Category Archives: पर्यावरण

अमीरों के पैदा किये प्रदूषण से मरती ग़रीब अाबादी

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार साल 2016 में प्रदूषण और ज़हरीली हवा की वजह से भारत में एक लाख बच्चों की मौत हुई, और दुनिया में छह लाख बच्चे मौत के मुँह में चले गये। कहने की ज़रूरत नहीं कि इनमें से ज़्यादातर ग़रीबों के बच्चे थे। मुम्बई, बैंगलोर, चेन्नई, कानपुर, त्रावणकोर, तूतीकोरिन, सहित तमाम ऐसे शहर हैं, जहाँ खतरनाक गैसों, अम्लों व धुएँ का उत्सर्जन करते प्लांट्स, फैक्ट्रीयाँ, बायोमेडिकल वेस्ट; प्लांट, रिफाइनरी आदि को तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रखते हुए ठीक गरीब मेहनतकश मज़दूर बस्तियों में लगाया जाता है। आज तमाम ज़हरीले गैसों, अम्लों, धुएँ आदि के उत्सर्जन को रोकने अथवा उन्हें हानिरहित पदार्थों में बदलने, एसिड को बेअसर करने, कणिका तत्वों को माइक्रो फ़िल्टर से छानने जैसी तमाम तकनीकें विज्ञान के पास मौजूद हैं, लेकिन मुनाफे की अन्धी हवस में कम्पनियाँ न सिर्फ पर्यावरण नियमों का नंगा उल्लंघन करती हैं, बल्कि सरकारों, अधिकारियों को अपनी जेब में रखकर मनमाने ढंग से पर्यावरण नियमों को कमज़ोर करवाती हैं।

जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट – अगर समय रहते पूँजीवाद को ख़त्म न किया गया तो वह मनुष्यता को ख़त्म कर देगा

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन द्वारा उपजे संकट के मूल में पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था ही है क्योंकि जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई से लेकर ग्रीन हाउस गैसें पैदा करने वाले ईंधन की बेरोकटोक खपत के पीछे मुनाफ़े की अन्तहीन हवस ही है जिसने प्रकृति में अन्तर्निहित सामंजस्य को तितर-बितर कर दिया है। इस व्यवस्था से यह उम्मीद करना बेमानी है कि इस संकट का समाधान इसके भीतर से निकलेगा। समाधान तो दूर इस व्यवस्था में इस संकट से भी मुनाफ़ा पीटने के नये-नये मौक़े दिन-प्रतिदिन र्इज़ाद हो रहे हैं। उदाहरण के लिए समुद्र तट पर स्थित बस्तियों के डूबने के ख़तरे से बचने के लिए एक संरक्षण दीवार बनाने की कवायद हो रही है, जिससे भारी मुनाफ़ा पीटा जा सके। ऐसे में जीवन का नाश करने पर तुली इस मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था का नाश करके ही इस संकट से छुटकारा मिल सकता है।

साल-दर-साल बाढ़ की तबाही : महज़ प्राकृतिक आपदा नहीं मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था का कहर!

आज़ादी के बाद के 71 वर्षों के दौरान बाढ़ के नाम पर खरबों रुपये की लूट भले ही हुई हो, लेकिन इसकी तबाही कम करने और लोगों के जान-माल के बचाव के वास्तविक इन्तज़ाम बहुत कम हुए हैं। शुरू में नदियों के किनारे तटबन्ध बनाये जाने से नदी किनारे के इलाक़ों में बाढ़ का ताण्डव कुछ कम हुआ लेकिन बेलगाम पूँजीवादी विकास के कारण कुछ ही वर्षों में बाढ़ पहले से भी ज़्यादा भयंकर होकर तबाही मचाने लगी। जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई, नदियों के किनारे बेरोकटोक होने वाले निर्माण-कार्यों, गाद इकट्ठा होने से नदियों के उथला होते जाने, बरसाती पानी की निकासी के क़ुदरती रास्तों के बन्द होने, शहरी नालों आदि को पाट देने जैसे अनेक कारणों ने न केवल बाढ़ की बारम्बारता बढ़ा दी है, बल्कि शहरों में होने वाली तबाही को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है। पूँजीवादी विकास की अन्धी दौड़ के चलते अब शहर भी बाढ़ों से बचे नहीं रहते। पहले की तरह अब बाढ़ सिर्फ़ गाँवों में ही नहीं आती बल्कि शहरों को भी अपनी चपेट में ले लेती है। पूँजीवाद गाँव और शहर के बीच के भेद को इसी तरह मिटाता है!

हत्यारे वेदान्ता ग्रुप के अपराधों का कच्चा चिट्ठा

पिछली 22 मई को तमिलनाडु पुलिस ने एक रक्तपिपासु पूँजीपति के इशारे पर आज़ाद भारत के बर्बरतम सरकारी हत्याकाण्डों में से एक को अंजाम दिया। उस दिन तमिलनाडु के तूतुकोडि (या तूतीकोरिन) जिले में वेदान्ता ग्रुप की स्टरलाइट कम्पनी के दैत्याकार कॉपर प्लाण्ट के विरोध में 100 दिनों से धरने पर बैठे हज़ारों लोग सरकारी चुप्पी से आज़िज़ आकर ज़िला कलेक्ट्रेट और कॉपर प्लाण्ट की ओर मार्च निकाल रहे थे। पुलिस ने पहले जुलूस पर लाठी चार्ज किया और उसके बाद गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। सादी वर्दी में बसों के ऊपर तैनात पुलिस के निशानेबाज़ों ने एसॉल्ट राइफ़लों से निशाना साधकर प्रदर्शनकारियों को गोली मारी। आन्दोलन की अगुवाई कर रहे चार प्रमुख नेताओं को निशाना साधकर गोली से उड़ा दिया गया। सरकार के मुताबिक 13 प्रदर्शनकारी गोली से मारे गये और दर्जनों घायल हुए।

आँधी-तूफ़ान से हुई जानमाल की भयंकर क्षति

आँधी-तूफ़ान अपने आप में जानलेवा नहीं होते। आँधी-तूफ़ान में जान गँवाने वाले ज़्यादातर लोग किसी इमारत, घर या दीवार के ढहने से या फिर पेड़ के गिरने से मरते हैं। इस बार की आँधी में भी ज़्यादा मौतें उन लोगों की हुईं जिनके घर कच्चे थे। कुछ लोग बिजली के टूटे तार के करेण्ट से भी मरते हैं। बिजली गिरने से मरने वाले लोग भी ज़्यादातर इसलिए मरते हैं क्योंकि वे उस समय पानी भरे खेतों में काम कर रहे होते हैं। प्राकृतिक परि‍घटनाओं पर भले ही मनुष्य का नियन्त्रण न हो परन्तु उन परिस्थितियों पर निश्चय ही मनुष्य का नियन्त्रण है जो इन मौतों का प्रत्यक्ष कारण होती हैं।

अगर हमने पूँजीवाद को तबाह नहीं किया तो पूँजीवाद पृथ्वी को तबाह कर देगा

‘पृथ्वी दिवस’ के अवसर पर 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में पर्यावरण को बचाने की चिंता प्रकट करते हुए कार्यक्रम हुए। 1970 में इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई और यह बात अनायास नहीं लगती कि इसके लिए 22 अप्रैल का दिन चुना गया जो लेनिन का जन्मदिन है। लेनिन के बहाने क्रांति पर बातें हों, इससे बेहतर तो यही होगा कि पर्यावरण के विनाश पर अकर्मक चिंतायें प्रकट की जाएँ और लोगों को ही कोसा जाये कि अगर वे अपनी आदतें नहीं बदलेंगे, और पर्यावरण की चिंता नहीं करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर क़यामत आ जायेगी। यानी सामाजिक बदलाव के बारे में नहीं, महाविनाश के दिन के बारे में सोचो। हालीवुड वाले इस महाविनाश की थीम पर सालाना कई फ़िल्में बनाते हैं।

कड़कड़ाती ठण्ड और ‘स्मॉग’ के बीच मज़दूर वर्ग का जीवन

नगर निगम मध्यम वर्गीय इलाक़ों का कूड़ा मज़दूर बस्तियों के पास कहीं पाट कर वहाँ की आबोहवा ज़हरीली बनाते हैं और पूँजीपति खुलेआम बिना फ़िल्टर वाली चिमनियों का प्रयोग करते हैं। यह भी इस पूरी व्यवस्था की वर्गीय पक्षधरता ही है कि परिवहन के क्षेत्र में भी हुई अभूतपूर्व तकनीकी प्रगति का इस्तेमाल सार्वजनिक यातायात को बेहतर बनाने की बजाय अमीरों के लिए लग्ज़री कारों को बनाने में किया जाता है।

ज़हर उगल रहे बायो वेस्ट प्लाण्ट को बन्द कराने नगरनिगम के दफ़्तर तक निकाली रैली

दरअसल मुम्बई के अन्दर भी दो मुम्बई बसती हैं। एक तरफ़ तो कोलाबा अँधेरी जैसे उच्च वर्ग के इलाक़े हैं। जिनको चमकाने के लिए गोवण्डी मानखुर्द जैसे इलाक़ों का मज़दूर-मेहनतकश वर्ग अपनी हड्डियाँ गलाता है। पर दूसरी तरफ़ ख़ुद एक नारकीय ज़िन्दगी जीने को मजबूर होता है। मुम्बई के मेट्रो फ़ेज 3 के लिए कोलाबा, अँधेरी में काटे जा रहे पेड़ों की ख़बर तो बनती है पर 2009 से गोवण्डी मानखुर्द के निवासियों की साँसों में घुल रहे ज़हर की सुध लेने वाला कोई नहीं है। गोवण्डी में ही देओनार डम्पिंग ज़ोन भी मौजूद था जहाँ हर दिन 7,500 टन कूड़ा डाला जाता था। मिडिल क्लास कॉलोनी को चकाचक रखने के लिए मज़दूर रिहाइशी इलाक़ों को कूड़ाघर बनाके रखा जाता है।

चेन्नई बाढ़ त्रासदी – प्राकृतिक क़हर नहीं, विकास के पूँजीवादी रास्ते का नतीजा

चेन्नई में पूँजीपतियों, सरकार व अफ़सरों के गठजोड़ ने क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी तौर-तरीक़ों के ज़रिये नाजायज़ तौर पर ऐसी जगहों पर क़ब्ज़े कर लिये जहाँ से पानी की निकासी हो सकती थी। दौलत कमाने के लिए और अय्याशी के अड्डे स्थापित करने के लिए अन्धाधुन्ध ग़ैरयोजनाबद्ध ढंग से धड़ाधड़ निर्माण कार्य हुआ है। इस दौरान बाढ़, भूकम्प जैसी परिस्थितियों के पैदा होने का ध्यान नहीं रखा गया। नाजायज़ क़ब्ज़ों के लिए ग़रीबों को दोष दिया जा रहा है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने को मज़बूर लोगों के पुख्ता रिहायश के लिए कोई भी क़दम सरकार ने नहीं उठाये। इनके पास रहने के लिए और कोई जगह नहीं है। नाजायज़ क़ब्ज़े करने वाते तो पूँजीपति और सरकारी पक्ष है।

‘ऑड-इवेन’ जैसे फ़ॉर्मूलों से महानगरों की हवा में घुलता ज़हर ख़त्म नहीं होगा

कुछ लोग अकसर इस भ्रम का शिकार रहते है कि कानूनों को सही तरीके से लागू करके पूँजीपतियों पर लगाम कसी जा सकती है और वे अपनी बात के समर्थन में प्राय: यूरोप और अमेरिका का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। हालाँकि हालिया घटनाक्रम उनके इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफी है। ‘वॉक्सवैगन’ नाम की कम्पनी ने यूरोप में उत्सर्जन कानूनों से बच निकलने के लिए गाडियों में ऐसे साफ्टवेयर लगाये जो प्रदूषण जाँच के दौरान तो उत्सर्जन को सामान्य स्तर पर दिखलाता था पर वास्तव मे बाकी समय उन गाडि़यों का उत्सर्जन स्थापित मानकों से 40 गुणा अधिक होता था। पूँजीपति वर्ग जब अपने मुनाफ़े पर ख़तरा मंडराता देखता है तब अपनी ही राज्य व्यवस्था द्वारा बनाये गए कानूनों की धज्जियां उड़ाने में उसे ज़रा भी हिचक नहीं होती है।