क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 9 : माल से मुद्रा तक

अभिनव

मुद्रा एक रहस्यमयी चीज़ होती है। यह जिसकी जेब में पर्याप्त मात्रा में होती है, वह अपने आपको शक्तिशाली और दुनिया का राजा महसूस करता है। लेकिन वह भी इससे डरता है, इसकी पूजा-अर्चना करता है कि यह उसकी जेब में बनी रहे। जिसके पास यह नहीं होती वह भी इसकी शक्तियों के सामने नतमस्तक होता है और मनाता रहता है उसकी जेब में भी लक्ष्मी का प्रवेश हो जाये। लेकिन आख़िर यह मुद्रा चीज़ क्या है? इसकी इस रहस्यमयी शक्ति के पीछे का रहस्य क्या है? इस बात को समझने के लिए भी हमें माल और माल उत्पादन को समझना होगा। हमें मूल्य और विनिमय-मूल्य के रिश्तों के बारे में समझना होगा। इस दिशा में कुछ शुरुआती क़दम हम उठा चुके हैं। अब आगे बढ़ते हैं। लेकिन इसके लिए संक्षेप में थोड़ा पीछे जाते हैं।

सामाजिक श्रम विभाजन और विनिमय

हम जानते हैं कि मनुष्य के श्रम के उत्पादों का विनिमय केवल तभी शुरू हो सकता है जबकि समाज में सामाजिक श्रम विभाजन हो। यानी, यदि सामूहिक तौर पर या व्यक्तिगत तौर पर लोग अपने लिए उपयोगी हर चीज़ का उत्पादन स्वयं ही कर रहे हों (जैसा कि आदिम क़बीलाई समाज में होता था और जैसा कि कम्युनिस्ट समाज में एक बेहद उन्नत और ऊँचे स्तर पर होगा) तो वस्तुओं के विनिमय की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी और वस्तुएँ केवल उपयोग-मूल्य के रूप में अस्तित्वमान होंगी और माल में तब्दील नहीं होंगी, क्योंकि माल केवल वे वस्तुएँ होती हैं जिनका विनिमय होता है या जिन्हें ख़रीदा-बेचा जाता है। तमाम उपयोगी वस्तुएँ माल में तभी तब्दील होती हैं, जब कि समाज में श्रम का विभाजन हो, यानी अलग-अलग उपयोगी वस्तुएँ अलग-अलग उत्पादक या उत्पादकों के समूह बना रहे हों। ऐसे में, विनिमय अनिवार्य हो जायेगा। सामाजिक श्रम विभाजन उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ विकसित हुआ, जो कि स्वयं मनुष्य की प्रकृति के साथ उत्पादक अन्तर्क्रिया में विकसित हुईं। यह सामाजिक श्रम विभाजन उत्पादकों के पीठ पीछे विकसित होता है। इसके पीछे कोई सचेतन सुनियोजन या योजना नहीं होती है।

सामाजिक श्रम विभाजन के साथ, यानी जब अलग-अलग उत्पादक अलग-अलग वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, तो वस्तुओं का विनिमय शुरू होता है और इसके साथ वे मालों में तब्दील हो जाती हैं। अब वे महज़ उपयोग-मूल्य नहीं रह जाती हैं, बल्कि साथ ही विनिमय-मूल्य में भी तब्दील हो जाती हैं। जैसा कि हमने देखा था विनिमय-मूल्य और कुछ नहीं बल्कि दो वस्तुओं के विनिमय की मात्राओं का अनुपात होता है। यानी वस्तु ‘क’ की कौन-सी मात्रा का वस्तु ‘ख’ की कितनी मात्रा से विनिमय होगा, यह अनुपात ही विनिमय-मूल्य होता है। हम यह भी जानते हैं कि विनिमय-मूल्य और कुछ नहीं बल्कि मूल्य का रूप होता है, यानी दोनों वस्तुओं के मूल्य के परिमाण या उनमें लगे अमूर्त मानवीय श्रम की मात्रा के आधार पर ही यह अनुपात तय हो सकता है। दूसरे शब्दों में, विनिमय-मूल्य वास्तव में दो वस्तुओं के मूल्य का अनुपात होता है, जो कि स्वयं कुछ नहीं बल्कि अमूर्त मानव श्रम की मात्रा है, जिसे कि सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल में नापा जाता है।

एडम स्मिथ को लगता था कि इन्सान अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति के कारण विनिमय करता है और विनिमय के कारण सामाजिक श्रम विभाजन पैदा होता है। मार्क्स ने दिखाया कि मामला बिल्कुल उल्टा है। वास्तव में, यह सामाजिक श्रम विभाजन है, जो उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ पैदा होता है और उसके नतीजे के तौर पर विनिमय पैदा होता है। मार्क्स ने दिखलाया कि असल में विनिमय के विकसित होने के बहुत पहले आदिम क़बीलों के भीतर एक प्राकृतिक श्रम विभाजन विकसित हो चुका था, जो कि उम्र और लिंग के आधार पर था। बाद में, अलग-अलग क़बीलों के बीच विनिमय की शुरुआत हुई क्योंकि उनके बीच सामाजिक श्रम विभाजन पैदा हो चुका था और वे अलग-अलग वस्तुएँ बनाते थे और उन्हें एक दूसरे के उत्पादों की आवश्यकता थी। इसलिए सामाजिक श्रम विभाजन विनिमय से पहले पैदा हो चुका होता है और उसका उत्तरोत्तर विकास विनिमय को जन्म देता है और इस प्रकार माल उत्पादन की पूर्वशर्त है।

लेकिन यह भी सच है कि जब एक बार माल उत्पादन की शुरुआत हो जाती है, तो उत्पादक शक्तियों के उत्तरोत्तर विकास के साथ, यह माल उत्पादन सामाजिक श्रम विभाजन को और भी बढ़ाता जाता है। एक ही उत्पादन-प्रक्रिया बहुत-से अंगों में विभाजित होती है और कालान्तर में एक स्वतंत्र उत्पादन प्रक्रिया बन जाती है।

मानव सभ्यता के लिए समस्त उत्पादित उपयोग-मूल्यों का उत्पादन मानवीय श्रम करता है और इसलिए मानव सभ्यता का आधार और कुछ नहीं बल्कि मानवीय श्रम ही है। लेकिन समस्त समृद्धि के दो स्रोत हैं : श्रम और प्रकृति। मार्क्स ने कहा था कि श्रम समस्त सम्पदा का पिता है जबकि प्रकृति समस्त समृद्धि की माँ है। लेकिन समस्त मूल्य का केवल एक ही स्रोत है : श्रम। क्योंकि मूल्य और कुछ नहीं बल्कि माल में वास्तवीकृत हो चुका अमूर्त मानवीय श्रम ही है।

अब हम मूल्य और विनिमय-मूल्य के सम्बन्ध को थोड़ा गहराई और विस्तार से देखेंगे और इसी प्रक्रिया में मुद्रा के उद्भव और विकास की प्रक्रिया को समझेंगे।

मूल्य का रूप, या, विनिमय-मूल्य

हम जानते हैं कि उपयोगमूल्य का यथार्थ एक पूर्ण रूप से वैयक्तिक यथार्थ है। इसका अर्थ यह है कि एक उपयोग-मूल्य को दूसरे उपयोग-मूल्य से केवल गुणात्मक रूप से अलग करके देखा जा सकता है। यह हरेक उपयोग-मूल्य को गुणात्मक रूप से विशिष्ट बनाता है। मिसाल के तौर पर, एक जूते और एक घड़ी की अपनी विशिष्ट गुणात्मक वैयक्तिकता है और गुण के आधार पर उनका एक विशिष्ट अस्तित्व है। इसलिए उपयोग-मूल्य के तौर पर हर माल एक विशिष्ट रूप के मूर्त श्रम का उत्पाद होता है और उसे उसकी विशिष्ट उपयोगिता के आधार पर गुणात्मक तौर पर अन्य मालों से अलग किया जा सकता है। जब हम कहते हैं कि एक उपयोग-मूल्य के तौर पर हर माल का एक पूर्ण रूप से वैयक्तिक यथार्थ होता है, तो उसका यही अर्थ है।

लेकिन मूल्य के तौर पर माल का यथार्थ शुद्ध रूप से एक सामाजिक यथार्थ होता है। यानी गुणात्मक तौर पर दो मालों के मूल्य में, यानी उनके वास्तवीकृत हुए अमूर्त मानवीय श्रम के बीच, कोई गुणात्मक अन्तर नहीं किया जा सकता है। वे दोनों ही अमूर्त श्रम की दो अलग मात्राएँ हैं और मूल्य के तौर पर उनके बीच केवल परिमाणात्मक तौर पर ही अन्तर किया जा सकता है, गुणात्मक तौर पर नहीं। गुणात्मक तौर पर, किसी माल का मूल्य सामान्य साधारण अमूर्त मानवीय श्रम ही है, और किसी भी अन्य माल में लगे सामान्य साधारण अमूर्त मानवीय श्रम से उसे गुणात्मक तौर पर अलग करके नहीं देखा जा सकता है। यह आम तौर पर मानवीय मस्तिष्क, नसों और मांसपेशियों का व्यय है, और कुछ भी नहीं और इस रूप में दो मालों में हुए मानवीय मस्तिष्क, नसों व मांसपेशियों के व्यय में कोई गुणात्मक फ़र्क़ नहीं किया जा सकता है। दो अलग-अलग उपयोग-मूल्यों के बीच विनिमय हेतु उनमें लगे मूर्त श्रमों को नज़रन्दाज़ करके उसमें लगे सामान्य साधारण मानवीय अमूर्त श्रम को देखना अनिवार्य है क्योंकि यही उनमें साझा व तुलनीय होता है और इसी की मात्रा के आधार पर दो मालों के विनिमय का अनुपात निर्धारित होता है। इसलिए मूल्यों के रूप में मालों का अस्तित्व पूर्ण रूप से सामाजिक होता है क्योंकि उसका सारतत्व पूर्ण रूप से एक सामान्य सामाजिक वस्तु, यानी अमूर्त मानवीय श्रम है।

मूल्य विनिमय की प्रक्रिया में ही अभिव्यक्त होता है, हालाँकि यह पैदा विनिमय में नहीं बल्कि उत्पादन में होता है। चूँकि मूल्य के रूप में माल का एक पूर्ण रूप से सामाजिक अस्तित्व होता है और उसकी सभी वैयक्तिक विशिष्टताओं को नज़रन्दाज़ करके ही उसके मूल्य का आकलन हो सकता है, इसलिए मूल्य के रूप में माल एक दूसरे से केवल मात्रात्मक या परिमाणात्मक तौर पर ही भिन्न होते हैं। मिसाल के तौर पर, ख़र्च हुए अमूर्त मानवीय श्रम की मात्रा के आधार पर, एक घड़ी के बदले दो जोड़ी जूतों का विनिमय हो सकता है। मूल्य के रूप में इनमें केवल मात्रात्मक सम्बन्ध ही होता है और मूल्य पर विचार करते हुए हम उपयोग-मूल्यों के रूप में उनकी विशिष्टताओं को नज़रन्दाज कर देते हैं।

ज़ाहिर है कि दो अलग मालों का ही विनिमय होता है क्योंकि कोई भी समान माल का विनिमय समान माल से नहीं करेगा। चूँकि मूल्य के रूप में एक माल का शुद्ध रूप से सामाजिक अस्तित्व होता है, इसलिए एक माल अपने मूल्य को दूसरे माल के रूप में ही अभिव्यक्त कर सकता है। जब एक माल अपने मूल्य को दूसरे माल की निश्चित मात्रा के रूप में अभिव्यक्त करता है, तो इसे ही हम विनिमय-मूल्य कहते हैं, यानी दो मालों के मूल्यों के आधार पर उनकी विनिमय की जाने वाली मात्राओं का अनुपात। या दो मूल्यों के विनिमय का अनुपात। इस रूप में विनिमय-मूल्य और कुछ नहीं बल्कि मूल्य का रूप (form of value) है। जब माल का मूल्य एक स्वतंत्र मूल्य-रूप ग्रहण करता है तो वह विनिमय-मूल्य का रूप लेता है।

मुद्रा और कुछ नहीं मूल्य के रूप के विकास का ही परिणाम है, जो कि स्वयं मूल्य और उपयोगमूल्य के गहराते अन्तरविरोध का परिणाम होता है। हम सभी इस रूप से वाक़िफ़ हैं, यानी मुद्रा-रूप, जिसमें उपयोग-मूल्यों का हर सुराग़, हर निशान मिट चुका होता है। यह चमत्कृत करने वाला रूप, यानी मुद्रा, हमें रहस्यमयी शक्तियों से लैस दिखती है क्योंकि इसका विनिमय दुनिया में किसी भी माल के साथ किया जा सकता है। जिस पूँजीवादी समाज में समृद्धि अधिक से अधिक मालों का रूप ग्रहण करती जाती है, वहाँ अधिक से अधिक समृद्ध होने का अर्थ ही है अधिक से अधिक मालों का स्वामी होना। चूँकि मुद्रा का विनिमय किसी भी माल से किया जा सकता है, उसकी अधिक से अधिक मात्रा अधिक से अधिक समृद्धि का स्रोत होती है। मुद्रा की यही रहस्यमयी दिखने वाली शक्ति उसके पीछे के रहस्य और उसके प्रति अन्धभक्ति को पैदा करती है, जो कि और कुछ नहीं बल्कि माल-अन्धभक्ति का ही सबसे विकसित रूप है। यह माल-अन्धभक्ति समाज में तमाम इन्सानों के बीच के रिश्ते को मालों के बीच रिश्तों के रूप में छिपा देती है। वास्तव में, मालों के विनिमय के रूप में तो इन्सान एक-दूसरे के श्रम की विशिष्ट मात्राओं का विनिमय ही कर रहा होता है। इतनी सच्चाई तो एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो भी समझ चुके थे कि मुद्रा के रूप में अभिव्यक्त मूल्य यानी दाम/क़ीमत तो बस नाममात्र का या सांकेतिक (nominal) विनिमय-मूल्य होता है, जो स्वयं माल के उत्पादन में ख़र्च श्रम की मात्रा से ही तय होता है।

बहरहाल, जब मनुष्य मिलकर सामूहिक तौर पर सभी मालों का उत्पादन करता था, तो उसके श्रम का यह सामाजिक चरित्र, उसके बीच के रिश्ते उसे सीधे और साफ़ तौर पर दिखायी देते थे। लेकिन जब समाज में श्रम विभाजन हो जाता है और लोगों के बीच का श्रम केवल विनिमय के ज़रिए ही जुड़ता है और अपने सामाजिक अस्तित्व और चरित्र पर दावा करता है, तो इन्सानों के बीच के रिश्ते मालों के बीच रिश्तों की सतह के नीचे छिप जाते हैं। यही मालअन्धभक्ति पैदा होने का स्रोत होता है। लेकिन आदिम काल में जब दो अलग-अलग मालों के उत्पादक एक-दूसरे से आवश्यकता की सांयोगिकता के आधार पर (यानी जिसमें इत्तफ़ाकन या संयोग के तौर पर पहले माल के उत्पादक को दूसरे माल उत्पादक के माल की आवश्यकता होती है और दूसरे माल के उत्पादक को पहले माल उत्पादक के माल की आवश्यकता होती है) विनिमय करते थे, तो अभी श्रम का यह सामाजिक चरित्र और इन्सानों के रिश्तों पर एक झीना पर्दा गिरा होता था जिसके पीछे अस्पष्ट तौर पर उन वास्तविक मानव सम्बन्धों को कुछ विश्लेषण और प्रयास से देखा जा सकता था। लेकिन जब मालों का प्रत्यक्ष विनिमय होने के बजाय मुद्रा की मध्यस्थता से मालों का संचरण होने लगा, तो ये रिश्ते हज़ारों पर्दों के पीछे चले गये और मालों के संचरण के विराट ताने-बाने में, इन्सानों के बीच का रिश्ता एकदम खो-सा गया। अब जो दिखता है, वह है चमकती-दमकती मुद्रा की रहस्यमयी ताक़त जिसके सामने सभी नतमस्तक हैं। इस मंज़िल पर माल-अन्धभक्ति अपने चरम पर पहुँच जाती है, जिसके ठोस रूप हमें दुकानों पर लटकी नींबू-मिर्च से लेकर गल्ले पर लिखे ‘शुभ-लाभ’ तक में दिख जाता है।

लेकिन यह मुद्रा-रूप विकसित कैसे हुआ, यदि हम इसे ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तौर पर समझ लें, तो रहस्य का यह घेरा, मुद्रा का यह तिलिस्म टूट जाता है। हम अभी इसी ऐतिहासिक विकास को वैज्ञानिक रूप में समझेंगे।

मूल्य के रूप, यानी विनिमय-मूल्य, के विकास के तार्किक चरण

सबसे पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि माल में उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच एक अन्तरविरोध होता है। यह अन्तरविरोध व्यक्तिगत श्रम और सामाजिक श्रम के बीच के अन्तरविरोध को अभिव्यक्त करता है। माल उत्पादक समाज में सभी माल उत्पादक एक दूसरे से अलग, एक दूसरे से स्वतंत्र और एक दूसरे के बारे में अज्ञात, अपने-अपने मालों का उत्पादन करते हैं। उन्हें नहीं पता होता है कि उनके माल के लिए बाज़ार में कितनी माँग है या उसे ख़रीदार मिलेंगे या नहीं। वे एक आकलन और अपेक्षा के आधार पर माल का उत्पादन करते हैं। यदि उनका माल बिकता है, तो उनका श्रम सामाजिक रूप से उपयोगी श्रम के रूप में मान्यता प्राप्त करता है और उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच का अन्तरविरोध हल होता है। लेकिन अगर उनके माल को ख़रीदार नहीं मिलता, तो उनका माल सामाजिक रूप से उपयोगी श्रम नहीं माना जाता और उसका मूल्य भी वास्तवीकृत नहीं होता और उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है। यदि किसी माल उत्पादक के साथ लगातार ऐसा होता है तो वह किसी अन्य माल का उत्पादन करना शुरू करता है और इस प्रकार समाज में मौजूद सामाजिक श्रम विभाजन बदलता है। माल उत्पादक समाज में यह अराजक तरीक़े से होता है, इसमें अनिश्चितता होती है। यह अनिश्चितता स्वयं माल अन्धभक्ति को ही बढ़ावा देती है। आपने अगर तमाम दुकानदारों को या पूँजीपतियों को अपने माल के स्टॉक के आगे अगरबत्ती जलाकर पूजा करते देखा हो, तो आप समझ सकते हैं कि बिकवाली की अनिश्चितता किस प्रकार माल अन्धभक्ति को बढ़ावा देती है और माल को एक रहस्यमय आभामण्डल दे देती है।

माल उत्पादक समाज और पूँजीवादी माल उत्पादन पर आधारित समाज में उत्पादन किसी सामाजिक योजना के आधार पर नहीं होता। इसका कोई आकलन नहीं किया जाता है कि किस वस्तु या सेवा की कितनी आवश्यकता है और उसे किस मात्रा में योजनाबद्ध तौर पर सामूहिक श्रम के द्वारा पैदा किया जाना है। इसलिए मालों का बिकना कोई सहज-सरल प्रक्रिया नहीं होती है। यह स्वयं एक अन्तरविरोध के हल होने का सवाल होता है : उपयोगमूल्य और मूल्य के बीच का अन्तरविरोध। इस अन्तरविरोध के विकास की प्रक्रिया के ही एक निश्चित चरण में मुद्रा रूप पैदा होता है, मुद्रा अस्तित्व में आती है। इस अन्तरविरोध के ही तार्किक चरणों की वैज्ञानिक व्याख्या पेश करते हुए मार्क्स मुद्रा के रहस्यमयी आवरण को चीरते हैं।

मार्क्स विनिमय-मूल्य के चार रूपों की बात करते हैं : सांयोगिकरूप, विस्तारितरूप, सामान्यरूप और मुद्रारूप। इन पर कुछ विस्तार में बात करने की ज़रूरत है।

सांयोगिकरूप (accidental form) वह रूप है जिस पर मार्क्स सबसे ज़्यादा समय ख़र्च करते हैं क्योंकि मुद्रा रूप के बीज ठीक इसी रूप में मौजूद होते हैं और यदि इस बुनियादी रूप को सही तरीक़े से समझ लिया गया तो मुद्रा का रहस्योद्घाटन करना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है। इस सांयोगिक-रूप में ही हम मूल्य और उपयोग-मूल्य के बीच के अन्तरविरोध को स्पष्ट तौर पर चिह्नित कर सकते हैं, जो कि अन्ततः मुद्रा को जन्म देता है। मूल्य-रूप (value-form) की ख़ासियत यह है दो मालों के मूल्यों में अन्तर आने के बावजूद उनका एक दूसरे के सापेक्ष विनिमय-मूल्य समान रह सकता है। मिसाल के तौर पर, यदि माल ‘क’ के उत्पादन में एक समय 2 घण्टे का अमूर्त मानवीय श्रम लगता था और माल ‘ख’ के उत्पादन में उसी समय 4 घण्टे का अमूर्त मानवीय श्रम लगता था, तो उस समय माल ‘ख’ की एक इकाई के बदले माल ‘क’ की दो इकाइयों का विनिमय होगा। अगर एक वर्ष बाद दोनों ही मालों के उत्पादन में श्रम की उत्पादकता बराबर दर से बढ़ जाती है और अब माल ‘क’ के उत्पादन में 1 घण्टे का श्रम लगता है, जबकि माल ‘ख’ के उत्पादन में 2 घण्टे का श्रम लगता है, तो दोनों मालों का अन्तर्भूत मूल्य तो आधा हो गया, लेकिन उनका एक-दूसरे के सापेक्ष विनिमय-मूल्य समान रहा, यानी, अब भी माल ‘ख’ की एक इकाई के बदले माल ‘क’ की दो इकाइयों का विनिमय होगा। इस प्रकार मूल्यरूप की यह विशिष्टता होती है कि मालों का मूल्य समान रहते हुए उनका विनिमयमूल्य बदल सकता है या उनके मूल्य के बदलने के बावजूद उनका विनिमयमूल्य समान रह सकता है।

सांयोगिक-रूप की विशिष्टता क्या है? यहाँ दो मालों का विनिमय सांयोगिक तौर पर होता है, जिसमें माल ‘क’ की एक विशेष मात्रा का विनिमय माल ‘ख’ की एक विशिष्ट मात्र के साथ होता है। यानी :

x माल A = y माल B

यानी, माल A की x मात्रा का विनिमय माल B की y मात्रा से हो रहा है। यह सांयोगिक परस्पर आवश्यकता, यानी दोनों उत्पादकों की आवश्यकताओं की सांयोगिकता के आधार पर हो रहा विनिमय है जिसे अर्थशास्त्र की भाषा में co-incidence of needs कहा जाता है। मार्क्स इस मासूम से दिखने वाले समीकरण में अन्तर्निहित उस अन्तरविरोध को पकड़ते हैं और उसकी ओर हमारा ध्यान खींचते हैं, जो समूचे पूँजीवादी समाज और अर्थव्यवस्था के मूल में, उसकी जड़ में है : मूल्य और उपयोगमूल्य के बीच का अन्तरविरोध।

मार्क्स बताते हैं कि यहाँ माल A सापेक्ष मूल्य (relative value) है, जबकि माल B समतुल्य मूल्य (equivalent value) है। दूसरे शब्दों में, माल A अपने मूल्य को माल B के रूप में अभिव्यक्त कर रहा है। माल A, यानी वह माल जिसका मूल्य इस समीकरण में अभिव्यक्त किया जाना है, यानी जो माल सापेक्ष मूल्य की भूमिका निभा रहा है, उसके लिए माल B ही मूल्य का मूर्त रूप है। अपने मूल्य को अभिव्यक्त करने के लिए माल A को एक दूसरे माल की आवश्यकता है, जो सांयोगिक तौर पर इस मामले में उसे माल B के रूप में मिलता है और माल A मानो कह उठता है कि “B ही तो मूल्य है!” यानी, माल A को उक्त मामले में अपने मूल्य को स्वतंत्र रूप में अभिव्यक्त करने के लिए माल B की आवश्यकता है। इसलिए माल A के लिए माल B का उपयोग-मूल्य ही यह है कि वह मूल्य को अभिव्यक्त करता है। माल A के लिए माल B ही मूल्य की माप (measure of value) है। वास्तव में, मुद्रा भी माल B वाला काम ही करती है, यानी मूल्य की माप होने का काम, लेकिन सिर्फ़ माल A के लिए नहीं बल्कि सभी मालों के लिए। यदि उपरोक्त समीकरण को हम पलटकर लिखें तो माल B अपने मूल्य को माल A के उपयोग-मूल्य में अभिव्यक्त करेगा और माल A उसके लिए समतुल्य मूल्य बन जायेगा, यानी जो उसके लिए मूल्य की माप होगा, मूल्य के समतुल्य होगा। यहाँ हम समीकरण के जिस ओर खड़े होंगे, उसके अनुसार, सापेक्ष मूल्य और समतुल्य मूल्य बदल जायेंगे। अगर हम माल A के नज़रिए से देखेंगे, तो माल B समतुल्य मूल्य होगा, मूल्य की माप होगा और अगर हम माल B के परिप्रेक्ष्य से देखेंगे, जिसमें कि माल B के मूल्य को अभिव्यक्त किया जाना होगा और माल B सापेक्ष मूल्य होगा, तो भूमिकाएँ पलट जायेंगी और अब माल A समतुल्य मूल्य यानी मूल्य के समतुल्य या मूल्य के माप की भूमिका निभायेगा।

जैसा कि हम देख सकते हैं कि आदिम काल में होने वाले इस सांयोगिक विनिमय में ही मुद्रा के जन्म के बीज को देखा जा सकता है। माल A के नज़रिए से देखें तो माल B और कुछ नहीं बल्कि मुद्रा की भूमिका, यानी मूल्य के रूप की, यानी मूल्य के माप की भूमिका निभा रहा है क्योंकि माल A अपना मूल्य माल B के मूर्त रूप में ही अभिव्यक्त कर रहा है और उसके लिए मूल्य का मूर्त रूप और कुछ नहीं बल्कि माल B है। माल B की यह भूमिका ही मुद्रा निभाती है, लेकिन सांयोगिक-रूप के समान किसी एक माल के लिए नहीं, बल्कि सभी मालों के लिए। यानी वह एक सार्वभौमिक समतुल्य (universal equivalent) होती है, मूल्य का सार्वभौमिक रूप होती है। लेकिन यही बात पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों की निगाह से ओझल हो जाती है कि जब तक सोने का चमकता-दमकता रूप, या गाँधी जी के फ़ोटो वाली हरी पत्ती नहीं आयी होती है, तो भी हम माल B में मुद्रा के बीज रूप को देख सकते हैं, क्योंकि वह माल A के लिए वही भूमिका निभा रहा होता है, जो कि मुद्रा सभी मालों के लिए निभाती है। माल B को सापेक्ष मूल्य मान लें, तो माल A उसके लिए समतुल्य मूल्य या मुद्रा की ही भूमिका निभा रहा होता है, यानी माल B के मूल्य की माप, उसके मूल्य का रूप, उसके मूल्य का समतुल्य।

लेकिन यह मूल्य का रूप मुद्रा के चकाचौंध कर देने वाले रूप तक कैसे पहुँचा इसे समझने के लिए हमें उपयोग-मूल्य और मूल्य के अन्तरविरोध के विकास के दूसरे तार्किक चरण पर निगाह डालनी होगी : यानी विस्तारितरूप (expanded form)।

विस्तारित रूप कुछ यूँ दिखता है :

x माल A = y माल B

x माल A = z माल C

x माल A = w माल D

x माल A = v माल E

….

यानी, जब एक ही माल की एक मात्रा का विनिमय बहुत-से अलग-अलग मालों की निश्चित मात्राओं से होने लगता है। जैसे-जैसे सामाजिक श्रम विभाजन विकसित होता है, वैसे-वैसे कई अलग-अलग मालों का उत्पादन होना शुरू हो जाता है, अधिक से अधिक वस्तुएँ मालों में तब्दील होती हैं। आम तौर पर, सभी सभ्यताओं के इतिहास में देखा गया है कि उन सभ्यताओं में अलग-अलग वस्तुओं की अलग-अलग मात्रा में सामाजिक आवश्यकता और उपलब्धता के आधार पर उनमें से एक या कुछ वस्तुओं की माँग ज़्यादा होती है और अलग-अलग माल उत्पादक उससे अपने माल का विनिमय करना चाहते हैं क्योंकि उन सभी को उसकी आवश्यकता होती है। कृषि व पशुपालन आधारित समाजों के इतिहास में कई बार यह भूमिका कई पशुओं जैसे कि गाय या बकरी (यानी ढोर-डंगर) और अलग-अलग अनाजों ने भी निभायी। यहाँ तक कि कुछ समाजों में इसकी भूमिका तम्बाकू, कौड़ी आदि तक ने निभायी। नतीजतन, अलग-अलग समाजों के इतिहास में कोई एक या कुछ माल अधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं और वे ज़्यादा विनिमय योग्य होते हैं क्योंकि ज़्यादा लोगों को उसकी आवश्यकता होती है। वैदिक काल में हमारे देश में ऐसी स्थिति गायों व कुछ अनाजों की थी।

इस विस्तारितरूप में यह बात सामने जाती है कि माल B में ऐसा कुछ ख़ास नहीं था कि केवल वह ही मूल्य के रूप, मूल्य की माप उसके समतुल्य की भूमिका निभा सकता है और यह कि सांयोगिक रूप में माल A की एक मात्रा का माल B की एक निश्चित मात्रा से विनिमय महज़ सांयोगिक था जिसमें माल A लिए माल B मूल्य की माप की भूमिका में था और माल B के लिए माल A समतुल्य मूल्य था। लेकिन विस्तारित-रूप में हमारे पास माल A के साथ कई अन्य मालों के विनिमय समीकरण सामने हैं और यह भी स्पष्ट है कि मूल्य का अपने आप में माल B के उपयोग-मूल्य से कोई नैसर्गिक या अन्तर्भूत रिश्ता नहीं था।

इसके बाद की मंज़िल यानी मूल्य के सामान्यरूप (General Form) की मंज़िल विस्तारत-रूप की मंज़िल से एक छोटे-से क़दम के साथ सामने आ जाती है। इसके लिए हम विस्तारित-मूल्य रूप को ही पलट देना है। यानी अब माल A सापेक्ष मूल्य की भूमिका में और माल B, माल C, माल D, माल E आदि समतुल्य मूल्य की भूमिका में नहीं हैं, जिनमें अलग-अलग विनिमयों में माल A अपना मूल्य अभिव्यक्त कर रहा है, बल्कि माल B, माल C, माल D, माल E आदि सभी सापेक्ष मूल्यों की भूमिका में हैं और ये सभी माल अपने मूल्य को माल A में अभिव्यक्त कर रहे हैं, जो कि अब अन्य सभी मालों के लिए समतुल्य मूल्य, या मूल्य की माप, या मूल्य के रूप में की भूमिका निभा रहा है। अब समीकरण कुछ यूँ दिखेंगे :

y माल B = x माल A

z माल C = x माल A

w माल D = z माल C

v माल E = w माल D

….

उपरोक्त रूप को ही हम सामान्य-रूप कहते हैं। सामान्य इसलिए क्योंकि इसमें सभी माल एक विशिष्ट माल में अपने मूल्य को अभिव्यक्त कर रहे हैं। एक विशिष्ट माल सभी मालों के लिए मूल्य का रूप, मूल्य का समतुल्य और मूल्य की माप बन गया है। यह एक मामले में पहले सांयोगिक या तात्विक रूप से भी मेल खाता है क्योंकि सभी माल किसी एक माल में अपने मूल्य को अभिव्यक्त कर रहे हैं, और यह सामान्य रूप भी है क्योंकि यह एक माल है जो सभी मालों के मूल्य के लिए मूल्य का मूर्त रूप बन गया है। अब हरेक माल को अपने मूल्य को अभिव्यक्त करने के लिए अपने-अपने समतुल्य नहीं ढूँढ़ने हैं। यानी उन्हें हर विनिमय के समय अलग-अलग प्रकार के मूर्त श्रमों का अमूर्तन कर अपने मूल्य को अभिव्यक्त नहीं करना है। मानो अब सभी माल एकजुट होकर, एक साथ आकर, किसी एक माल को अपना सार्वभौमिक समतुल्य मानते हैं, जिसमें कि वे सभी अपने मूल्य को अभिव्यक्त करते हैं। मसलन, कैलीफ़ोर्निया, अमेरिका में एक समय में तम्बाकू यह भूमिका निभाने लगा था, चीन में कौड़ियाँ और वैदिक काल में भारत में गाय और कुछ अनाज यह भूमिका निभाते थे क्योंकि समाज के अधिकांश लोगों को इन विशिष्ट मालों की ज़रूरत थी, उसके लिए उनके बीच माँग थी। इसलिए एक लम्बी प्रक्रिया में कुछ माल ऐसा रूप ग्रहण कर लेते हैं, यानी, सार्वभौमिक समतुल्य का रूप, जिससे तमाम उत्पादक अपने मालों का विनिमय करने को तैयार होते हैं। इसी को मार्क्स ख़ूबसूरत साहित्यिक शब्दावली में कहते हैं कि मानो सभी मालों ने साथ आकर निर्णय किया कि कोई एक विशिष्ट माल मूल्य का रूप है, सार्वभौमिक समतुल्य है और सभी उसमें अपने मूल्य को अभिव्यक्त करेंगे और वही उनके लिए मूल्य की माप होगा।

इस सामान्य रूप के पैदा होने के बाद मुद्रा-रूप (Money-Form) का पैदा होना भी छोटा लेकिन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क़दम था। माल उत्पादकों और आम तौर पर लोगों ने ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर यह सीखा कि सार्वभौमिक समतुल्य की भूमिका निभाने के लिए किसी माल में दो गुण होना आवश्यक है : पहला, वह नाशवान नहीं होना चाहिए और दूसरा, वह हर जगह समान रूप और गुणवत्ता में पाया जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर, गाय या बकरी या अनाज नाशवान हैं। कोई भी उत्पादक इस सार्वभौमिक समतुल्य के रूप में अपने पास मूल्य या समृद्धि का दीर्घकालिक संचय नहीं कर सकता है और उसके बने रहने की कोई गारण्टी भी नहीं होती है, क्योंकि वे टिकाऊ नहीं होते और नाशवान होते हैं। मिसाल के तौर पर, कोई अपने माल का विनिमय गाय या बकरी से करे और बाज़ार से वापस आते समय उसकी गाय या बकरी किसी बीमारी के कारण मर जाये या भाग जाये, तो वह माल उत्पादक बर्बाद हो जायेगा या उसे घाटा होगा! उसी प्रकार, गायों की भी कई प्रजातियाँ होती हैं, जैसे कि तम्बाकू की भी कई प्रजातियाँ होती हैं। कुछ गायें नस्ली तौर पर ज़्यादा दूध देती हैं और बेहतर दूध देती हैं और कम श्रम लगाकर उनका उत्पादन किया जा सकता है और उनसे दुग्ध उत्पादन किया जा सकता है। ऐसे में, दो गायों या दो प्रकार के तम्बाकुओं की गुणवत्ता और उनके उत्पादन में लगने वाले श्रम की मात्रा भी अलग-अलग होगी। इसलिए दुनिया की अलग-अलग सभ्यताओं में शुरुआती दौर में कई अलग-अलग धातुओं के सिक्के ढालने की शुरुआत हुई जो कि मुद्रा की भूमिका निभाने लगे। चूँकि इन सभ्यताओं में राज्यसत्ताएँ पैदा हो चुकी थीं इसलिए समूचे राज्य में विनिमय सुगम तरीक़े से हो, इसके लिए ऐसी मुद्रा को राज्य का अनुमोदन भी मिलने लगा ताकि वे सभी के लिए स्वीकार्य हों। अन्ततः सबसे कम नाशवान और सर्वाधिक एकसमान रूप में पायी जाने वाली धातु की खोज सोने और चाँदी पर आकर ख़त्म हुई और लगभग सारे सभ्य देशों में मुद्रा की भूमिका मुख्य तौर पर इन दो धातुओं ने निभाना शुरू किया।

इसके साथ, सभी मालों ने अपने मूल्य को सोने तथा गौण रूप में चाँदी में अभिव्यक्त करना शुरू किया। सोने की एक निश्चित मात्रा के उत्पादन में मान लें कि 10 घण्टे लगते हैं और सोने की उस मात्रा को हम 1 शिलिंग या 1 रुपये में अभिव्यक्त करते हैं, तो कोई भी माल जिसकी एक इकाई के उत्पादन में 10 घण्टे का अमूर्त मानवीय श्रम लगता है वह एक शिलिंग या एक रुपये के साथ विनिमय किया जायेगा। सोना यहाँ मुद्रा है और मूल्य की माप (measure of value) है और उसका मूल्यवर्ग (denomination) जैसे कि शिलिंग, पाउण्ड, आना, कौड़ी, पैसा, रुपया, फ़्रैंक, आदि नाम वस्तुतः क़ीमत का मानक (standard of price) है, ताकि मालों की अलग-अलग छोटी-बड़ी मात्राओं का सुचारू रूप से विनिमय हो सके। जब हम माल के मूल्य को मुद्रा में अभिव्यक्त करते हैं, तो उसे ही क़ीमत या दाम (price) कहा जाता है। शुरुआत में यह परिभाषा काफ़ी है। बाद में हम देखेंगे कि एक-एक अलग माल के मामले में अक्सर उसके मूल्य और उसकी क़ीमत में अन्तर होता है। लेकिन फ़िलहाल इस बुनियादी परिभाषा को लेकर हम विश्लेषण को आगे बढ़ायेंगे। यानी, मुद्रा के साथ मालों का मूल्य क़ीमत-रूप (price-form) धारण कर लेता है।

यह ध्यान रखना होगा कि मूल्य के रूप के विकास के ये चरण तार्किक (logical) चरण हैं, कालानुक्रमिक (chronological) चरण नहीं। यानी, इनके इतिहास में घटित होने की प्रक्रिया एक-दूसरे के साथ अतिच्छादित रही है और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में आगे-पीछे चली है।

(अगले अंक में जारी)

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2023


 

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