Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

सुब्रत राय सहारा: परजीवी अनुत्पादक पूँजी की दुनिया का एक धूमकेतु

यूँ तो पैराबैंकिंग क्षेत्र में पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से बड़े-बड़े घोटाले (ताजा मामला सारदा ग्रुप का है) होते रहे हैं, पर सुब्रत राय अपने आप में एक प्रतिनिधि घटना ही नहीं बल्कि परिघटना हैं। सुब्रत राय भारत जैसे तीसरी दुनिया के किसी देश में ही हो सकते हैं, जहाँ अनुत्पादक परजीवी पूँजी का खेल राजनेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों, तरह-तरह के काले धन की संचयी जमातों और काले धन के सिरमौरों की मदद से खुलकर खेला जाता है। लेकिन पूँजी के खेल के नियमों का अतिक्रमण जब सीमा से काफी आगे चला जाता है तो व्यवस्था और बाज़ार के नियामक इसे नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाते हैं और तब सबसे “ऊधमी बच्चे” को या तो कोड़े से सीधा कर दिया जाता है या खेल के मैदान से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। सुब्रत राय के साथ यही हुआ है।

लुटेरे थैलीशाहों के लिए “अच्छे दिन” – मेहनतकशों और ग़रीबों के लिए “कड़े क़दम”!

सिर्फ़ एक महीने के घटनाक्रम पर नज़र डालें तो आने वाले दिनों की झलक साफ़ दिख जाती है। एक ओर यह बिल्कुल साफ़ हो गया है कि निजीकरण-उदारीकरण की उन आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव नहीं होने वाला है जिनका कहर आम जनता पिछले ढाई दशक से झेल रही है। बल्कि इन नीतियों को और ज़ोर-शोर से तथा कड़क ढंग से लागू करने की तैयारी की जा रही है। दूसरी ओर, संघ परिवार से जुड़े भगवा उन्मादी तत्वों और हिन्दुत्ववादियों के गुण्डा-गिरोहों ने जगह-जगह उत्पात मचाना शुरू कर दिया है। पुणे में राष्ट्रवादी हिन्दू सेना नामक गुण्डा-गिरोह ने सप्ताह भर तक शहर में जो नंगा नाच किया जिसकी परिणति मोहसिन शेख नाम के युवा इंजीनियर की बर्बर हत्या के साथ हुई, वह तो बस एक ट्रेलर है। इन दिनों शान्ति-सद्भाव और सबको साथ लेकर चलने की बात बार-बार दुहराने वाले नरेन्द्र मोदी या उनके गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस नृशंस घटना पर चुप्पी साध ली। मेवात, मेरठ, हैदराबाद आदि में साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं और कई अन्य जगहों पर ऐसी हिंसा की घटनाएँ हुई हैं।

रिलायंस की गैस का गोरखधन्धा

जब दुनिया में कहीं भी गैस की उत्पादन लागत 1.43 डॉलर से ज़्यादा नहीं है तो रिलायंस को इतनी ऊँची दर क्यों दी जा रही है। इतना ही नहीं, 2011 में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार रिलायंस बिना कोई कुआँ खोदे ही पेट्रोलियम मिलने के दावे करती रही। रिलायंस को पता ही नहीं था कि उसके पास कितने कुओं में कितनी गैस है। दूसरे, रिलायंस को केजी बेसिन के केवल एक चौथाई हिस्से पर काम करना था, लेकिन पीएसी कॉण्ट्रैक्ट के ख़ि‍लाफ़ जाकर रिलायंस ने समूचे बेसिन में काम शुरू कर दिया और सरकार ने इसमें कोई टोका-टाकी तक नहीं की।

केजरीवाल की आर्थिक नीति: जनता के नेता की बौद्धिक कंगाली या जोंकों के सेवक की चालाकी

जब केजरीवाल कहते हैं कि “हमें निजी व्यापार को बढ़ावा देना होगा” तो इसका मतलब होता है कि हमें पूँजीपतियों की लूट को बढ़ावा देना होगा, उनको और खुली छूट देनी पड़ेगी। जब वह कहते हैं कि “सरकार का काम व्यापार के लिए सुरक्षित माहौल देना है” तो वह किन लोगों से सुरक्षा की बात करते हैं? उनका मतलब है इस कारोबार में लूटे जा रहे मेहनतकश लोगों की तरफ़ से इस लूट के खि़लाफ़ और अपने अधिकारों के लिए लड़े जा रहे संघर्षों से सुरक्षा, “कारोबार” शुरू करने के लिए ज़मीनों से बेदखल किये जा रहे किसानों के विद्रोहों से सुरक्षा। केजरीवाल का कहना है कि पूँजीपति ही दौलत और रोज़गार पैदा करते हैं। लेकिन अगर समाज के विज्ञान को समझें तो पूँजीपति नहीं बल्कि श्रम करने वाले लोग हैं जो दौलत पैदा करते हैं, पूँजीपति तो उनकी पैदा की हुई दौलत को हड़प जाते हैं। इसी तरह पूँजीपति रोज़गार देकर लोगों को नहीं पाल रहे, बल्कि वास्तव में मज़दूर वर्ग इन परजीवियों को जिला रहा है।

गहराता आर्थिक संकट, फासीवादी समाधान की ओर बढ़ती पूँजीवादी राजनीति और विकल्प का सवाल

राष्ट्रीय पैमाने पर आज पूँजीपति वर्ग क्या चाहता है? जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने एक लेख में कहा है, वह कठोर नवउदारवाद और साफ़-सुथरे नवउदारवाद के बीच विकल्प चुन रहा है। आज पूरी दुनिया में पूँजीपति वर्ग के लिए भ्रष्टाचार पर नियंत्रण एक बड़ा मुद्दा है। ख़ास तौर पर सरकारी भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पूँजीपति वर्ग की एक ज़रूरत है। ज़ाहिर है, लुटेरे यह नहीं चाहते कि लूट के उनके माल में दूसरे भी हिस्सा बँटायें। विश्व बैंक से लेकर तमाम अन्तरराष्ट्रीय पूँजीवादी थिंकटैंक भ्रष्टाचार, ख़ासकर सरकारी भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए पिछले कुछ वर्षों में काफी सक्रिय हुए हैं। कई देशों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध “सिविल सोसायटी” के आन्दोलनों को वहाँ के पूँजीपति वर्ग का समर्थन है। इसीलिए पूरा मीडिया ‘आप’ की हवा बनाने में लगा रहा है। इसीलिए अन्ना के आन्दोलन के समय से ही टाटा से लेकर किर्लोस्कर तक पूँजीपतियों का एक बड़ा हिस्सा इस आन्दोलन को समर्थन दे रहा था। और इंफोसिस के ऊँचे अफसरों से लेकर विदेशी बैंकों के आला अफसर और डेक्कन एअरलाइंस के मालिक कैप्टन गोपीनाथ जैसे उद्योगपति तक आप पार्टी में शामिल हो रहे हैं। दावोस में विश्व आर्थिक मंच में पहुँचे भारत के कई बड़े उद्योगपतियों ने कहा कि वे ‘आप’ के इरादों का समर्थन करते हैं। मगर अभी पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से ने अपना दाँव फासिस्ट कठोरता के साथ नवउदारतावादी नीतियाँ लागू करने की बात कर रहे मोदी पर लगाया हुआ है। ‘आप’ अगर एक ब्लॉक के रूप में भी संसद में पहुँच गयी तो सरकारी भ्रष्टाचार पर कुछ नियंत्रण लगाने में मदद करेगी। मगर ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि यह पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प नहीं बन सकती और यह आगे चलकर या तो एक दक्षिणपंथी दल के रूप में संसदीय राजनीति में व्यवस्थित हो जायेगी या फिर बिखर जायेगी। इसके बिखरने की स्थिति में इसके सामाजिक समर्थन-आधार का बड़ा भाग हिन्दुत्ववादी फासीवाद के साथ ही जुड़ेगा।

स्पेन में गहराता आर्थिक संकट आम लोगों को आत्महत्या की ओर धकेल रहा है

स्पेन में रोजाना 512 लोगों को बेघर किया जा रहा है जो कि पिछले वर्ष से 30 फीसदी ज़्यादा है। अब तक स्पेन में चार लाख से ज़्यादा लोगों को बेघर किया जा चुका है, सिर्फ वर्ष 2012 के दौरान 1,01,034 लोगों को बेघर किया गया है। स्पेन में बढ़ रही बेरोज़गारी और घर छीने जाने से परेशान लोग आत्महत्या कर रहे हैं। आत्महत्या के कारण होने वाली मौतों की गिनती हादसों में होने वाली मौतों से 120 प्रतिशत ज़्यादा है। दूसरी तरफ स्पेन के बैंक, पूँजीपति और राजनेता अमीर होते जा रहे हैं। एक तरफ लाखों लोग बेघर हो गए हैं और फुटपाथ पर सोने को मजबूर हैं, दूसरी तरफ 20 लाख से ज़्यादा मकान खाली पड़े हैं जिनके लिए कोई ख़रीदार नहीं मिल रहा। इस तरह हम देख सकते हैं कि कैसे एक तरफ धन के अम्बार लगे हुए हैं दूसरी तरफ लोगों के लिए दो वक्त की रोटी भी मुश्किल बनी हुई है।

भ्रष्टाचार-मुक्त सन्त पूँजीवाद के भ्रम को फैलाने का बेहद बचकाना और मज़ाकिया प्रयास

जब-जब पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नंगई और बेशरमी की हदों का अतिक्रमण करती हैं, तो उसे केजरीवाल और अण्णा हज़ारे जैसे लोगों की ज़रूरत होती है, तो ज़ोर-ज़ोर से खूब गरम दिखने वाली बातें करते हैं, और इस प्रक्रिया में उस मूल चीज़ को सवालों के दायरे से बाहर कर देते हैं, जिस पर वास्तव में सवाल उठाया जाना चाहिए। यानी कि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था। आम आदमी पार्टी का घोषणापत्र भी यही काम करता है। यह मार्क्स की उसी उक्ति को सत्यापित करता है जो उन्होंने ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में कही थी। मार्क्स ने लिखा था कि पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा हमेशा समाज में सुधार और धर्मार्थ कार्य करता है, ताकि पूँजीवादी व्यवस्था बरक़रार रहे।

तेल की बढ़ती कीमतों का बोझ फिर मेहनतकश जनता पर

सच तो यह है कि पेट्रोल की खपत को तभी कम किया जा सकता है, जब सार्वजनिक परिवहन की एक ऐसी चुस्त-दुरुस्त प्रणाली विकसित की जाये कि लग्ज़री गाड़ियों, कारों, मोटरसाइकिलों और स्कूटरों के निजी उपयोग की ज़रूरत न रहे। स्कूलों-कालेजों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों, खरीदारी और मनोरंजन स्थलों तक पहुँचने के लिए सड़कों पर पर्याप्त संख्या में सुविधाजनक (आज की तरह खटारा बसें नहीं) बसें थोड़े-थोड़े अन्तरालों पर दौड़ती रहें। कम दूरी के लिए साइकिलों का इस्तेमाल हो। परन्तु बाज़ार और मुनाफे की इस व्यवस्था के रहते निजी उपभोग की प्रणाली को ख़त्म नहीं किया जा सकता। निजी कारों और गाड़ियों के इस्तेमाल पर रोक लगाना तो दूर रहा इनके निजी उपयोग को कम भी नहीं किया जा सकता। और न ही तेल की कीमतों की बढ़ोत्तरी पर लगाम लगायी जा सकती है। यह कोई अचानक पैदा होने वाला संकट नहीं बल्कि संकटग्रस्त पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की ही देन है और इसके ख़ात्मे के साथ ही यह ख़त्म होगा।

ग़रीबी-बदहाली के गड्ढे में गिरते जा रहे अमेरिका के करोड़ों मेहनतकश लोग

अमेरिका में बच्चों की ग़रीबी के बारे में ज़्यादा आँकड़े जारी किये जाते हैं। सरकारी पैमाने के मुताबिक़ अमेरिका के 18 साल से कम उम्र वाले 22 फ़ीसदी बच्चे यानी 1.67 करोड़ बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। बच्चों के मामले में काली आबादी की हालत और भी बदतर है, क्योंकि इस आबादी में 39 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। इसी तरह लातिनी बच्चों की हालत भी काफ़ी बुरी है। लातिनी बच्चों का 34 फ़ीसदी ग़रीबी रेखा से नीचे माना गया है। ग़रीबी की हालत में रहने वाले बच्चों को भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन आदि की न्यूनतम ज़रूरतों की पूर्ति या तो होती ही नहीं या बेहतर तरीक़े से नहीं होती। अमेरिका के पब्लिक स्कूलों में लगभग एक लाख पैंसठ हज़ार बेघर बच्चे हैं। विधवा या पति से अलग हो चुकी औरतों के बच्चों की हालत भी बहुत दयनीय है। 2010 के एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अमेरिका में ऐसे बच्चों की संख्या 1.08 करोड़ है यानी कुल बच्चों का 24 फ़ीसदी। इन बच्चों में 42.2 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। स्पेनी मूल के परिवारों के 50.9 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी झेल रहे हैं। काले लोगों के लिए यह 48.8, एशियाई मूल के लोगों के लिए 32.1 और ग़ैर-स्पेनी लोगों के लिए 32.1 फ़ीसदी है।

राष्ट्रपति मोर्सी सत्ता से किनारे, मिस्र एक बार फिर से चौराहे पर

इस तरह एक वार फिर, मिस्र की घटनाएँ यह साफ कर रही हैं कि पूँजीपति वर्ग की सत्ता का विकल्‍प मज़दूर वर्ग की सत्ता ही है और पूँजीवाद का विकल्‍प आज भी समाजवाद है। और किसी भी तरीके से पूँजीवाद का विरोध हमें ज़्यादा से ज़्यादा किसी चौराहे पर लाकर ही छोड़ सकता है, रास्ता नहीं दिखा सकता। भविष्य का रास्ता मज़दूर वर्ग की विचारधारा मार्क्सवाद और मार्क्सवादी उसूलों पर गढ़ी तथा जनसंघर्षों-आंदोलनों में तपी-बढ़ी मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी ही दिखा सकती है। मगर तब भी मिस्र की ताजा घटनाओं का महत्त्व कम नहीं हो जाता, इनसे यह एक बार फिर साबित होता है कि जनता अनंत ऊर्जा का स्रोत है, जनता इतिहास का बहाव मोड़ सकती है, मोड़ती रही है और मोड़ती रहेगी। मिस्र का आगे का रास्ता फिलहाल अँधेरे में डूबा दिखाई दे रहा है, लेकिन यह अकेले मिस्र की होनी नहीं है, तमाम दुनिया में अवाम रास्तों की तलाश कर रहा है।