Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

बेहिसाब बढ़ती छँटनी और बेरोज़गारी

छँटनी और बेरोज़गारी इस वक़्त पूरे देश की आम मेहनतकश जनता के लिए एक भारी चिन्ता का विषय है। 2014 के चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता नरेन्द्र मोदी ने पिछली सरकार की रोज़गार सृजन न कर पाने के लिए तीव्र आलोचना की थी और इसे अपना मुख्य लक्ष्य बताते हुए प्रति वर्ष करोड़ों नयी नौकरियाँ देने का वादा किया था। लेकिन वस्तुस्थिति इसके ठीक उलट है। 2015-16 के आर्थिक सर्वे में कहा गया कि 2011-12 में बेरोज़गारी 3.8% थी, जो 2015-16 में बढ़कर 5% हो गयी। वैसे यह संख्या और भी ज़्यादा है क्योंकि किसी भी काम में साल के कुछ भी दिन लगे व्यक्तियों को इसमें बेरोज़गार नहीं गिना जाता।

बैंक कानून में संशोधन अध्यादेश : हज़ारों करोड़ कर्ज़ लेकर डकार जाने वालों की भरपाई का बोझ उठाने के लिए जनता तैयार रहे

2001-02 के समय में जो आर्थिक संकट का दौर था उसमें पूँजीवादी देशों के केन्द्रीय बैंकों द्वारा ब्याज़ दरों को कम कर पूँजीपतियों को राहत देने की नीति अपनायी गयी थी जिसे सस्ती मुद्रा नीति भी कहा जाता है। इससे जो सस्ता धन क़र्ज़ के रूप में उपलब्ध हुआ उससे ज़मीन-मकान और शेयर-बाण्ड्स जैसी वित्तीय सम्पत्तियों के दामों में भारी वृद्धि द्वारा एक नक़ली सम्पन्नता का माहौल बनाया गया जिससे कुछ समय तक बाज़ार में माँग बढ़ी ख़ास तौर पर किश्तों पर ख़रीदारी द्वारा। पूँजीपतियों को भी ख़ूब सस्ता क़र्ज़ निवेश के लिए मिला और उन्होंने उत्पादक क्षमता में निवेश भी किया। लेकिन कुछ साल बाद ही इससे पैदा हुए तीव्र आर्थिक संकट ने इस माँग को चौपट कर दिया। अभी रिज़र्व बैंक के अनुसार भारतीय उद्योग स्थापित क्षमता के 68-70% पर ही काम कर पा रहे हैं। इसलिए कुछ उद्योगों का दिवालिया होना इसका स्वाभाविक नतीजा है। यही बैंकों के क़र्ज़ों को संकट में डाल रहा है।

क्या छँटनी/बेरोज़गारी की वज़ह ऑटोमेशन है?

19वीं सदी से शुरू हुए श्रमिक संघर्षों ने 8 घंटे काम, 8 घंटे आराम, 8 घंटे मनोरंजन के सिद्धांत को स्थापित किया था। लेकिन आज भी स्थिति है कि अधिकांश कामगार इससे बहुत ज़्यादा, 12-14 घंटे तक भी काम करने के लिए मजबूर हैं; खुद को मज़दूर न मानने वाले सफ़ेद कॉलर वाले बैंक, आईटी, प्रबंधन, आदि वाले तो सबसे ज्यादा! फिर श्रमिक फालतू कैसे हो गए, जैसा कि कहा जा रहा है कि आगे काम ही नहीं रहेगा?

मज़दूर विरोधी आर्थिक सुधारों के खि़लाफ़ ब्राज़ील के करोड़ों मज़दूर सड़कों पर उतरे

28 अप्रैल 2017 को ब्राज़ील में इस देश की अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल हुई है। सभी 26 राज्यों और फे़डर्ल जि़ले में हुई हड़ताल में साढ़े तीन करोड़ मज़दूरों ने हिस्सा लिया है। अगले दिनों में भी ज़ोरदार प्रदर्शन हुए हैं। मई दिवस पर बड़े आयोजन किये गये हैं। इन प्रदर्शनों में अनेकों जगहों पर पुलिस और प्रदर्शनकारियों में तीखी झड़पें हुई हैं। पुलिस ने जगह-जगह प्रदर्शनों को रोकने के लिए पूरा ज़ोर लगाया, लेकिन अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरे मज़दूरों के सामने पुलिस की एक न चली। गोलीबारी, आँसू गैस, गिरफ़्तारियाँ, बैरीकेड – पुलिस ने मज़दूरों को रोकने के लिए बहुत कुछ अाज़माया, लेकिन मज़दूरों का सैलाब रोके कहाँ रुकता था। सड़कें जाम कर दी गयीं। पुलिस के बैरीकेड तोड़ फेंके गये। गाँवों में ट्रैक्टरों से गलियाँ बन्द कर दी गयीं। ‘‘भूतों’’ से पीछा छुड़ाते हुए टेमेर जिस नये घर में आया है, वहाँ ज़ोरदार प्रदर्शन हुआ। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रोकने की कोशिश की तो ज़बरदस्त पथराव के ज़रिये जवाब दिया गया।

अर्थव्यवस्था चकाचक है तो लाखों इंजीनियर नौकरी से निकाले क्यों जा रहे हैं?

पिछले कुछ महीनों में देश की सबसे बड़ी 7 आईटी कम्पनियों से हज़ारों इंजीनियरों और मैनेजरों को निकाला जा चुका है। प्रसिद्ध मैनेजमेंट कन्सल्टेंट कम्पनी मैकिन्सी ‍की रिपोर्ट के अनुसार अगले 3 सालों में हर साल देश के 2 लाख साफ्टवेयर इंजीनियरों को नौकरी से निकाला जायेगा। यानी 3 साल में 6 लाख। ऐसा भी नहीं है कि केवल आईटी कम्पनियों से ही लोग निकाले जा रहे हैं। सबसे बड़ी इंजीनियरिंग कम्पनियों में से एक लार्सेन एंड टुब्रो (एल एंड टी) ने भी पिछले महीने एक झटके में अपने 14,000 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। ये तो बड़ी और नामचीन कम्पनियों की बात है, लेकिन छोटी-छोटी कम्पनियों से भी लोगों को निकाला जा रहा है। आईटी सेक्टर की कम्पनियों की विकास दर में भयंकर गिरावट है। जिन्होंने 20 प्रतिशत का लक्ष्य रखा था उनके लिए 10 प्रतिशत तक पहुँचना भी मुश्किल होता जा रहा है। अर्थव्यवस्था की मन्दी कम होने का नाम नहीं ले रही है और नये रोज़गार पैदा होने की दर पिछले एक दशक में सबसे कम पर पहुँच चुकी है।

रेलवे का किश्तों में और गुपचुप निजीकरण जारी

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र की भाजपा सरकार ने भारतीय रेल के निजीकरण का मन बना लिया है और क्रमिक ढंग से यह सिलसिला चालू भी कर दिया है। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगे जुड़वा शहर हबीबगंज का रेल स्टेशन म.प्र. की निजी कम्पनी बंसल पाथवे के हवाले कर दिया गया है। यह कम्पनी न सिर्फ़ इस स्टेशन का संचालन करेगी बल्कि रेलगाड़ियों के आवागमन का भी नियन्त्रण करेगी। जुलाई 2016 में कम्पनी के साथ किये गये क़रार के अन्तर्गत कम्पनी हवाई अड्डों के तर्ज पर रेलवे स्टेशन की इमारत का निर्माण करेगी और स्टेशन की पार्किंग, खान-पान सब उसके अधीन होगा और उससे होने वाली आमदनी भी उसकी होगी।

क्या रेलवे में दो लाख से ज़्यादा नौकरियाँ कम कर दी गयी हैं…

2017 की यूपीएससी की परीक्षा के लिए 980 पद तय हुए हैं। पिछले पाँच साल में यह सबसे कम है। बाक़ी आप क़ब्रिस्तान और श्मशान के मसले को लेकर बहस कर लीजिए। इसी को ईमानदारी से कर लीजिए। लोग अब नालों के किनारे अन्तिम संस्कार करने लगे हैं। ज़्यादा दूर नहीं, दिल्ली से सिर्फ़ बीस किमी आगे लखनऊ रोड पर। बोलिए कि इसके विकल्प में कोई सरकार क्या करने वाली है। क़ब्रिस्तानों पर भूमाफि़याओं के क़ब्ज़े हैं। ये माफि़या हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी हैं। बताइए कि क्या ये ज़मीनें मुक्त हो पायेंगी। लेकिन इसमें ज़्यादा मत उलझिए। नौकरी के सवाल पर टिके रहिए। मर गये तो कौन कैसे फूँकेंगे या गाड़ेगा यह कैसे पता चलेगा और जानकर करना क्या है। हम और आप तो जा चुके होंगे।

नया वित्त विधेयक : एक ख़तरनाक क़ानून

बुर्जुआ जनतन्त्र में जैसा प्रचार किया जाता है, सारी जनता के लिए जनतन्त्र वैसा होता नहीं। असल में तो यह मेहनतकश लोगों पर बुर्जुआ अधिनायकत्व है, सत्ताधारी पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग के शोषण की व्यवस्था की हिफ़ाज़त का औज़ार है। यह पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत के मुताबिक़ ही काम करता है – जब जनतन्त्र का नाटक करना हो तो वह किया जाता है; जब संकट की स्थिति में जनतन्त्र का नाटक छोड़कर मेहनतकश तबके पर फासीवाद का नग्न आक्रमण करना हो तो यही संवैधानिक व्यवस्था बिना किसी रुकावट के उसकी भी पूरी इजाज़त देती है।

बेरोज़गारी ख़त्म करने के दावों के बीच बढ़ती बेरोज़गारी!

अधिकांश प्रतिष्ठानों ने अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए मज़दूरियों पर होने वाले ख़र्चों में बड़ी कटौतियाँ करने की योजनाएँ बनायी हैं और उत्पादन की आधुनिक तकनीकों का विकास उनके मनसूबों को पूरा करने में मदद पहुँचा रहा है। पूँजीवाद के आरम्भ से ही पूँजीपति वर्ग ने विज्ञान और तकनीकी पर अपनी इज़ारेदारी क़ायम कर ली थी। तब से लेकर आज तक उत्पादन की तकनीकों में होने वाले हर विकास ने पूँजीपतियों को पहले से अधिक ताक़तवर बनाया है और मज़दूरों का शोषण करने की उनकी ताक़त को कई गुना बढ़ा दिया है।

अर्थव्यवस्था की विकास दर बढ़ने के आँकड़े : जुमला सरकार का एक और झूठ

पि‍छले दिनों, चुनावों से ठीक पहले जुमला सरकार ने एक और फर्जी आँकड़ा जारी किया कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था की विकास दर और तेज हो गई! कॉर्पोरेट कारोबारी मीडिया में भी कोई इसको स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि दिसम्बर तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7% की बढ़ोत्‍तरी हो गयी। सच तो यह है कि हर कंपनी के इस तिमाही के नतीजे बता रहे हैं बिक्री में कमी आयी, चाहे साबुन-तेल-चाय पत्ती हो या स्कूटर-मोटर साइकिल या पेंट – मगर सरकार कहती है निजी खपत 10% बढ़ गई है! शायद लोगों ने नोटबंदी के वक्त बैंकों की लाइनों में लगकर भारी खरीदारी की, पर बिक्री हुई नहीं। खेतों में खड़ी फसल आयी भी नहीं थी मगर आँकड़ों में खेती में पिछले महीने से वृद्धि और भी बढ़ गई, रिकॉर्ड उत्पादन होने वाला है। अगर ऐसा है तो फिर सरकार 25 लाख टन गेहूँ आयात क्यों कर रही है, वह भी महँगे दामों पर?