Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

एक मजदूर से बातचीत

साम-दाम-दण्ड-भेद जो तरीक़ा चले उन्हें चलाकर ये मालिक कारीगरों को निकालकर हेल्पर भरती कर रहा है। कारीगर महोदय अभी तक किसी एक पेशे के कारीगर हुआ करते थे। अब दर-दर की ठोकर खाकर घूम रहे हैं। अभी तक आराम के 7000 रुपये उठा रहे थे। अब हेल्परी के (3500-4000) रु. पा रहे हैं। मालिक तभी तक खुश रहता है जब तक उसको मुनाफा होता रहता है। तुम्हारी जी-हुजूरी से और बाबूजी-बाबूजी कहने से मालिक नहीं खुश होता है। किसी मजदूर को अगर बैठाकर तनख्वाह देनी पड़ जाये तो ज्यादा से ज्यादा कोई भी मालिक एक महीना तक तनख्वाह देगा उसके बाद भी अगर काम न आया तो फैक्ट्री में ताला डाल देगा। तुम चाहे कितने भी पुराने क्यों न हो। आज के दौर में अगर हमें ज़िन्दा रहना है तो मजदूर वर्ग के रूप में एकजुट होना होगा।

रणवीर की आपबीती

मासू इण्टरनेशनल, बादली में मैं काम करता हूँ। रणवीर शाहजहाँ पुर उ.प्र. का रहने वाला है। आज फैक्ट्री सुपरवाइजर सरदार ढिलन सिंह के तेवर रणवीर के खिलाफ सख़्त थे। बेचारे रणवीर को क्या पता कि आखिर कौन सी क़यामत आई है। रणवीर रोज जितना काम करता था। आज उससे तीन गुना काम उस पर पड़ रहा है। क्या आज सरदार ढिलन सिंह सुबह-सुबह ही 4 पैग ज़्यादा लगाकर आये हैं। नहीं ऐसा नहीं है।
आखिर शाम तक रणवीर जी की हालत खस्ता हो गई। वैसे तो रणवीर रोज ओवरटाइम व नाइट नहीं छोड़ता था। मगर आज 5.30 बजे ही छुट्टी करने का निर्णय लिया है। मगर रणवीर ने यह भी निर्णय किया कि इस क़यामत का राज जानकर ही जाऊँगा।
रणवीर – सर जी, हमसे कोई ग़लती हो गई जो आज आपने हमको टारगेट बना लिया।
ढिलन सिंह – अब आयी तेरी अकल ठिकाने। अब बताता हूँ। ऐसा क्यों किया। कल तूने सी.आई.टी.यू. के कार्यकर्ता त्यागी के सामने कारीगरों के साथ यूनियन लगाने के लिए अपना नाम क्यों लिखाया। अभी तुझे आये दो महीने भी हुए नहीं और चला यूनियन करने।

मज़दूरों की लाचारी (मालिक भी खुश, मज़दूर भी खुश)

समयपुर, बादली में नेभको बैटरीज़ के नाम से एक कम्पनी है। इसमें न ही कोई सुपरवाइजर है, न ही कोई फोर्डमैन, न कोई कम्प्यूटर ऑपरेटर और न कोई बाबू। मालिक भी सप्ताह दो सप्ताह में कभी घूमने चला आया तो गनीमत। स्टॉफ के नाम पर मालिक ने एक मैनेजर रखा है। फिर भी रोज फैक्टरी में 4000 पॉजिटिव और 4000 निगेटिव बैटरी की प्लेटें तैयार होकर सप्लाई के लिए निकलती हैं जो कि सिर्फ नेभको कम्पनी अपने लिए नहीं तैयार करती। बल्कि पूरे देश भर में कई बड़ी पार्टियों को सप्लाई करती है। अनुमान लगाने में हो सकता है कि आप लोग कुछ ज़्यादा ही अनुमान लगा लें। इसलिए हम आपको बताना चाहते हैं कि ये फैक्टरी 150 व 200 गज के प्लॉट में बनी हुई है जिसमें टीन की छत है और इसमें मज़दूरों की संख्या भी कुछ खास नहीं है। क़रीब-क़रीब 35 मज़दूर इस फैक्टरी में काम करते हैं और इसमें मज़दूर की तनख्वाह भी बहुत ज़्यादा नहीं है। नये हेल्पर की (8 घण्टे) तनख्वाह 2600 रु. महीना। जो जितने साल पुराना कर्मचारी हो उसका उस हिसाब से। मगर फिर भी जो 10 साल पुराने भी हैं उनकी तनख्वाह 3500 रु. से ज़्यादा नहीं है। फिर भी ये फैक्टरी कैसे चलती है इसकी तारीफ तो मालिक की करनी ही होगी। ये ऐसी-ऐसी चालें चलते हैं कि एक मज़दूर की समझ के बाहर होती है। ख़ैर, इस फैक्टरी के मालिक ने प्रोडक्शन सिस्टम बना रखा है जो जितना माल तैयार करेगा उसकी उतनी दिहाड़ी बनेगी।

मज़दूर भाइयों के नाम चिट्ठी

मेरा देवर ही एक दीदी से हमको मिलाया था जो कि महिलाओं का संगठन बनाने का काम करती हैं। उनके संगठन का नाम है ‘स्त्री मज़दूर संगठन’। दीदी ने हमको और मेरे पति दोनों को समझाया कि कोई लूला, लँगड़ा या बीमार व्यक्ति हो तो उसकी सेवा करना ठीक भी है। मगर एक अच्छी-खासी महिला की दुनिया सिर्फ कमरे तक ही समेटकर उसको बीमार करने में क्यों लगे हो। अभी तुम अकेले दोनों लोगों का खर्चा उठाते हो। ज़्यादा मेहनत करते हो। दोनों मिलकर काम करो। आठ-आठ घण्टे भी काम करोगे तो सोलह घण्टे हो जायेंगे और मिल-बाँटकर घर का काम करो, एक-दूसरे को ज्यादा समय दो, प्यार करो और एक अच्छी ज़िन्दगी जिओ। अभी आप 12 घण्टे काम करके थक जाते हैं ओर ये कमरे में पड़े-पड़े रहकर थक जाती हैं। ये बात मेरे पति को समझ में आ गयी। और अब हम दोनों मिलकर कमाते हैं। आठ घण्टा काम करते हैं। टीवी भी ले लिया है। रविवार को सिनेमा भी देख आते हैं। कभी छुट्टी मारकर दिल्ली भी घूम आते हैं। और हम दोनों एक-दूसरे के जीवनसाथी बनकर एक अच्छी जिन्दगी जी रहे हैं। हमको ज़्यादा पढ़ना-लिखना नहीं आता तो दीदी हमें हर शुक्रवार को शहीद पुस्तकालय में शाम 6 बजे पढ़ाती हैं। मगर हम ये चिट्ठी अपने देवर से लिखा रहे हैं।

सीटू की असलियत

एफ 2 80, बादली औद्योगिक क्षेत्र जिसके मालिक दो भाई हैं। जिनका नाम अजय बंसल व विपिन बंसल है। इस कारखाने में बाल्टी, टंकी व अनेक प्रकार के बर्तन बनते हैं। इसमें 10 जुलाई 2012 को मालिकों ने तनख्वाह नहीं बढ़ायी जिसके विरोध में क़रीब 50 मज़दूरों ने लिखित रूप से तनख्वाह नहीं ली जिनका प्रमाण है। मालिकों ने जवरी 2012 में 600 रुपये बढ़ाये थे। जबकि मज़दूरों का कहना है कि हर साल मालिक 1100 रुपये बढ़ाता है। इस साल अप्रैल में सरकारी रेट बढ़ा तब से मज़दूर माँग कर रहे हैं कि तनख्वाह बढ़ाओ जो कभी मई तो कभी जून कहकर टाल रहा था और अब जुलाई में बढ़ायेंगे पर वह नहीं बढ़ायेगा। अब तो काम की भी कमी है। किसी दिन ओवरटाइम नहीं लगता।

‘ब्राण्डेड’ कपड़ों के उत्पादन में लगे गुड़गाँव के लाखों मज़दूरों की स्थिति की एक झलक

मजदूरों से दवाब में काम करवाने और उन्हें काम न छोड़ने देने के लिये किसी भी कपड़ा कम्पनी में मजदूरों का वेतन समय पर नहीं दिया जाता। ज्यादातर मजदूर छह महीने या एक साल में ठेकेदारों के दबाव और सुपरवाइजरों द्वारा की जाने वाली गाली-गलौज और मारपीट से परेशार होकर कम्पनियाँ बदल देते हैं। मजदूरों को ओवरटाइम ठेकेदारों की मर्जी से करना पड़ता है और ओवर टाइम की जानकारी उसी दिन छुट्टी होने से सिर्फ़ थोड़ा पहले दी जाती है। ओवरटाइम से मना करने पर ठेकेदारों द्वारा गाली-गलौज व मारपीट करना और काम से निकाल देना आम बात है। कभी-कभी ज्यादा काम होने पर कम्पनियाँ अन्दर से ताला लगाकर मजदूरों से तीन से चार शिफ़्टों में लगातार काम करवाती हैं। जिन कम्पनियों में असेम्बली लाईन में कपड़ों की सिलाई और कटाई का काम होता है उनमें सुपरवाइजर लगतार मजदूरों पर नजर रखते हैं, और यदि कोई मजदूर लाइन में काम करने में देर करता है तो उसे काम से निकाल देने की धमकी देकर तेज काम करवाया जाता है। कुछ कम्पनियों में एक लाइन में कटाई, सिलाई, जैसे कामों के लिये 40-50 मजदूर होते हैं जिसके लिये ज्यादा कुशल मजदूरों की आवश्यकता नहीं पड़ती और ज्यादातर ठेके पर रखे जाने वाले मजदूरों से ही लाइन में सिलाई कटाई जैसे काम करवाये जाते हैं। एक मजदूर ने बताया कि औसत रूप में हर मजदूर एक घंटे में 35 कपड़ों पर काम करता है, यानि दो मिनट से भी कम समय में मजदूर एक कपड़े को प्रोसेस करते हैं और लगातार 12 से 16 घण्टे मशीन की तरह लगे रहते हैं।

रोज़ी-रोटी की तलाश में शहर आये एक मज़दूर की कहानी, उसी की ज़ुबानी

मैं असहाय-सा उसके पास लेटा सोचता रहा कि हम इतने मज़दूर रोज कम्पनी में हाड़तोड़ काम करते हैं… हमारे खून-पसीने से मालिक को करोड़ों का मुनाफा होता है… अगर वो हमारी मेहनत भर का ही पैसा हमको दे दे, तो क्या गरीब हो जायेगा? हमारी ज़िन्दगी क्या इन्सानों की ज़िन्दगी है? मालिक-मैनेजर के लिए हम बस काम करने की मशीन हैं… वो हमें इन्सान ही नहीं समझते! अपने शरीर और मन पर लगे घावों के दर्द से हम दोनों सारी रात नहीं सो पाये।

मज़दूरों का अमानवीकरण

चौक पर मेरी मुलाक़ात एक भिखारी से हुई जिसकी उम्र करीब 35 साल थी। शरीर से स्वस्थ था। सभी मज़दूर उसको घेरकर सलाह दे रहे थे-अरे अभी जवान हो, भीख क्यों माँग रहे हो। कहीं काम क्यों नहीं कर लेते। तो उसने अपनी कहानी सुनायी कि भइया मैं भिखारी नहीं हूँ। एक महीना पहले काम की तलाश में गुड़गाँव आया था। मेरे पास करीब छह सौ रुपये थे। रहने का ठिकाना नहीं था। रात में सड़क किनारे सो रहा था। पुलिस वाले आये, मारा-पीटा, मेरे रुपये भी छीन लिये। मैंने ख़ूब हाथ जोड़े, रोया, गिड़गिड़ाया पर वे गाली-गलौच करके और यह कहकर चले गये कि अगली बार यहाँ दिखायी दिये तो जेल में डाल दूँगा। मैं गाँव से आया था, घर में बीवी-बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे। तो मैं डर गया। यही सोचकर तसल्ली कर ली कि चलो हाथ-पैर सही सलामत है। कहीं किसी कम्पनी में काम मिल जायेगा। 3 दिन तक लगातार फैक्ट्रियों के चक्कर काटता रहा, मगर काम नहीं मिला। किसी होटल वाले का काम करके प्लेट धोकर माँगने से खाना मिल जाता था। सो मैं ज़िन्दा हूँ। फिर एक रात पुलिस वाले तो नहीं मगर तीन पियक्कड़ों से मेरी मुठभेड़ हो गयी। वे यहीं लोकल के ही गुण्डे टाइप के थे। नशे में मुझसे मारपीट की और मेरा पैण्ट और कमीज़ भी फाड़ दिया। अब मेरे पास दो रास्ते थे। या तो में मौत को अपने गले लगाऊँ या जैसे-तैसे ज़िन्दा रहूँ। तो लोगों से माँग-जाँचकर ही ज़िन्दा हूँ। अब मेरे पास ये शरीर और एक यही चड्ढी बनियान ही रह गया। मेरी बीवी और दो छोटे-छोटे बच्चे मेरा इन्तज़ार कर रहे होंगे कि पापा दिल्ली में पैसा कमाने गये हैं। और एक दिन हम सबकी हालत अच्छी हो जायेगी।

बेइज़्ज़ती में किसी तरह जीते रहने से अच्छा है इज़्ज़त और हक़ के साथ जीने के लिए लड़ते हुए मर जाना

जिन लोगों ने आजकल के औद्योगिक इलाक़ों को नज़दीक से नहीं देखा है वे सोचते होंगे कि आज के आधुनिक युग में शोषण भी आधुनिक तरीक़े से, बारीक़ी से होता होगा। किसी अख़बार में मैंने एक प्रगतिशील बुद्धिजीवी महोदय का लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि अब पहले की तरह मज़दूरों का नंगा, बर्बर शोषण-उत्पीड़न नहीं होता। ऐसे लोगों को ज़्यादा दूर नहीं, दिल्ली के किसी भी औद्योगिक इलाक़े में जाकर देखना चाहिए जहाँ 95 प्रतिशत मज़दूर असंगठित हैं और काम की परिस्थितियाँ सौ साल पहले के कारख़ानों जैसी हैं। मज़दूर आन्दोलन के बेअसर होने के कारण ज़ालिम मालिकों के सामने मज़दूर इतने कमज़ोर पड़ गये हैं कि उन्हें रोज़-रोज़ अपमान का घूँट पीकर काम करना पड़ता है। मज़दूरों की बहुत बड़ी आबादी छोटे-छोटे कारख़ानों में काम कर रही है और ये छोटे मालिक पुराने ज़माने के ज़मींदारों की तरह मज़दूरों के साथ गाली-गलौच और मारपीट तक करते हैं।

बस फ़ैक्ट्री ही दिखाई पड़ती है

मैं दिल्ली के बादली इण्डस्ट्रियल एरिया के पास राजा विहार बस्ती में रहता हूँ। इसके पास से पंजाब जाने वाली रेल लाइन गुज़रती है। इस पर गाड़ियों का ताँता लगा रहता है। एक दिन सुबह ड्यूटी जाते समय मैंने देखा कि पटरी के किनारे ख़ून गिरा है। काफ़ी भीड़ थी। पता लगा कि एक मज़दूर की ट्रेन की वजह से दुर्घटना हो गयी। मज़दूर का शरीर एम्बुलेंस में पड़ा था। पुलिस वाले खाना-पूर्ति के लिए जाँच-पड़ताल कर रहे थे। मज़दूर का सिर कान के ऊपर से फट चुका था। काफ़ी ख़ून निकल रहा था। मज़दूर बेहोश पड़ा था। लोगों ने बताया कि ड्यूटी जाने की देर हो रही थी। पटरी पार करते समय राजधानी एक्सप्रेस से बचने के लिए जल्दी में भागा। जाकर खम्भे से सिर टकरा गया। मज़दूर वहीं गिर पड़ा। पुलिस एम्बुलेंस लेकर आयी, मज़दूर को लिटा दिया। मगर अस्पताल आधे घण्टे बाद ले गयी। तब तक वह फटे हुए सिर के साथ ऐसे ही बेहोश पड़ा रहा। अगर कोई पैसे वाला होता तो उसकी इतनी दुर्दशा कभी न होती। आज म़जदूर दो वक़्त की रोटी में इतना चिन्तित है कि उसे राह चलते हुए भी बस कम्पनी ही दिखायी पड़ती है कि कहीं देर न हो जाये और पैसे न कट जायें। और आये दिन मज़दूर यूँ ही सड़क दुर्घटना व ट्रेन दुर्घटना का शिकार होते रहते हैं।