Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

शरीर गलाकर, पेट काटकर जी रहे हैं मज़दूर!

ऊपरी तौर पर देखा जाये तो भले ही मज़दूरों के पास मोबाइल आ गया हो, वे जींस और टीशर्ट पहनने लगे हों, लेकिन उनकी ज़िन्दगी पहले से कहीं ज्यादा कठिन हो गयी है। बहुत से सरकारी आँकड़े भी इस सच्चाई को उजागर कर देते हैं। ‘असंगठित क्षेत्र में उद्यमों के बारे में राष्ट्रीय आयोग’ की 2004-05 की रिपोर्ट के अनुसार करीब 84 करोड़ लोग (यानि आबादी का 77 फीसदी हिस्सा) रोज़ाना 20 रुपये से भी कम पर गुज़ारा करते हैं। इनमें से भी 22 फीसदी लोग रोज़ाना केवल 11.60 रुपये की आमदनी पर, 19 फीसदी लोग रोज़ाना 11.60 रुपये से 15 रुपये के बीच की आमदनी पर और 36 फीसदी लोग रोज़ाना 15-20 रुपये के बीच की आमदनी पर गुज़ारा करते हैं। देश के करीब 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रस्त हैं और 5 साल से कम उम्र के बच्चों के मौत के 50 फीसदी मामलों का कारण कुपोषण होता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 63 फीसदी भारतीय बच्चे अक्सर भूखे सोते हैं और 60 फीसदी कुपोषण ग्रस्त हैं। दिल्ली में अन्धाधुन्ध ”विकास” के साथ-साथ झुग्गियों या कच्ची बस्तियों में रहने वालों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है और लगभग 70 लाख तक पहुँच चुकी है। इन बस्तियों में न तो साफ पीने का पानी है और न शौचालय और सीवर की उचित व्यवस्था है। जगह-जगह गन्दा पानी और कचरा इकट्ठा होकर सड़ता रहता है, और पहले से ही कमज़ोर लोगों के शरीर अनेक बीमारियों का शिकार होते रहते हैं।

हमारी कमज़ोरी का ईनाम है — ग़ालियाँ और मारपीट!

मालिक ने कारीगर को दफ्तर में बुलाया जहाँ माल लेने आयी पार्टी के भी 3-4 लोग बैठे थे। माँ-बहन की गालियाँ देते हुए उसने पूछा कि ये क्या है। कारीगर ने कहा बाबूजी, ज़रा सा पेण्ट छूटा है, अभी सही कर देता हूँ। इस पर मालिक ने पहले तो कान पकड़कर उसे बुरी तरह झिंझोड़ा और फिर दो थप्पड़ भी लगा दिये। फिर सारे मज़दूरों को गालियाँ बकने लगा। मज़दूरों ने इस पर आपत्ति करते हुए कहा कि इसे निकालना ही था तो मारा क्यों। दो दिन से गालियाँ दे रहे हो, फिर भी हम चुप हैं। इसके जवाब में उसने अगले ही दिन 22 लोगों को बाहर कर दिया। हमें चुपचाप चले आना पड़ा।

मज़दूरों में मालिक-परस्ती कम चेतना का नतीजा है

इन सब स्थितियों के बाद भी मज़दूर कहते हैं, ‘मालिक बहुत दिलदार है।’ इसका कारण यह है कि उन्हें न तो अपने अधिकारों की जानकारी है और न ही इस बात की चेतना है कि इंसाफ और बराबरी किस चिड़िया का नाम है। इसीलिए मालिकों से छोटे-छोटे टुकड़े पाकर ही मज़दूर ख़ुश हो जाते हैं। हमें मज़दूरों में फैली इस सोच के ख़िलाफ भी लड़ना होगा, क्योंकि यह मानसिकता मज़दूरों को संगठित होने में बाधक है।

तनख्वाह उतनी ही, मगर काम दोगुना

मज़दूरों को समझ लेना चाहिए कि एक जगह काम छोड़कर दूसरी जगह काम पकड़ लेने से इस लूट से उनका पीछा नहीं छूटेगा। क्योंकि भारत तो क्या दुनिया भर में कोई कारख़ाना ऐसा नहीं होगा जहाँ पर पूँजीपति मज़दूरों की मेहनत की लूट के लिए ऐसे हथकण्डे न अपनाते हों। और न ही मशीनें ख़राब करने से यह लूट ख़त्म हो सकती है। 200 साल पहले, जब मज़दूर अपने शोषण का कारण नहीं समझ पाते थे तो वे अपना गुस्सा मशीन पर निकालते थे। लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि इससे उनकी हालत में कोई सुधार नहीं होने वाला। कुछेक मशीनें ख़राब होने से मालिक की सेहत पर ज्यादा असर नहीं होगा और कैमरे आदि के ज़रिए जब कुछ मज़दूर पकड़ लिये जायेंगे तो यह सिलसिला अपने आप ही ख़त्म हो जायेगा।

आवाज़ निकालोगे तो काम से छुट्टी

फैक्ट्री मज़दूरों के लिए जेल की तरह है। फैक्ट्री पहुँचते ही हम लोगों के अन्दर अजीब किस्म का डर-सहम घुसने लगता है और हमारे सिर मुजरिमों की तरह झुक जाते हैं। काम करते हुए बार-बार हम समय देखते हैं कि कब बारह घण्टे खत्म हों, कब मुक्ति मिले। मगर ये मुक्ति ज्यादा देर नहीं रहती। अगली सुबह फिर जेल। अपराधियों को बड़े-बड़े जुर्म के लिए भी दस-बीस साल की जेल होती है, लेकिन हम लोगों की पूरी ज़िन्दगी इन जेलों में निकल जाती है जिन्हें लोग फैक्ट्री कहते हैं, और वह भी बिना किसी गुनाह के!

“ठेकेदार अपना आदमी है!”

मज़दूर ये नहीं समझते कि अगर वो अपना आदमी है तो क्या उसको हमारे अधिकार छीनने चाहिए यदि वो अपना आदमी है तो उसे तो हमारा ज़्यादा ख़्याल रखना चाहिए था, मगर वो तो बाकी सभी ठेकेदारों की तरह ही हमारी लूट कर रहा है। अगर उसको हमारा रिश्तेदार या गाँव का आदमी होकर भी हमारी लूट करने में थोड़ी-सी शर्म नहीं है, तो हम लोग अपना अधिकार माँगने में इतना क्यों शर्माते हैं मेरे विचार से तो इस मुनाफे की दौड़ में कोई अपना-पराया नहीं होता। अगर ठेकेदार ज़्यादा कमाई करने के लिए अपने रिश्तेदारों या गाँव-देहात के लोगों का ख़ून चूसने में संकोच नहीं करता तो हमें भी उससे अपने अधिकार लेने में हिचक नहीं दिखानी चाहिए।

ये कहानी नहीं बल्कि सच्चाई है

अपनी ज़ि‍न्दगी के अनुभव से मुझे विश्वास हो गया है कि सभी पूँजीपति एक जैसे ही होते हैं और जब तक यह व्यवस्था क़ायम रहेगी तब तक हम मज़दूरों को दर-दर भटकना पड़ेगा, गालियाँ, डण्डे खाने पड़ेंगे और जान भी गँवानी पड़ेगी। इसलिए जितनी जल्दी हो इस व्यवस्था को बदल दो। पूँजीवाद मुर्दाबाद!

आपस की बात

पिछले कई वर्षों से मैं मज़दूर बिगुल पढ़ रहा हूँ। और भी बहुत सारे मज़दूर यह अख़बार पढ़ते हैं। मज़दूरों में यह चेतना आयी है कि इन मालिकों को अगर झुकाना है को एक अपना संगठन बनाना पड़ेगा। हम मज़दूरों ने इस बात को समझकर सन 2010 में टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन का गठन किया। न्यू शक्तिनगर, गौशाला, माधोपुरी, कशमीर नगर, टिब्बा रोड, गीता नगर, महावीर कालोनी, हीरा नगर, मोतीनगर, कृपाल नगर, सैनिक कालोनी, भगतसिंह नगर, और मेहरबान के हम मज़दूरों ने आवाज़ उठायी और एक न्यायपूर्ण संघर्ष लड़ा और जीता भी। पिछले करीब 20 वर्षों से हम मज़दूरों को मालिकों की मर्ज़ी से काम करना पड़ता था और मालिक जब चाहे काम पर रखते थे और जब मर्ज़ी आये तो काम से निकाल देते थे। गाली-गलौज और मार-पीट आम बात थी। अब एकता बनाकर हम मज़दूर मालिकों के सामने अपने हक़ की बात सर ऊँचा उठाकर करते हैं। अगर हम पूरे देश और पूरी दुनिया के मज़दूर मिलकर एक हो जाएँ तो देश-दुनिया के सारे मालिकों को झुका सकते हैं।

हमारी बस्तियाँ इंसानों के रहने लायक नहीं

सरकार और प्रशासन अमीरों के लिए हर सुख-सुविधा, ऐशो-आराम की व्यवस्था कर सकता है तो हम ग़रीबों की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी क्यों नहीं करता? हमारी मेहनत की कमाई से ही सरकार का ख़ज़ाना भरता है। हम लोग बाज़ार से ख़रीदी हर चीज़ पर सरकार को टैक्स देते हैं। अमीर लोग भी सरकार को जो टैक्स देते हैं वो पैसा भी हमारी मेहनत की लूट से ही जाता है।

हज़ारों कारख़ाने, लाखों मज़दूर, मगर शोषण जारी बदस्तूर

कुकर की घिसाई (बफिंग) के कारण बहुत ज़्यादा गर्दा उड़ता है। हमने सुना है कि प्रदूषण वाली फ़ैक्‍ट्री में हर मज़दूर को रोज़ाना 100 ग्राम गुड़ व 250 मिली दूध देने का क़ानून है। मगर यहाँ तो ड्यूटी के समय में किसी को एक कप चाय तक नहीं मिलती। रोज़ कम-से-कम दो घण्टा ओवरटाइम लगाना ज़रूरी है जिसका पैसा सिंगल रेट से ही मिलता है। मैंने पिछले महीने काम छोड़ दिया क्योंकि प्रदूषण बहुत ज़्यादा होता है। मुझे लगातार खाँसी आने लगी थी। 50 से ऊपर की उम्र में मेरे लिए इस तरह का काम करना कठिन हो रहा था। मैंने ठेकेदार से हिसाब करने को कहा तो कहता है कि जो हमें खड़े-खड़े जवाब देता है, उसके लिए यही नियम है कि हिसाब अगले महीने लेना। यानी अपनी महीने भर की मज़दूरी लेने के लिए भी मुझे चक्कर लगाने पड़ेंगे। लेकिन इस इलाके में सभी मज़दूरों के साथ ऐसा ही होता है। कोई एकजुट होकर बोलता नहीं है इसलिए मालिकों और ठेकेदारों की मनमानी पर कोई रोक-टोक नहीं है।