Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

बढ़ते आर्थिक अन्तर

स्विट्जरलैंड के एक बैंक क्रेडिट स्विस की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में अमीर-गरीब के बीच का अन्तर लगातार बढ़ रहा है। यह अन्तर इतिहास के किसी भी दौर से अब अधिक हो चुका है, जहाँ ऊपर की 1% आबादी की कुल संपत्ति बाकी 99% आबादी की संपत्ति के बराबर हो चुकी है। इस रिपोर्ट के अनुसार ऊपर की 1% आबादी के पास संसार की कुल सम्पदा का लगभग 50% हिस्सा है, जबकि नीचे की 50% आबादी के पास इसका 1% भी नहीं बनता| ऊपर की 10% आबादी के पास संसार की 87.7% संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है, जबकि नीचे की 90% आबादी के पास केवल 12.3% हिस्सा है।

आर्थिक संकट की चपेट में विकसित मुल्कों के मेहनतकश लोग

व्यापक मेहनतकश आबादी पूँजीवादी व्यवस्था में सदा महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी आदि समस्याओं से जूझती रहती है पर मन्दी के दौर में ये समस्याएँ और बड़ी आबादी को अपने शिकंजे में ले लेती हैं। बेरोज़गारों की लाइनें और तेज़ी से लम्बी होती हैं और रोज़गारशुदा आबादी की आमदनी में गिरावट आती है। इसी कारण से आज संसार के सबसे विकसित मुल्कों में भी आम लोगों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है।

गहराते आर्थिक संकट के बीच बढ़ रहा वैश्विक व्यापार युद्ध का ख़तरा

इतिहास का तथ्‍य यही है कि पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े के लिए युद्ध जैसे अपराधों को लगातार अंजाम देता रहा है। आज इसके मुकाबले के लिए और इसे रोकने के लिए गाँधीवादी, शान्तिवादी कार्यक्रमों और अपीलों की नहीं बल्कि एक रैडिकल, जुझारू अमन-पसन्द आन्दोलन की ज़रूरत है जिसकी धुरी में मज़दूर वर्ग के वर्ग-संघर्ष के नये संस्करण होंगे।

किसानों-खेत मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याएँ और कर्ज़ की समस्या : जिम्‍मेदार कौन है? रास्‍ता क्‍या है?

पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार भी पूँजीपतियों की सेवा के लिए होती है। दूसरे उद्योग के मुक़ाबले कृषि हमेशा पिछड़ जाती है। इसलिए सरकार की ओर औद्योगिक व्यवस्था (सड़कें, फ्लाइओवर आदि) में निवेश करने और औद्योगिक पूँजी को टैक्स छूट, कर्ज़े माफ़ करने जैसी सहायता देने के लिए तो बहुत सारा धन लुटाया जाता है पर कृषि के मामले में यह निवेश नाममात्र ही होता है। इसके अलावा कृषि के लिए भिन्न-भिन्न पार्टियाँ और सरकारें जो करती हैं वह भी धनी किसानों, धन्नासेठों आदि के लिए होता है, ग़रीब किसानों और मज़दूरों के हिस्‍से में कुछ भी नहीं आता। सरकारों के ध्यान ना देने के कारण ग़रीब किसान और खेत मज़दूर हाशिए पर धकेल दिये जाते हैं।

उद्योग सुस्त, रोज़गार सृजन पस्त, महँगाई बढ़ी, आमदनी घटी – ”अच्छे दिनों” की बुरी हक़ीक़त!

रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि आम मज़दूरों और साधारण विश्वविद्यालय-कॉलेजों से पढ़ने वालों को तो रोज़गार की मण्डी में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक ‘सौभाग्य’ के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की ज़रूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय स्टार्ट अप वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! फ्लिपकार्ट, एल एंड टी इन्फ़ोटेक जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफ़र दिये थे वे काग़ज़ के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ज्वाइन नहीं कराया जा रहा है!

जीएसटी और अन्य टैक्स नीतियों का मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी पर असर

यद्यपि जीएसटी की दर कहने के लिये सब पर बराबर होगी लेकिन इसका असर अमीर और गरीब लोगों पर बराबर नही होगा। जहां ज़्यादातर गरीब लोग अपनी सारी कमाई से किसी तरह जीवन चलाते हैं तो उनकी पूरी आय पर यह 18 से 22% टैक्स लग जायेगा क्योंकि जीएसटी लगभग सभी वस्तुओं – सेवाओं पर लगेगा। वहीं क्योंकि अमीर तबका अपनी आय का एक छोटा हिस्सा ही इन पर खर्च करता है तो…

पनामा पेपर्स मामला : पूँजीवादी पतन का एक प्रतिनिधि उदाहरण

फ़र्ज़ी कंपनियाँ बनाकर पूरे विश्व के धन-कुबेर किस तरीके से अपनी कमाई को टैक्सों से बचाते हैं, यही इज़हार हुआ है पनामा की एक कंपनी ‘मोसाक फोंसेका’ के बारे में हुए खुलासे से। ये खुलासे इतिहास के इस तरह के सबसे बड़े खुलासे बताए जा रहे हैं क्योंकि कुल दस्तावेज़ों की गिनती 1।15 करोड़ से भी ज़्यादा है । इन खुलासों से इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की सड़न नज़र आती है क्योंकि इन खुलासों में कोई एक-आध दर्जन व्यक्तियों मात्र के नाम नहीं है बल्कि पूरे विश्व में फैले इस फ़र्ज़ी कारोबार की कड़ियाँ पूँजीपतियों, राजनेतायों, फ़िल्मी कलाकारों, खिलाड़ियों आदि से जुड़ी हैं ।

देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूट रहे मोदी सरकार के चहेते

अंबानी-अडानी ग्रुप को हज़ारों एकड़ जमीन एक रुपये की दर पर और तमाम पूँजीपतियों और उनके सेवकों को कौड़ियों के भाव ज़मीनें और प्राकृतिक संसाधन लुटाने वाली सरकार कहती है कि ग़रीबों को मिलने वाली सब्सिडी से अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है, उन्हें ख़त्म करना ज़रूरी है। इसीलिए लगातार शिक्षा, स्वास्थ्य के मदों में कटौती कर रही है और मेहनतकशों की हड्डि‍याँ ज़्यादा निचोड़कर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भर रही है ।

सेठों ने डकारे बैंकों के 1.14 लाख करोड़ रुपये

यह रकम कितनी बड़ी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर ये सारे कर्ज़दार अपना कर्ज़ा लौटा देते तो 2015 में देश में रक्षा, शिक्षा, हाईवे और स्वास्थ्य पर खर्च हुई पूरी राशि का खर्च इसीसे निकल आता। इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। पूँजीपतियों के मीडिया में हल्ला मचा-मचाकर लोगों को यह विश्वास दिला दिया जाता है…

अर्थव्यवस्था का संकट और मज़दूर वर्ग

असल में हर आर्थिक संकट मज़दूरों के जीवन में तबाही लाता है। आर्थिक संकट और उसके बाद मन्दी और अर्थव्यवस्था में ठहराव से बेरोज़गारी और ज़बरदस्त तबाही फैलती है। यह मज़दूरों के बड़े हिस्से को पूँजीवाद के ख़िलाफ़ संगठित होने का मौक़ा देता है। यही वह समय होता है कि जब हम संगठित होकर अपने लुटेरों पर हल्‍ला बोल सकते हैं।