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यूनानी जनता में पूँजीवाद के विकल्प की आकांक्षा और सिरिज़ा की शर्मनाक ग़द्दारी

यूनान की बात करें तो सिरिज़ा की सरकार वैसे भी पूर्ण बहुमत में भी नहीं है, बल्कि वह दक्षिणपन्थी राष्ट्रवादी पार्टी अनेल के साथ गठबन्धन चला रही है। चुनाव के पहले गरमा-गरम जुमलों का इस्तेमाल करने वाली सिरिज़ा सरकार में आते ही उसी भाषा में बात करने लगी जिस भाषा में पूर्ववर्ती न्यू डेमोक्रेसी और पासोक की संशोधनवादी और बुर्जुआ सरकार बात करती थीं। उसने सत्ता में आते ही यूरोपीय संघ के साथ समझौता करके जर्मनी के नवउदारवादी एजेण्डे के सामने घुटने टेक दिये। सिरिज़ा की यह समझौतापरस्ती और अब खुलेआम ग़द्दारी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

यूनान में फ़ासीवाद का उभार

जब आम लोगों का विरोध इस कदर बढ़ जाता है कि वह पूँजीवाद की लूट की नीतियां को लागू होने में रुकावट बन जाता हैं और पूँजीवाद की पहली कतार की राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता संभालने अर्थात लोगों पर डंडा चलाने में असमर्थ हो जाती हैं तो इस काम के लिए पूँजीवाद गोल्डन डॉन जैसी फ़ासीवादी पार्टियों का सहारा लेता है। दूसरी ओर, यही वह ऐतिहासिक क्षण होते हैं जब समाज को आगे लेकर जाने वाली क्रांतिकारी ताकतों के पास लोगों के समक्ष पूँजीवादी ढाँचे के मनुष्य विरोधी चरित्र को पहले से कहीं अधिक नंगा करने और इसके होते हुए मानवता के लिए किसी भी किस्म के अमन-चौन की असंभा‍विता और सब से ऊपर, पूँजीवादी ढाँचे के ऐतिहासिक रूप पर अधिक लम्बे समय के लिए बने रहने की असंभाविता को स्पष्ट करने का अवसर होता है। यही वह समय होता है जब आम लोग बदलाव के लिए उठ खड़े होते हैं और उनकी शक्ति को दिशा देकर क्रांतिकारी ताकतें पूँजीवादी ढाँचे की जोंक को मानवता के शरीर से तोड़ सकती हैं।

यूनानी मजदूरों और नौजवानों के जुझारू आन्दोलन के सामने विश्व पूँजीवाद के मुखिया मजबूर

हर साल-दो साल पर विश्व पूँजीवाद भयंकर संकट का शिकार हो रहा है। नये सहस्राब्दी का बीता एक दशक इसी बात का गवाह है। लेकिन हर संकट विश्वभर के मजदूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता को यह अहसास दिलाता जा रहा है कि पूँजीवाद के रहते उनकी बरबादी का कोई अन्त नहीं है और इसका विकल्प ढूँढ़े बग़ैर गुजारा नहीं है। इस बात का अहसास तीसरी दुनिया के ग़रीब देशों में तो गहरा रहा ही है, लेकिन भूमण्डलीकरण के रूप में साम्राज्यवाद की अन्तिम अवस्था के आगे बढ़ते जाने के साथ विकसित देशों में पीछे की कतार में खड़े देशों में भी गहराता जा रहा है, मिसाल के तौर पर दक्षिणी और मध्‍य यूरोप के देश।
21वीं सदी की इस ‘यूनानी त्रासदी’ ने साफ कर दिया है कि हर बीतते पल के साथ पूँजीवाद अधिक से अधिक परजीवी, मरणासन्न और खोखला होता जा रहा है। साथ ही, यूनानी संकट ने यह भी साफ कर दिया है कि विश्व साम्राज्यवाद का संकट टलने या थमने वाला नहीं है। यह पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है जो पूँजीवाद के अन्त के साथ ही समाप्त होगा।

एक नौजवान की पुलिस द्वारा हत्या से फट पड़ा ग्रीस के छात्रों-नौजवानों-मज़दूरों में वर्षों से सुलगता आक्रोश

एलेक्सी की हत्या सिर्फ एक चिंगारी थी जिसने पूरे ग्रीस में मेहनतकश और छात्र-युवा आबादी के बीच सुलग रहे गुस्से को बाहर निकलने का रास्ता दे दिया। ग्रीस में सामाजिक असन्तोष पैदा होने के संकेत पहले ही मिलने लगे थे। नवउदारवादी नीतियाँ लागू करने के परिणामस्वरूप आबादी का बड़ा हिस्सा खराब जीवन स्तर झेलने पर मजबूर है। बेरोज़गारी, कम तनख़्वाहें, काम करने की ख़राब स्थितियाँ, बढ़ती महगाँई, पुलिस का दमनकारी रवैया और भ्रष्ट सरकारों के बीच आम जनता का जीवन बद से बदहाल होता जा रहा है। देश की इन स्थितियों से सबसे ज़्यादा निराशा युवावर्ग के अन्दर पैठ गयी है। वास्तव में युवाओं को अपने भविष्य की अन्धकारमय तस्वीर ही नज़र आ रही है। मन्दी के दौर ने स्थिति को और बदतर बना दिया है। हालात ये हैं कि ग्रीस, फ्रांस, इटली, स्पेन, पोलैण्ड, तुर्की आदि कई यूरोपीय देशों में बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है और मेहनतकश आबादी का जीवन ख़राब होता जा रहा है। फ्रांस में 2005 में हुए दंगे ऐसे ही हालात की उपज थे। यही वजह रही कि ग्रीस की घटना ने सभी यूरोपीय राष्ट्राध्यक्षों के चेहरों पर चिन्ता की लकीरें पैदा कर दी हैं।