Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की जीत का मतलब क्या है?

जनता को अगर भविष्य का विकल्प नहीं मिलेगा तो वह उसे अतीत में तलाशेगी और ट्रम्प ने इसी का इस्तेमाल किया। उसने “महान” अमेरिकी राष्ट्र के पुराने दिनों को वापस लाने का नारा दिया। उसने बेरोज़गारी से तंगहाल जनता को यह समझाया कि उसकी इस हालात के ज़िम्मेदार वे प्रवासी हैं जो मेक्सिको और एशिया-अफ्रीका के देशों से आकर उनकी नौकरियाँ खा जाते हैं। इसलिए वह इन प्रवासियों को देश से बाहर कर देगा और उनके आने पर रोक लगा देगा। उसने कहा कि हमारी कम्पनियाँ और पूँजीवादी घराने इसलिए मुनाफ़ा नहीं कमा पाते क्योंकि पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर उन्हें ज़्यादा खर्च करना पड़ता है। इसलिए पर्यावरण सुरक्षा के नियमों को किनारे लगाकर, वह कोयला जैसे उन ऊर्जा स्रोतों का और दोहन करेगा जो बहुत ज़्यादा प्रदूषण करते हैं। पूँजीपतियों को ज्यादा मुनाफ़ा मतलब जनता की बेहतरी!

काला धन मिटाने के नाम पर नोटबन्दी – अपनी नाकामियाँ छुपाने के लिए मोदी सरकार का एक और धोखा!

काला धन वह नहीं होता जिसे बक्सों या तकिये के कवर में या ज़मीन में गाड़कर रखते हैं। सच्चाई यह है कि देश में काले धन का सिर्फ़ 6 प्रतिशत नगदी के रूप में है । आज काले धन का अधिकतम हिस्सा रियल स्टेट, विदेशों में जमा धन और सोने की खरीद आदि में लगता है। कालाधन भी सफेद धन की तरह बाज़ार में घूमता रहता है और इसका मालिक उसे लगातार बढ़ाने की फ़ि‍राक़ में रहता है। आज पैसे के रूप में जो काला धन है वह कुल काले धन का बेहद छोटा हिस्सा है और वह भी लोगों के घरों में नहीं बल्कि बाज़ार में लगा हुआ है।

फ़ासिस्ट ट्रम्प की जीत ने उतारा साम्राज्यवाद के चौधरी के मुँह से उदारवादी मुखौटा

डोनाल्ड ट्रम्प जैसे धुर दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति के विश्व-पूँजीवाद की चोटी पर विराजमान होने से निश्‍चय ही अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया भर के मज़दूरों की मुश्किलें और चुनौतियाँ आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं। मज़दूर वर्ग को नस्लीय और धार्मिक आधार पर बाँटने की साज़‍िशें आने वाले दिनों में और परवान चढ़ने वाली हैं। लेकिन ट्रम्प की इस जीत से मज़दूर वर्ग को यह भी संकेत साफ़ मिलता है कि आज के दौर में बुर्जुआ लोकतंत्र से कोई उम्मीद करना अपने आपको झाँसा देना है। बुर्जुआ लोकतंत्र के दायरे के भीतर अपनी चेतना को क़ैद करने का नतीजा मोदी और ट्रम्प जैसे दानवों के रूप में ही सामने आयेगा। आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में परिस्थितियाँ चिल्ला-चिल्लाकर पूँजीवाद के विकल्प की माँग कर रही हैं। इसलिए वोट के ज़रिये लुटेरों के चेहरों को बदलने की चुनावी नौटंकी पर भरोसा करने की बजाय दुनिया के हर हिस्से में मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद को कचरे की पेटी में डालकर उसका विकल्प खड़ा करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को निभाने के लिए आगे आना ही होगा।

ग़रीबों के मुँह का ग्रास छीनकर बढ़ती जीडीपी और मालिकों के मुनाफ़े!

अभी भारत की अर्थव्यवस्था में तेज़ी की भी बडी चर्चा है और इसे दुनिया की सबसे तेज़ी से विकास करती अर्थव्यवस्था बताया जा रहा है। इस विकास की असली कहानी भी बहुसंख्यक श्रमिक-अर्धश्रमिक जनता की जिन्दगी पर पडे इसके असर से ही समझनी होगी। 1991 में शुरू हुए आर्थिक ‘सुधारों’ से देश की अर्थव्यवस्था कितनी मज़बूत हुई है उसकी असलियत जानने के लिए जीडीपी-जीएनपी की वृद्धि, एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट के आँकड़े, मकानों-दुकानों की कीमतें, अरबपतियों की तादाद, या सेंसेक्स-निफ्टी का उतार-चढाव देखने के बजाय हम नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो (NNMB) के सर्वे के नतीजों और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर नजर डालते हैं जो बताता है कि जीवन की अन्य सुविधाएँ – आवास, शिक्षा, चिकित्सा, आदि को तो छोड ही दें, इस दौर में ग़रीब लोगों को मिलने वाले भोजन तक की मात्रा भी लगातार घटी है। यह ब्यूरो 1972 में ग्रामीण जनता के पोषण पर नजर रखने के लिए स्थापित किया गया था और इसने 1975-1979, 1996-1997 तथा 2011-2012 में 3 सर्वे किये। इस सारे दौरान सरकारें लगातार तीव्र आर्थिक तरक्की की रिपोर्ट देती रही हैं इसलिए स्वाभाविक उम्मीद होनी चाहिये थी कि जनता के भोजन-पोषण की मात्रा में सुधार होगा लेकिन इसके विपरीत ज़मीनी असलियत उलटे ये पायी गयी कि जनता को मिलने वाले पोषण की मात्रा बढ़ने के बजाय लगातार घटती गयी है।

बड़े नोटों पर पाबन्दी – अमीरों के जुर्मों की सज़ा ग़रीबों को

वास्तविक समस्याओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए ऐसे नाटक दुनिया भर में बहुत देशों में पहले भी खूब हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। ख़ास तौर पर मोदी सरकार जो विकास, रोजगार, आदि के बड़े वादे कर सत्ता में आयी थी जो बाद में सिर्फ़ जुमले निकले, उसके लिए एक के बाद ऐसे कुछ मुद्दे और खबरें पैदा करते रहना ज़रूरी है जिससे उसके समर्थकों में उसका दिमागी सम्मोहन टूटने न पाये क्योंकि असलियत में तो इसके आने के बाद भी जनता के जीवन में किसी सुधार-राहत के बजाय और नयी-नयी मुसीबतें ही पैदा हुई हैं। इससे काला धन/भ्रष्टाचार/अपराध/आतंकवाद ख़त्म हो जायेगा – यह कहना शेखचिल्ली के किस्से सुनाने से ज़्यादा कुछ नहीं।

काले धन की वापसी के नाम पर नोटबन्दी – अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए मोदी सरकार का जनता के साथ एक और धोखा!

मोदी सरकार के काले धन की नौटंकी का पर्दा इसी से साफ हो जाता है जब मई 2014 में सत्ता में आने के बाद जून 2014 में ही विदेशों में भेजे जाने वाले पैसे की प्रतिव्यक्ति सीमा 75,000 डॉलर से बढ़ाकर 1,25,000 डॉलर कर दिया और जो अब 2,50,000 डॉलर है। केवल इसी से पिछ्ले 11 महीनों में 30,000 करोड़ धन विदेशों में गया है। विदेशों से काला धन वापस लाने की बात करने और लोगों को दो दिन में जेल भेजने वाली मोदी सरकार के दो साल बीत जाने के बाद भी आलम यह है कि एक व्यक्ति भी जेल नहीं भेजा गया।

जनता की बदहाली के दम पर दिनों-दिन बढ़ रही है भारत के धन्नासेठों की आमदनी

जहां एक ओर तो आम लोग अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर भी चिंतित हैं कि अगर कोई घर में बड़ी बीमारी का शिकार हो जाये तो उसके इलाज पर वर्षों की कमाई लग जाती है वहीं दूसरी ओर भारत के धन्नासेठ दिनों-दिन अमीर होते जा रहे हैं और सरकारें भी अपनी नीतियों द्वारा उनकी पूरी सेवा करती रहती हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था लोगों से उनकी बुनियादी ज़रूरतें भी दिनों-दिन छीन रही है जबकि ऊपर वाला वर्ग अय्याशी में डूबा हुआ है। ऐसी मानवद्रोही व्यवस्था को बदलना आज हर इंसाफ़पसंद व्यक्ति की माँग होनी चाहिए।

दाल की बढ़ती कीमतों की हक़ीक़त

कृषि पैदावार की तमाम फसलें आज सट्टा और वायदा कारोबारियों के कब्ज़े में पूरी तरह आ चुकी हैं। आमतौर पर सट्टा कारोबारी सबसे पहले फसलों की पैदावार की स्थितियों पर नज़र रखते हैं यानी किस फसल के खराब होने की संभावना है या कौन सी फसल की पैदावार कम हो सकती है। एक बार ऐसी फसल की पहचान होने पर सट्टा कारोबारी कार्टेल का गठन करते हैं और पहचान की गयी फसल के पहले से संचित भंडारों के साथ ही साथ नई फसल को भी खरीद लेते हैं।

लुभावने जुमलों से कुछ न मिलेगा, हक़ पाने हैं तो लड़ना होगा!

अपने देश में एक ओर छात्रों-युवाओं, मज़दूरों, दलितों, अल्पसंख्यकों का जिस तरह दमन किया जा रहा है और दूसरी ओर गोरक्षा से लेकर लव जिहाद तक जिस तरह से उन्माद भड़काया जा रहा है वह भी इसी तस्वीर का एक हिस्सा है। पूँजीवादी व्यदवस्था का संकट दिनोंदिन गहरा रहा है और जनता की उम्मीदों को पूरा करने में दुनियाभर की पूँजीवादी सरकारें नाकाम हो रही हैं। पूँजीपतियों के घटते मुनाफ़े और बढ़ते घाटे को पूरा करने के लिए मेहनतकशों की रोटी छीनी जा रही है, उनके बच्चों से स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार छीने जा रहे हैं, लड़कर हासिल की गयी सु‍विधाओं में एक-एक कर कटौती की जा रही है।

लाखों खाली पड़े घर और करोड़ों बेघर लोग – पूँजीवादी विकास की क्रूर सच्चाई

खाये-पीये-अघाये लोग ज़ि‍न्दगी की हक़ीक़त से इतना कटे रहते हैं कि महानगरों के भूदृश्य में उन्हें बस गगनचुंबी इमारतें ही नज़र आती हैं और चारों ओर विकास का गुलाबी नज़ारा ही दिखायी देता है। लेकिन एक आम मेहनतकश की नज़र से महानगरों के भूदृश्य पर नज़र डालने पर हमें झुग्गी-झोपड़ि‍यों और नरक जैसे रिहायशी इलाकों के समुद्र के बीच कुछ गगनचुंबी इमारतें विलासिता के टापुओं के समान नज़र आती हैं। विलासिता के इन टापुओं पर थोड़ा और क़रीबी से नज़र दौड़ाने पर हमें इस अजीबोगरीब सच्चाई का भी एहसास होता है कि झुग्गियों के समुद्र के बीच के इन तमाम टापुओं में ऐसे टापुओं की कमी नहीं है जो वीरान पड़े रहते हैं, यानी उनमें कोई रहने वाला ही नहीं होता।