पीड़ा के समुद्र और भ्रम के जाल में पीरागढ़ी के मज़दूर
जूते-चप्पल की इन फैक्टरियों में ज्यादातर काम ठेके पर होता है। मालिक किसी भी तरह की मुसीबत से बचने के लिए और बैठे-बैठे आराम से मुनाफ़ा कमाने के लिए काम को ठेके पर दे देता है। जूते-चप्पल के काम में अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग ठेकेदार को ठेका दिया जाता है। जैसे जूते की सिलाई के लिए एक या दो ठेकेदार को दे दिया गया, जूता से तल्ला (shole) चिपकाने के लिए भी कई ठेकेदार या एक ही ठेकेदार को उसके बाद पैकिंग के लिए भी एक या दो ठेकेदार को काम दे दिया जाता है। इसके अलावा अगर जूता या चप्पल में पेंटिग का काम है तो इस काम को भी एक पेंटिग के ठेकेदार को ठेके पर दे दिया जाता है। इन ठेकेदार से मालिक एक जोड़ी चप्पल या जूता सिलाई या पैकिंग का रेट तय करता है। अधिकांश फैक्टरियों में पुरूष मज़दूर (हेल्पर) को आठ घण्टे के लिए 3800 से 4500 रूपये मिलते है, महिला मज़दूर (हेल्पर) को 3000 से 3500 रूपये मिलते है और अर्द्धकुशल मज़दूर को 5000 से 6000 रूपया प्रति माह मिलता है जो कि दिल्ली सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन का लगभग आधा है। इसके अलावा ठेकेदार जिस रेट से काम मालिक से लेता है उससे कम रेट पर अपने अर्द्धकुशल कारीगर से पीस रेट पर काम करवाता है। ठेकेदार ज्यादातर अपने गांव , क्षेत्र, धर्म के आदमी को साथ रखता है ताकि मज़दूरों को ‘अपना आदमी’ का भ्रम रहे। मज़दूर सोचता है कि ठेकेदार अपने क्षेत्र, धर्म का या रिश्तेदार है और जो मिल रहा है उसे रख लिया जाय। जबकि ठेकेदार ‘अपने’ क्षेत्र या धर्म के मज़दूर के सर पर बैठकर काम करवाता है, मज़दूरों की कम चेतना का फायदा उठता है उनसे अश्लील बातें करता है और किसी दिन कुछ खिला-पिला देता है। इन सबके बीच मज़दूर अपने हक अधिकार को भूल जाता है जिसका फायदा मालिक और ठेकेदार को ही होता है।