क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 16 : मज़दूरी
हम मज़दूर पूँजीपति को श्रम नहीं बेचते हैं, बल्कि श्रमशक्ति बेचते हैं। पूँजीवादी समाज में यह दृष्टिभ्रम पैदा होता है कि हम अपना श्रम बेच रहे हैं और पूँजीपति हमें हमारी “मेहनत का मोल” या श्रम का मूल्य दे रहा है। यह विभ्रम पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों की साज़िश से नहीं पैदा होता है, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र स्वत: इस भ्रम को जन्म देता है और स्वयं पूँजीपति भी अधिकांशत: इस भ्रम से ग्रस्त होते हैं कि उन्होंने मज़दूरों को मेहनत का मोल दे दिया है। लेकिन यदि यह सच है और श्रम स्वयं एक माल है जिसे पूँजीपति मज़दूर से ख़रीदता है, तो श्रम का मूल्य कैसे पैदा होगा? ज़ाहिरा तौर पर उसी प्रकार जिस प्रकार एक पूँजीवादी माल उत्पादक समाज में किसी भी अन्य माल का मूल्य तय होता है, यानी, उस माल के उत्पादन में लगने वाले कुल सामाजिक श्रम की मात्रा से। लेकिन इसका एक बेतुका नतीजा निकलेगा: श्रम का मूल्य उसके उत्पादन व पुनरुत्पादन में लगने वाले श्रम से तय होता है! यह नतीजा निकालते ही हम एक तार्किक दुष्चक्र में फँस जाते हैं : श्रम का मूल्य श्रम से तय होता है!