Category Archives: फिल्‍म समीक्षा

फ़ासिस्ट प्रोपेगैण्‍डा फैलाती दंगाई फ़िल्में

ये फ़ासिस्ट फ़िल्में और कुछ नहीं है बल्कि मेहनतकश जानता का ध्यान भटकाने का एक हथकण्डा मात्र है। पिछले 10 सालों से महँगाई और बेरोज़गारी का बुलडोज़र जिस तरीक़े से देश की जनता को रौंद रहा है उसके ख़िलाफ़ लोग एकजुट और संगठित ना हो जायें इसके लिए समय-समय पर कभी लव जिहाद, कभी धारा 370, कभी चीन-पाकिस्तान का हौवा उछाल दिया जाता है। और मोदी की गोदी में बैठे विवेक अग्निहोत्री और सुदिप्तो सेन जैसे “फ़िल्मकार” फ़िल्म बनाकर झूठा फासिस्‍ट प्रोपेगैण्‍डा फैलाने का काम शुरू कर देते हैं।

मिथकों को यथार्थ बनाने के संघ के प्रयोग

इतिहास का निर्माण जनता करती है। फ़ासिस्ट ताक़तें जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति से डरती हैं। इसलिए वे न केवल इतिहास के निर्माण में जनता की भूमिका को छिपा देना चाहती हैं, बल्कि इतिहास का ऐसा विकृतिकरण करने की कोशिश करती हैं जिससे वह अपनी विचारधारा और राजनीति को सही ठहरा सकें। संघ परिवार हमेशा से ही इतिहास का ऐसा ही एक फ़ासीवादी कुपाठ प्रस्तुत करता रहा है।

‘द केरला स्टोरी’: संघी प्रचार तन्त्र की झूठ-फ़ैक्ट्री से निकली एक और फ़िल्म

जिस तरीक़े से जर्मनी में यहूदियों को बदनाम करने के लिए किताबों, अख़बारों और फ़िल्मों के ज़रिए तमाम अफ़वाहें फ़ैलायी जाती थीं, आज उससे भी दोगुनी रफ़्तार से हिन्दुत्व फ़ासीवाद मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रहा है। ‘द केरला स्टोरी’ भारत के हिन्दुत्व फ़ासीवाद के प्रचार तन्त्र में से ही एक है।

गहरी निराशा, पराजयबोध और विकल्पहीनता से गुज़रते मज़दूर की कहानी : फ़िल्म ‘मट्टो की साइकिल’

अभी हाल ही में ‘मट्टो की साइकिल’ नामक एक फ़िल्म रिलीज़ हुई। इस फ़िल्म की कहानी निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मट्टो नाम के एक मज़दूर के जीवन पर केन्द्रित है। मट्टो गाँव में ही पत्नी और दो बेटियों के साथ रहता है। उसके परिवार की आर्थिक हालत बहुत ख़राब होती है, जैसा कि आम तौर पर सभी मज़दूरों के साथ होता है। वह अपने घर का अकेला कमाने वाला आदमी है। मट्टो अपनी बीस साल पुरानी जर्जर साइकिल से रोज़ बग़ल के शहर में बेलदारी का काम करने जाता है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले एक मज़दूर के साथ जिस प्रकार से ठेकेदार, मालिक और मध्यम वर्ग से आने वाला व्यक्ति बर्ताव करता है उसकी कुछ झलकियाँ आप इस फ़िल्म में देख सकते हैं।

‘पुष्पा’, ‘केजीएफ़’… उन्‍हें बंजर सपने बेचो!

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी फ़िल्मों की एक बाढ़-सी आयी है जिसमें नायक किसी मज़दूर-वर्गीय पृष्ठभूमि से आता है और फिर सभी प्रतिकूल परिस्थितियों का मुक़ाबला करते हुए और उन पर विजय पाते हुए वह कोई बड़ा डॉन बन जाता है। इनमें से अधिकांश फ़िल्में दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी हैं और बाद में हिन्दी में डब की गयी हैं। लेकिन इन डब फ़िल्मों को उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में ही काफ़ी सफलता मिली है। इन फ़िल्मों को भारी संख्या में देखने वालों में एक अच्छी-ख़ासी आबादी मेहनतकश वर्गों के लोग और विशेषकर मज़दूर हैं। हम मज़दूर अपने इलाक़ों में युवा मज़दूरों व आम तौर पर नौजवानों को ‘पुष्पा’ फ़िल्म के नायक की शैली के नृत्य की नक़ल करते, उसकी अदाओं की नक़ल करते और उसके डायलॉग मारते देख सकते हैं। इसी प्रकार ‘केजीएफ़’ फ़िल्म के नायक के संवादों और शैली की नक़ल करते हुए भी पर्याप्त युवा मज़दूर व नौजवान मिल जाते हैं। इन फ़िल्मों और उनके गीतों (अक्सर फूहड़ और अश्लील गीतों) की लोकप्रियता सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर रही है। इसकी क्या वजह है? इन फ़िल्मों में ऐसा क्या है कि हमारे बीच तमाम मज़दूर इसके दीवाने हुए जा रहे हैं?