब हो जाते, बेहतर होता। लेकिन वह ग़ायब हो जाये, तो उसकी कमी…