विकृत विकास का क़हर : फेफड़ों में घुलता ज़हर

– कविता कृष्णपल्लवी

हर साल की तरह सर्दियाँ ठीक से शुरू होने के पहले ही दिल्ली और आसपास के शहरों में धुँआ और कोहरा आपस में मिलकर सड़कों और घरों पर एक स्लेटी चादर की तरह पसर गये और लोगों का साँस लेना दूभर हो गया। ‘स्मोक’ और ‘फॉग’ को मिलाकर इसे दुनिया भर में ‘स्मॉग’ कहा जाता है। हिन्दी में धुँआ और कुहासा को जोड़कर ‘धुँआसा’ भी कहा जा सकता है। यह जाड़े के दिनों की स्थायी समस्या है जो साल-दर-साल गम्भीर होती जा रही है। अब दिल्ली-एनसीआर ही नहीं, देश के ज़्यादातर महानगरों में यह एक भयंकर समस्या बन चुकी है। पिछले कुछ समय से लखनऊ देश का दूसरा सबसे अधिक प्रदूषित शहर बना हुआ है।
विकास के नाम पर मुनाफ़ा कूटने की अनियंत्रित अन्धी हवस और धनपतियों की विलासिता की क़ीमत जहाँ ग़रीब मेहनतकश आबादी अपनी हडि्डयाँ गलाकर चुकाती है, वहीं पूरा समाज भी वायु-प्रदूषण और जल-प्रदूषण के घातक दुष्प्रभावों के रूप में इनका अंजाम भुगतता है। हालाँकि हर तरह के प्रदूषण की भी सबसे जानलेवा मार ग़रीब मेहनतकश आबादी पर ही पड़ती है क्योंकि उनके पास न तो बचाव के उपाय होते हैं न ही प्रदूषण से होने वाली बीमारियों का वे ठीक से इलाज करा पाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ वायु प्रदूषण दिल की बीमारियों, फेफड़े के रोगों, फेफड़े के कैंसर, मस्तिक आघात जैसी जानलेवा बीमारियों के जोखिम को बढ़ाने वाला एक प्रमुख कारण है। सांस की नली में संक्रमण का जोखिम भी इससे बढ़ जाता है और दमे की समस्या गम्भीर हो जाती है।
प्रदूषण पर निगरानी रखने वाली संस्था आईक्यूएअर की 2019 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के 10 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से 6 शहर भारत के हैं। इन 10 प्रदूषित शहरों में पहला स्थान दिल्ली का है। भारत में हर साल प्रदूषण जनित बीमारियों से 20 लाख तक मौतें होती हैं। यूनिसेफ़ की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ़ वायु प्रदूषण के कारण हर पाँच वर्षों के दौरान दुनिया में 6 लाख बच्चों की मौत होती है। दुनिया के दो अरब बच्चे प्रदूषित हवा में साँस लेते हैं। इनमें से 62 करोड़ बच्चे दक्षिण एशिया के (जिनमें भारत सबसे ऊपर है), 52 करोड़ अफ़्रीका के तथा 45 करोड़ पूर्वी एशिया व प्रशान्त क्षेत्र के हैं। प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर बढ़ा ख़र्च पूरी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (ग्लोबल जी.डी.पी.) का 0.3 प्रतिशत है। अकेले 2014 में यह 77.83 ट्रिलियन डॉलर था। अब तक के शोधों के अनुसार, वायु प्रदूषण से टी.बी., दमा, फेफड़ों के कैंसर और दिल के रोगों के साथ ही दिमाग़ भी क्षतिग्रस्त हो जाता है। गर्भवती स्त्रियाँ, गर्भस्थ बच्चे और कम उम्र के बच्चे इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।
जानलेवा प्रदूषण से सबसे कम प्रभावित वे लोग होते हैं जो एयर-फ़िल्टर और ए.सी. लगे अपने घरों, दफ़्तरों, क्लबों और जिम में समय बिताते हैं और सड़कों पर ए.सी. गाड़ियों में चलते हैं, लेकिन पूरी तरह से अछूते तो वे भी नहीं रह सकते। यह बात यहाँ भी लागू होती है कि पूँजी की राक्षसी स्वयं पूँजीपतियों के बच्चों को भी अपना शिकार बनाती है।
वायु-प्रदूषण, और विशेषकर ठण्डे मौसम में शहरों में होने वाला आज पूरी दुनिया में समस्या बन चुकी है। लेकिन एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के “विकासशील” देशों में यह समस्या बेहद गम्भीर है। यहाँ ख़राब क्वालिटी वाले डीज़ल-पेट्रोल और कोयले का ऊर्जा के मुख्य स्रोत के रूप में इस्तेमाल होता है और ग़रीबों के घरों में ईंधन के रूप में लकड़ी, उपलों और केरोसिन का प्रयोग होता है। सार्वजनिक यातायात साधनों की ख़राब व्यवस्था और अमीरी के दिखावे की संस्कृति के कारण सड़कों पर कारों की रेलमपेल मची रहती है और शहरी कूड़े के निस्तारण की कोई ढंग की व्यवस्था ही नहीं होती है।
इन पिछड़े पूँजीवादी देशों में भी भारत सबसे आगे है। इसका एक बड़ा कारण यहाँ की लद्धड़ और अतिभ्रष्ट नौकरशाही और नेताशाही भी है। तमाम क़ानूनों को ताक पर रखकर शहरों के कारख़ानों की बिना फ़िल्टर लगी चिमनियाँ वायुमण्डल में ज़हरीला धुँआ उगलती रहती हैं। अल्यूमीनियम और सीसा (लेड) मिश्रित निम्नस्तरीय डीज़ल और पेट्रोल के इस्तेमाल के मामले में भी भारत सबसे आगे के देशों में है। महानगरों के लैण्डफ़िल साइट्स पर कूड़े के पहाड़ लगे रहते हैं और वहाँ महीनों तक, और कहीं-कहीं बरसों तक कचरा जलता रहता है।
वायु प्रदूषण की समस्या अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और जापान जैसे कई विकसित देशों के महानगरों में भी मौजूद है, लेकिन वहाँ यह काफ़ी हद तक नियंत्रित है क्योंकि 1950-60 तक कोयला और निम्नस्तरीय डीज़ल-पेट्रोल के व्यापक इस्तेमाल के बाद ये देश अब उच्चस्तर के शोधित डीज़ल-पेट्रोल-गैस, पनबिजली, नाभिकीय ऊर्जा आदि का इस्तेमाल करने लगे हैं। यूरोप के कई देश सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा जैसे वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर अपना ज़ोर बढ़ाते जा रहे हैं। इन विकसित देशों का साम्राज्यवादी शासक वर्ग पिछड़े देशों की आम जनता की ज़िन्दगी को नरक बनाकर अपनी देश की जनता को कुछ सहूलियतें इसलिए देता है ताकि दैत्य के दुर्ग में तूफ़ान न पैदा हो। दूसरा कारण यह है कि इन देशों के नागरिक अपने बुनियादी अधिकारों तथा स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर अधिक जागरूक हैं। विकसित देशों की अकूत मुनाफ़ाख़ोरी, विलासितापूर्ण जीवन-शैली और अत्यधिक ऊर्जा खपत के चलते होने वाले अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग, ओज़ोन परत में छेद, ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र की जल सतह ऊपर उठने, रेगिस्तानों के फैलने और जैव-विविधता कम होने जैसी भयावह पर्यावरणीय तबाही की ओर दुनिया बढ़ती जा रही है। लेकिन वायु प्रदूषण से बीमारियों और मौत की जो विभीषिका जिस रूप में भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों के नागरिक भुगत रहे हैं, वैसी स्थिति पश्चिमी देशों में नहीं है।
इसका कारण यह है कि भारत जैसे देशों का पूँजीपति वर्ग कम से कम लागत लगाकर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कूटने के लिए बेताब है। पूँजीवादी “विकास” की दौड़ में देर से शामिल होने के कारण वह हड़बड़ी में है और निचोड़े गये मुनाफ़े का एक छोटा हिस्सा भी प्रदूषण-नियंत्रण जैसे कामों पर ख़र्च नहीं करना चाहता। इन देशों में निवेश करने वाली विदेशी कम्पनियाँ भी पर्यावरण-मानकों को ताक पर रखकर अपना अतिलाभ सुनिश्चित करती हैं। पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर काम करने वाली जो सरकार हर साल इन धन्नासेठों का अरबों रुपये का क़र्ज़ माफ़ करती है और सार्वजनिक सम्पत्ति को इनके हाथों कौड़ियों के मोल बेचती रहती है, वह वायु प्रदूषण पर नियंत्रण जैसे जनकल्याणकारी कार्यों पर ऊँट के मुँह में जीरा बराबर ख़र्च करती है और इस बजट का बड़ा हिस्सा भी भ्रष्टाचार, अव्यवस्था और योजनाहीनता की भेंट चढ़ जाता है।
ऐसे अराजक जंगल तंत्र के मामले में भारत का स्थान पिछड़े पूँजीवादी देशों की अगली क़तार में आता है। मेक्सिको, चीन, ब्राज़ील, अर्जेण्टीना जैसे तीसरी दुनिया के कई देशों ने तो फिर भी स्थिति की भयावहता को कम करने की कुछ कोशिशें कीं और इसमें कुछ कामयाबी भी हासिल की है। मेक्सिको, ब्राज़ील और अर्जेण्टीना ने इसके लिए अपने महानगरों में नियोजन के पहलू पर बल दिया, उच्च गुणवत्ता वाले पेट्रोल-डीज़ल का इस्तेमाल शुरू किया, सार्वजनिक परिवहन सेवाओं में सुधार किया, कोयले के इस्तेमाल में लगातार कमी की और कारख़ानों के लिए प्रदूषण-सम्बन्धी क़ानूनों और उन पर अमल की निगरानी-व्यवस्था को सख़्त बना दिया। चीन में वायु-प्रदूषण की समस्या नयी सदी शुरू होने तक अत्यन्त गम्भीर हो चुकी थी। इसका कारण यह था कि 1980 के बाद, तेज़ औद्योगिक विकास के लिए चीन ने पर्यावरण-मानकों की लगभग चौथाई सदी तक कोई परवाह नहीं की और इस मंज़िल तक जा पहुँचा कि मैन्युफ़ैक्चरिंग के क्षेत्र में उसने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है, दुनिया के कुल कच्चे स्टील के उत्पादन में आधा हिस्सा चीन का है और 2011 से 2013 के बीच उसने जितने सीमेण्ट का इस्तेमाल किया, वह अमेरिका द्वारा समूची बीसवीं सदी में इस्तेमाल किये गये सीमेण्ट का डेढ़ गुना था। इन सभी कामों में उसने ऊर्जा के लिए सबसे अधिक कोयला का इस्तेमाल किया। जल्दी ही इसके भयावह नतीजे सामने आये। राजधानी बीजिंग और अधिकांश औद्योगिक महानगरों में ‘स्मॉग’ के कारण सड़कों पर निकलना दूभर हो गया। फेफड़े और दिल की बीमारियाँ और इनसे मरने वाले लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी। 2016 में हुए बीजिंग ओलम्पिक के पहले वायु-प्रदूषण की इस समस्या की जब पूरी दुनिया में चर्चा होने लगी तो चीन सरकार ने प्रदूषण-नियंत्रण के लिए तेज़ और सख़्त क़दम उठाये। प्रदूषण-नियंत्रण के क़ानूनों को सख़्त बनाया गया, सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाया गया, महानगरों की सड़कों पर निजी वाहनों की संख्या कम करने के कारगर उपाय किये गये और ऊर्जा स्रोत के रूप में कोयला के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम करते हुए पनबिजली, सौर ऊर्जा आदि वैकल्पिक स्रोतों पर ज़ोर बढ़ाया जाने लगा। आज चीन सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, पनबिजली जैसे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास पर दुनिया में सबसे अधिक धन ख़र्च कर रहा है। औद्योगिक विकास के स्तर और रफ़्तार के मामले में भारत, चीन से काफ़ी पीछे है, लेकिन वायु प्रदूषण की विभीषिका को झेलने के मामले में काफ़ी आगे है।
पिछले कई वर्षों से वायु प्रदूषण के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में सबसे ख़राब बनी हुई है और हर आने वाले वर्ष के साथ बद से बदतर होती जा रही है। 2015 में ग्रीनपीस, इण्डिया ने अपनी एक जाँच में भारत के 168 में से 154 शहरों में (यानी 90 प्रतिशत शहरों में) वायु प्रदूषण राष्ट्रीय पैमाने पर निर्धारित स्तर से अधिक पाया। इन 168 में से एक भी शहर में वायु प्रदूषण विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित स्तर से नीचे नहीं था। यह रिपोर्ट पी.एम. 10 के वार्षिक औसत के आधार पर तैयार की गयी थी। पी.एम. 10 हवा में मौजूद ऐसे कण होते हैं, जिनका व्यास 10 माइक्रॉन या माइक्रोमीटर होता है। पी.एम. 10 की गणना में पी.एम. 2.5 भी शामिल होता है, जो बेहद ख़तरनाक होता है। पी.एम. 10 मुख्यत: सड़क और निर्माण कार्यों की धूल से पैदा होता है, जबकि पी.एम. 2.5 मुख्यत: वाहनों, कारख़ानों में डीज़ल, कोयला आदि की खपत और लकड़ी, भूसा, पराली आदि जलाने से पैदा होता है। पिछले कई सालों से दिल्ली देश का सर्वाधिक प्रदूषित शहर पाया जा रहा है। ग़ाज़ियाबाद, लखनऊ, बरेली, फ़रीदाबाद और इलाहाबाद भी इस मामले में दिल्ली के काफ़ी निकट थे। हर साल जाड़े के दिनों में मीडिया में मचने वाली तमाम चीख़-पुकार के बावजूद यह स्थिति दिन पर दिन ज़्यादा से ज़्यादा बदतर होती चली गयी है।
इस बार दिवाली के अगले दिन राजधानी में पी.एम. 2.5 का स्तर 396 और पी.एम. 10 का स्तर 543 तक पहुँच गया था। इनका स्तर क्रमश: 300 और 500 होने पर इसे आपातस्थिति माना जाता है। अगर अगले दिन बारिश न हुई होती तो कोरोना से जूझ रही एनसीआर की आम आबादी को तमाम तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से भी जूझना पड़ता।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस वर्ष उत्तर भारत के सभी प्रमुख शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित मानक से काफ़ी ऊपर पाया। इसे निम्नलिखित तालिका से आसानी से समझा जा सकता है:

वायु गुणवत्ता सूचकांक
(2 दिसम्बर 2020, 4 बजे अपरान्ह)
आगरा – बेहद ख़राब – 347 PM 2.5
बुलन्दशहर – अतिगम्भीर – 419 PM 2.5
दिल्ली – बेहद ख़राब – 373 PM 2.5
फ़रीदाबाद – बेहद ख़राब – 326 PM 2.5
ग़ाज़ियाबाद – अतिगम्भीर – 421 PM 2.5
कानपुर – अति गम्भीर – 415 PM 2.5
लखनऊ – बेहद ख़राब – 371 PM 2.5
ग्रेटर नोएडा – अतिगम्भीर – 406 PM 2.5
जींद – बेहद ख़राब – 356 PM 2.5
मुज़फ़्फ़रनगर – बेहद ख़राब – 377 PM 2.5

इस बेहद गम्भीर स्थिति के लिए कारख़ानों की अनियंत्रित धुँआ उगलती चिमनियों के साथ-साथ सड़कों पर हर रोज़ बढ़ती वाहनों की संख्या ही मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार है। अकेले दिल्ली की सड़कों पर रोज़ाना 1 करोड़ 15 लाख से भी ज़्यादा मोटर वाहन चलते हैं और इनकी संख्या हर साल बेरोकटोक बढ़ती जा रही है। जाड़े के दिनों में दिल्ली और आसपास के राज्यों में स्मॉग और प्रदूषण की समस्या को अतिगम्भीर बनाने वाला एक अतिरिक्त कारण पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के तराई अंचल के किसानों द्वारा मध्य अक्टूबर से लेकर नवम्बर के शुरुआती हफ़्ते तक खेतों में धान की पराली जलाना होता है। इसमें पंजाब सबसे आगे है। दूसरे स्थान पर हरियाणा है, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तराई में भी यह चलन बढ़ता जा रहा है और अब राजस्थान भी इसकी चपेट में है।

पराली जलाने की समस्या का समाधान होते हुए भी इसे अपनाया क्यों नहीं जाता?

हार्वेस्टर कम्बाइन जब धान की कटाई करता है तो धान का 50-60 सेण्टीमीटर डण्ठल खेत में ही छोड़ देता है, उसे ही पराली कहते हैं। उपरोक्त इलाक़ों के छोटे किसान तो अभी भी स्वयं हाथ से धान काटते हैं या मज़दूर लगाते हैं (कभी-कभार वे भी भाड़े पर हार्वेस्टर से कटाई कराते हैं), लेकिन बड़े किसान मज़दूरी का ख़र्च बचाकर आमदनी बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर मशीनीकरण का सहारा लेने लगे हैं और हार्वेस्टर कम्बाइन का इस्तेमाल करने लगे हैं। छोटे किसान यदि कम्बाइन का इस्तेमाल करते भी हैं तो ज़्यादातर मामलों में पराली जलाते नहीं। उसे हाथ से काटकर वे पशुओं के चारे, जाड़े में बिछाने या चटाई बनाने आदि में इस्तेमाल करते हैं।
पराली जलाने की अतिगम्भीर समस्या के कई तकनीकी समाधान आज मौजूद हैं। पराली के निस्तारण का पहला विकल्प यह है कि हार्वेस्टर कम्बाइन के साथ एक से डेढ़ लाख रुपये क़ीमत की ‘सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेण्ट सिस्टम’, (एस.एस.एम.एस.) नामक मशीन जोड़ दी जाये। यह मशीन पराली के ऊपरी भाग को काटकर मिट्टी में मिला देती है। जड़ें (टूँड़ी) ज़मीन में रह जाती हैं, जिसके रहते टी.एच.एस.मशीन (टर्बो हैप्पी सीडर) से गेहूँ की बुवाई की जा सकती है। सवा लाख क़ीमत की यह मशीन 50 हॉर्सपावर के ट्रैक्टर से जोड़कर चलायी जाती है। दूसरा विकल्प पराली को चॉपर से काटकर मिट्टी में मिलाकर टी.एच.एस. मशीन से गेहूँ की बुवाई करना है। चॉपर डेढ़ लाख रुपये का आता है और 50 हॉर्सपावर के ट्रैक्टर से चलता है। तीसरा विकल्प प्लाउर (ढाई लाख रुपये क़ीमत, 1200 रुपये प्रति एकड़ किराया) से पराली को मिट्टी में मिला देना है। चौथा विकल्प रोटावेटर का इस्तेमाल है, जिस मशीन की क़ीमत तो 20 लाख से अधिक होती है, पर किराये पर इस्तेमाल करने पर एक राउण्ड का डीज़ल ख़र्च 6-7 सौ रुपये पड़ता है। पाँचवाँ विकल्प बेलर का इस्तेमाल करके पराली को काटकर गाँठ बनाकर एक जगह रख देना है। फिर टी.एच.एस. से बुवाई की जा सकती है। बेलर की क़ीमत 2 से 10 लाख होती है और किराया 1300 रुपये प्रति एकड़ के आसपास। कटी हुई पराली को छोटे किसानों को पशुओं के चारे के लिए बेचा जा सकता है या थर्मल पावर हाउस तक पहुँचाया जा सकता है। पराली से इथेनॉल और कार्डबोर्ड का भी उत्पादन किया जा सकता है।
तब सवाल यह उठता है कि इतने समाधानों के मौजूद रहते देश पराली जलाने से पैदा हुई जानलेवा समस्या का सामना क्यों कर रहा है? इसका उत्तर है, सरकार की वर्गीय पक्षधरता और सरकारी तंत्र में व्याप्त दुर्व्यवस्था। किसानों को मशीनरी पर 40 प्रतिशत सब्सिडी देने के लिए पंजाब सरकार ने 2017 में केन्द्र को 1,109 करोड़ रुपये का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन उसे सिर्फ़ 48 करोड़ मिले। इसमें से भी राज्य सरकार के वित्त विभाग ने सिर्फ़ 30 करोड़ सरकारी ख़ज़ाने से निकालने की मंज़ूरी दी और यह रकम भी किसानों के पास तब पहुँची जब गेहूँ की बुवाई शुरू हो चुकी थी। दूसरी बात, एस.एस.एम.एस. मशीन और टी.एच.एस. मशीनें जो सबसे उपयोगी हैं, उन्हें बनाने वाले कम हैं और ये मशीनें महँगी हैं। तीसरी बात, किसानों के सब्सिडी बिल्स पेण्डिंग पड़े रहते हैं। चौथी बात, सरकार बड़े किसानों पर सख़्ती करने से कतराती है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के निर्देश पर पंजाब सरकार ने पहले पराली जलाने वाले किसानों पर प्राथमिकी दर्ज करना शुरू किया। फिर इसे रोक दिया गया। फिर पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सिर्फ़ चालान काटने लगा। पाँचवी बात, पंजाब में धान कुल 30 लाख हेक्टेयर में बोया जाता है जबकि उपलब्ध मशीनरी सिर्फ़ 2 लाख हेक्टेयर का प्रबन्धन कर सकती है।
लेकिन इन सबमें प्रमुख कारण सरकार और प्रमुख चुनावी पार्टियों की वर्गीय पक्षधरता का है। पंजाब की कुल आबादी में सिर्फ़ 18 प्रतिशत किसान रह गये हैं। इस किसान आबादी में से 67 प्रतिशत छोटे किसान हैं। शेष मुट्ठीभर जो धनी किसान हैं, उन्हीं के पास खेती की ज़मीन का 90 प्रतिशत के आसपास है और वही पराली जलाते हैं। छोटे किसान पराली नहीं जलाते हैं। अदूरदर्शी मुनाफ़ाख़ोर बड़े किसान यह नहीं सोच पाते कि पराली जलाने से खेत की मिट्टी से पोषक जैविक तत्वों का भारी विनाश होता है और रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों पर उनकी निर्भरता बढ़ती जाती है। वे सिर्फ़ तात्कालिक बचत और मुनाफ़े के बारे में सोचते हैं। इन धनी किसानों को कोई भी सरकार नाराज़ नहीं करना चाहती, चाहे वो कांग्रेस की हो या अकाली दल-भाजपा की। पराली के निस्तारण में, अलग-अलग विकल्पों के इस्तेमाल के हिसाब से प्रति एकड़ 5 सौ रुपये से 2,000 रुपये तक का ख़र्च आता है। प्रति एकड़ 50 से 60 हज़ार रुपये की आमदनी करने वाला धनी किसान चाहे तो ऐसा आसानी से कर सकता है, लेकिन वह नहीं करता क्योंकि सरकार और प्रशासन उसके प्रति नरमी का रुख़ अपनाते हैं।
कुल मिलाकर, यही कहा जा सकता है कि वायु प्रदूषण की समस्या पूँजीवादी समाज व्यवस्था की अन्तर्निहित अराजकता, समृद्धिशाली वर्गों की निकृष्ट स्वार्थपरता और विलासिता तथा पूँजीवादी समाज में सरकारों की वर्गीय पक्षधरता का परिणाम है। जन समुदाय यदि जागरूक होकर और संगठित होकर दबाव बनाये, तभी सत्तातंत्र को इस समस्या से राहत दिलाने के लिए कुछ सार्थक क़दम उठाने को बाध्य किया जा सकता है। और इस समस्या का अन्तिम और निर्णायक समाधान तभी हो सकता है जब लोभ-लाभ और स्वार्थपरता की जननी पूँजीवादी व्यवस्था का जन समुदाय द्वारा शवदाह कर दिया जाये।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

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