Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

दिल्ली में बादाम मज़दूर एक बार फिर हड़ताल की राह पर!

इस पूरे संघर्ष को महिला मज़दूरों ने करावलनगर मज़दूर यूनियन के बैनर तले बड़े ही सुनियोजित तरीके और रणनीतिक कुशलता से आगे बढ़ाया है। इस लड़ाई के दौरान इन लोगों ने पुलिस प्रशासन की “सक्रियता” का मुँहतोड़ जवाब देते हुए जीवट और बहादुरी का परिचय दिया है। मालिकों की समन्वय और समझौता नीति की धज्जियाँ उड़ाकर उनकी नींदें हराम कर दी हैं। किसी भी हालत में वे अपनी माँगों से डिगना नहीं चाहतीं और अपने तीखे तेवर के साथ संघर्ष में जुटी हैं। इतिहास बताता है कि विश्व में जहाँ भी बड़ी और जुझारू लड़ाइयाँ लड़ी गयीं सभी में महिला मज़दूरों ने अग्रणी भूमिका निभायी। सर्वहारा वर्ग की विजय अपनी इस आधी आबादी को साथ लिये बिना सम्भव नहीं। करावलनगर की स्त्री मज़दूरों का संघर्ष ज़िंदाबाद!

चीन में मुनाफ़े की भेंट चढ़े 118 मज़दूर

वैसे आज नामधारी ‘‘कम्युनिस्ट’’ चीन के मज़दूरों के हालात भी विश्व भर के मज़दूरों से अलग नहीं। अभी हाल में बांगलादेश, पाकिस्तान से लेकर भारत तक में सैकड़ों मज़दूर जेलरूपी कारख़ानों में मौत के मुँह में समाये हुए हैं। अकेले भारत में सरकारी आँकड़े बताते हैं कि हर साल दो लाख मज़दूर औद्योगिक दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। वैसे भी माओ की मृत्यु (1976) के बाद से चीन में क़ाबिज़ कम्युनिस्ट पार्टी के शासक मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि नये पैदा हुये पूँजीपति वर्ग की चाकरी में लगे हुए हैं। तभी आज चीन में मज़दूरों के काम परिस्थितियों और सुरक्षा उपकरण के मानक की खुलेआम अनदेखी की जा रही। ऐसे में ये बात समझने के लिए जरूरी है कि आज चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के चोलों के पीछे खुली पूँजीवादी नीतियाँ लागू हो रही हैं जिसके कारण आज चीन के बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी का जीवन स्तर जो माओकालीन चीन में बेहतर था। लेकिन विगत 37 वर्ष में बदतर हालात में पहुँच गया।

चाहे हरियाणा हो या बंगाल सब जगह मज़दूरों के हालात एक जैसे हैं

हरियाणा सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी सिर्फ़ किताबों की शोभा बढाती है जबकि असल में मज़दूर मात्र 3000 से 3500 प्रति महीना मिलती है। कहने को तो हमारे संविधान में 250 से ऊपर श्रम क़ानून हैं लेकिन मज़दूरों के लिए इनका कोई मतलब नहीं है। इन मज़दूरों के शारीरिक हालत तो और भी दयनीय है, 35-40 की आयु में ही 55-60 वर्ष के दिखाई देते हैं। पूँजीवादी मुनाफे की अन्धी हवस ने इनके शरीर से एक एक बूँद ख़ून निचोड़कर सिक्कों में ढाल दिया है। मज़दूर वर्ग को अब समझना होगा कि इस व्यवस्था में इनका कोई भविष्य नहीं है। उसे संगठित होकर इस आदमखोर पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना होगा और एक शोषण विहीन समाज की स्थापना करनी होगी तब जाकर सही मायनों में मज़दूर वर्ग मनुष्य होने पर गर्व महसूस कर सकता है।

एक छोटी सी जीत

मैं जितेन्द्र मैनपुरी (यू.पी.) का रहने वाला हूँ। मुझे गुड़गाँव आये 4 महीने हुए है और मैं गुड़गाँव पहली बार आया हूँ। हम अपने परिवार के तीन लोग साथ में है और तीनों एक ही फैक्ट्ररी ओरियण्ट क्रॉफ्ट, 7 पी सेक्टर-34 हीरो होण्डा चौक गुड़गाँव में चार महीने से काम कर रहे है। वैसे तो इस फैक्ट्री में कोई संगठन या एकता नहीं है। और न ही हो सकती है क्योंकि करीब 6 से 7 ठेकेदार के माध्यम से हेल्पर, कारीगर, प्रेसमैन, एक्पॉटर वगैरह भर्ती होते हैं जिनकी माँगे अलग है, काम अलग है और एक-दूसरे से कोई वास्ता नहीं है। मगर फिर भी एक छोटी सी जीत की खुशी तो होती ही है। ठीक इसी प्रकार बड़े पैमाने पर मज़दूर साथी लड़े तो हम सबकी ज़िन्दगी ही बदल जाये।

वज़ीरपुर में ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में हड़ताल

गरम रोला मज़दूर एकता समिति को अपने संघर्ष को गरम रोला के मज़दूरों के साथ ठंडा रोला के मज़दूरों, सर्कल के मज़दूरों और पोलिश के मज़दूरों व वजीरपुर इलाके के सभी फ़ैक्टरियों के मज़दूरों के साथ जोड़ना होगा। 700 कारखानों में मज़दूरों की ज़्यादातर माँगें समान हैं। वजीरपुर इलाके के मज़दूर ऊधम सिंह पार्क, शालीमार बाग व सुखदेव नगर की झोपड़पट्टियों में रहते हैं और यहाँ मज़दूरों की आवास, पानी व अन्य साझा माँगें बनती हैं। इन सभी माँगों को समेटने और इस लड़ाई को व्यापक बनाने का काम एक इलाकाई यूनियन ही कर सकती है। इसलिए गरम रोला मज़दूर एक

मज़दूरों की सेहत से खिलवाड़ – आखिर कौन ज़िम्मेदार?

दूसरा, मज़दूर इलाकों में झोला-छाप डाक्टरों की भरमार है। ये झोला-छाप डाक्टर बीमारी और दवाओं की जानकारी न होने के बावजूद सरेआम अपना धन्धा चलाते हैं। इनका हर मरीज़ के लिए पक्का फार्मूला है – ग्लूकोज़ की बोतल लगाना, एक-दो इंजेक्शन लगाना, बहुत ही ख़तरनाक दवा (स्टीरॉयड) की कई डोज़ हर मरीज़ को खिलाना और साथ में दो-चार किस्म की गोली-कैप्सूल थमा देना। छोटी-मोटी बीमारी के लिए भी ये धन्धेबाज़ मज़दूरों की जेबों से न सिर्फ अच्छे-ख़ासे रुपये निकाल लेते हैं, बल्कि लोगों को बिना ज़रूरत के ख़तरनाक दवाएँ खिलाते हैं। दवाओं की दुकानों वाले कैमिस्ट डाक्टर बने बैठे हैं और अपना धन्धा चलाने के लिए आम लोगों को तरह-तरह की दवाएँ खिलाते-पिलाते हैं। मज़दूर के पास जो थोड़ी-बहुत बचत होती भी है, वो ये झोला-छाप डाक्टर हड़प जाते हैं और बाद में इलाज के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है तो मज़दूर के पास कुछ नहीं बचा होता। नतीजतन, या तो मज़दूर घर भागता है, या फिर बिना इलाज के काम जारी रखता है जिसके नतीजे भयंकर निकलते हैं। सरकार के सेहत विभाग के पास इसकी जानकारी न हो, ये असम्भव है। असल में ये सब सरकारी विभागों-अफसरों की मिली-भगत से चलता है!

मंगोलपुरी की घटना ने फिर साबित किया कि आज न्याय, इंसाफ़ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है!

नगरनिगम, विधानसभा से लेकर संसद तक मौजूदा सरकारें समाज के धनी वर्गों की सेवा करती हैं। अमीरज़ादों के लिए बनाये गये सरकारी और निजी स्कूलों में सुरक्षा के सारे इन्तज़ाम हैं। जबकि ग़रीबों के बच्चों को बुनियादी सुरक्षा भी स्कूलों में नहीं दी जाती है, कि उनका जीवन सुरक्षित रहे। और तो और, ऐसी किसी घटना के बाद गरीब लोगों को आमतौर पर इंसाफ मिल ही नहीं पाता है। मंगोलपुरी की इस घटना के बाद प्रशासन का जो रवैया रहा उसने यही साबित किया कि मौजूदा व्यवस्था में न्याय, इंसाफ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है; जबकि मज़दूरों के लिए ये सिर्फ कागज़ी बातें है। मेहनतकश लोग अगर सच्चे मायनों में अपने और अपने बच्चों के लिए न्याय, इंसाफ और सुरक्षा चाहते हैं तो उन्हें मुनाफ़े पर टिकी मौजूदा व्यवस्था के ख़ात्मे के बारे में सोचना होगा।

नोएडा के निर्माण मज़दूरों पर बिल्डर माफिया का आतंकी कहर

जिस बस्ती में मज़दूर रहते हैं उसके हालात नरकीय हैं। इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि टिन के शेड से बनी इस अस्थायी बस्ती में मज़दूर कैसे रहते हैं। मुर्गी के दरबों जैसे कमरों में एक साथ कई मज़दूर रहते हैं और उनमें से कई अपने परिवार के साथ भी रहते हैं। बस्ती में पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। मज़दूरों को पानी खरीद कर पीना पड़ता है। बिजली भी लगातार नहीं रहती। शौचालय के प्रबन्ध भी निहायत ही नाकाफी हैं और समूची बस्ती में गन्दगी का बोलबाला है। नाली की कोई व्यवस्था न होने से बस्ती में पानी जमा हो जाता है और बरसात में तो हालत और बदतर हो जाती है। यही नहीं, जैसे ही यह प्रोजेक्ट पूरा हो जायेगा, इस बस्ती को उजाड़ दिया जायेगा और मज़दूरों को इतनी ही ख़राब या इससे भी बदतर किसी और निर्माणाधीन साइट के करीब की मज़दूर बस्ती में जाना होगा।

निर्माण क्षेत्र में मन्दी और ईंट भट्ठा मज़दूर

ईंट उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, 250 लाख टन कोयला की खपत के साथ देश भर में एक साल में लगभग 200 अरब ईंटे बनाने वाले इन मज़दूरों की जि़न्दगी नारकीय है। भट्ठा मज़दूर सबसे अमानवीय हालात में काम करने को मजबूर होते हैं। इनमें से अधिकतर मज़दूरों से भट्ठा मालिक गुलामो की तरह काम कराते हैं। देश भर से कईं ऐसी घटनाएँ सामने आयीं हैं जहाँ भट्ठा मालिकों ने मज़दूरों को आग में झोंककर मार दिया। न तो ईंट मज़दूरों के बच्चे पढ़ ही पाते हैं और ज़्यादातर की किस्मत में इसी उद्योग में खपना लिखा होता है। भट्ठों में बिना किसी सुरक्षा साधन या मास्क के 7000-10000 डिग्री तापमान में काम करने से मज़दूर को फेफड़ों से लेकर आँख की बीमारियाँ होती हैं। ज़्यादातर प्रवासी मज़दूर यहाँ बारिश के मौसम को छोड़कर सालभर काम में लगे रहते हैं। बच्चे से लेकर औरतें सभी को ये भट्ठे निगल जाते हैं।

एक मज़दूर की आपबीती

दबी आवाज़ में एक ने कहा भी चलो हम सब मिलकर उससे (ठेकेदार) पूछते है कि ऐसा करने का तुमको क्या अधिकार बनता है? मगर साहस न हुआ किसी को। सब एकदूसरे का मुँह ताक रहे थे कि कोई आगे चल पड़े। किसी की हिम्मत न पड़ी क्योंकि सबको डर था कि कहीं मेहनत का पैसा भी न डूब जाये। और करीब 15-20 मज़दूरों ने तनख्वाह लेकर काम छोड़ दिया; जिसमें एक मैं भी था। फिर कल ठेकेदार सतीश का फोन आया कि आजा काम दबाकर चल रहा है तब मैंने फोन पर अपने दिल की भड़ास निकाली।