Category Archives: कला-साहित्‍य

जिम्बाब्वे के प्रमुख कवि चेन्जेराई होव की चार कविताएँ

जिम्बाब्वे के प्रमुख कवि चेन्जेराई होव की चार कविताएँ हम केवल हम ही नहीं थे पीछे छूट जाने वालों में, अंजीर का पेड़ भी खड़ा था हमारे साथ ही। केवल…

उम्मीद है आयेगा वह दिन

इस बार ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत है फ़्रांस के प्रसिद्ध लेखक एमील ज़ोला के उपन्यास ‘जर्मिनल’ का एक अंश। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक द्रोणवीर कोहली ने इसका अनुवाद ‘उम्मीद है आयेगा वह दिन’ नाम से किया है। ‘जर्मिनल’ की घटनाएँ उन कोयला खदानों की बड़ी दुनिया में घटित होती हैं जिन्हें फ़्रांस के उदीयमान पूँजीवाद के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत होने के नाते उस समय सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्योग का दर्जा हासिल हो चुका था। बेहद ख़तरनाक स्थितियों में धरती के अँधेरे गर्भ में उतरकर हाड़तोड़ मेहनत करने वाले अनुशासित मज़दूरों की भारी आबादी खनन उद्योग की बुनियादी ज़रूरत थी। आधुनिक युग के ये उजरती ग़ुलाम खदानों के आसपास बसे खनिकों के गाँवों में नारकीय जीवन बिताते थे। एकजुटता इस नये वर्ग की उत्पादक कार्रवाई से निर्मित चेतना का एक बुनियादी अवयव थी और उसकी एक बुनियादी ज़रूरत भी। ‘जर्मिनल’ खदान मजदूरों की ज़िन्दगी के वर्णन के साथ-साथ मज़दूर वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के बीच के सम्बन्धों का प्रामाणिक चित्र उपस्थित करता है। साथ ही, यह खदान मजदूरों की एक हड़ताल के दौरान और उसके बाद घटी घटनाओं का मूल्यांकन प्रकारान्तर से उस दौर के उन राजनीतिक आन्दोलनों के सन्दर्भ में भी करता है जो सर्वहारा वर्ग की समस्याओं के अलग-अलग समाधान तथा उनके अलग-अलग रास्ते प्रस्तुत कर रहे थे। मोटे तौर पर ऐसी तीन धाराएँ उस समय यूरोप में मौजूद थीं—मार्क्सवाद, अराजकतावाद और ट्रेडयूनियवाद।

‘आदिविद्रोही’ : आज़ादी और स्वाभिमान के संघर्ष की गौरव-गाथा

“यह किताब मेरी बेटी राशेल और मेरे बेटे जॉनथन के लिए है । यह बहादुर मर्दों और औरतों की कहानी है जो बहुत पहले रहा करते थे और जिनके नाम लोग कभी नहीं भूले । इस कहानी के नायक आज़ादी को, मनुष्य के स्वाभिमान को दुनिया की सब चीज़ों से ज़्यादा प्यार करते थे और उन्होंने अपनी ज़िन्दगी को अच्छी तरह जिया, जैसे कि उसे जीना चाहिए – हिम्मत के साथ, आन-बान के साथ। मैंने यह कहानी इसलिए लिखी कि मेरे बच्चे और दूसरों के बच्चे, जो भी इसे पढ़ें, हमारे अपने उद्विग्न भविष्य के लिए इससे ताक़त पायें और अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ें, ताकि स्पार्टकस का सपना हमारे समय में सच हो सके ।”

कहानी – स्याह और सुर्ख़ (भाग एक)

हल्का पीला पड़ चुका चेहरा, जो लम्बी थकान के बाद लटका हुआ है। उसके हाथ एक दिशा में लगातार चल रहे हैं। पीलापन उसके चेहरे पर जड़ जमा चुका है, पर साफ़ नज़र नहीं आ रहा क्योंकि कारख़ाने में बन रहे वाइपर के पाइपों और उसमें लगा काले रंग का केमिकल उसके चेहरे को ढँक चुका है। इसी कारण थकान भी धूमिल लग रही है। दिन पर दिन उसका पतला-दुबला शरीर ढल रहा है। नीचे आसमानी रंग की हाफ़शर्ट, जो काले-नीले मिश्रण का रूप धारण कर चुकी है, कभी उसे फ़िट आती थी।

अब ज़िन्दगी तूफ़ानों की सवारी करते हुए ही आयेगी इस महादेश में

अब ज़िन्दगी तूफ़ानों की सवारी करते हुए ही आयेगी इस महादेश में – कविता कृष्णपल्लवी पूरे देश में ज़ंजीरों के खड़कने और बेड़ियों के घिसटने की आवाज़ें सुनाई दे रही…

एक मज़दूर परिवार की एक सुबह

टिमटिमाती आँखें, सर पर हल्के-हल्के बाल, अपने पैरों को घसीटते हुए बच्चा खड़ा होने की कोशिश कर रहा था। बच्चे ने हरे रंग का कच्छा पहना था और हरी धारीदार टी-शर्ट। उम्र मुश्किल से एक वर्ष होगी। अचानक उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आयी, जैसे उसने कोई नयी तरकीब सोची हो और वह घुटनों के बल आगे बढ़ने लगा। बच्चे की आँखें देखकर पता चल रहा था कि वह अभी थोड़ी देर पहले ही रोकर चुप हुआ है।

कल और आज

युगों-युगों से इन्सान मकड़ी की तरह, यत्नपूर्वक, तार-दर-तार, पूरी सावधानी से सांसारिक जीवन का मज़बूत मकड़जाल बुनता गया, और झूठ व लालच से इसके पोर-पोर को अधिकाधिक सिक्त करता गया। इन्सान अपने सगे-सहोदर इन्सानों के रक्त-मांस पर पलता रहा। उत्पादन के साधन इन्सानों के दमन का साधन थे – इस मानवद्वेषी झूठ को निर्विकल्प, निर्विवाद सत्य समझा जाता रहा।

जन्मदिवस (14 जून) के अवसर पर क्यूबा की क्रान्ति के नायक चे ग्वेरा को याद करते हुए कुछ कविताएँ

जन्मदिवस (14 जून) के अवसर पर क्यूबा की क्रान्ति के नायक चे ग्वेरा को याद करते हुए कुछ कविताएँ चे कमांडेंट – निकोलस गिएन (1902-1989), क्यूबा के राष्ट्रकवि यद्यपि बुझा…

डॉक्टर के नाम एक मज़दूर का ख़त

महान जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता