Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत

पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत मोती, दिल्ली दिल्ली के बादली, समयपुर, लिबासपुर आदि इलाक़ों में प्लास्टिक की पन्नी बनाने के अनेक छोटे-छोटे कारख़ाने हैं। बड़े उद्योगों में पैकिंग की…

कारख़ाना मज़दूर यूनियन ने लुधियाना में लगाया मेडिकल कैम्प

कारख़ाना मज़दूर यूनियन की तरफ़ से बीते 26 अगस्त को लुधियाना की एक मज़दूर बस्ती राजीव गाँधी कालोनी में मेडिकल कैम्प लगाया गया। दिन भर चले कैम्प में 750 से अधिक मरीज़ आये। यह मेडिकल कैम्प पूरी तरह से मुफ़्त था, लेकिन जैसा कि यूनियन ने कैम्प के पहले बाँटे गये पर्चे में और कैम्प के दौरान भी बताया गया, इस मेडिकल कैम्प का मक़सद परोपकार नहीं था बल्कि लोगों में स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता पैदा करना और साथ ही यह बताना था कि एकसमान और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ देश के हर नागरिक का अधिकार है और यह अधिकार हासिल करने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करना होगा।

अनजान बचपन

सुबह ड्यूटी जा रहा था तो एक लड़का मेरे साथ-साथ चल रहा था। मुझे उसने देखा, मैंने उसे देखा। लड़के की उम्र करीब 12 साल थी। मैंने पूछा कहाँ जा रहे हो। उसने कहा ड्यूटी। कहाँ काम करते हो? लिबासपुर! क्या काम है? जूता फ़ैक्टरी! कितनी तनख्वाह मिलती है? आठ घण्टे के 3500 रुपये। मैंने पूछा, आठ घण्टे के 3500 रुपये? बोला हाँ। मैंने पूछा सुबह कितने बजे जाते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा शाम कितने बजे आते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा तो 12 घण्टे हो गये। कहा नहीं… आठ घण्टे के 3500 रुपये।

मुनाफाख़ोर मालिक, समझौतापरस्त यूनियन

मज़दूरों के पास जानकारी का अभाव होने और संघर्ष का कोई मंच नहीं होने के कारण, उन्होंने सीटू की शरण ले ली। मज़दूरों का कहना है कि हम लड़ने को तैयार हैं, लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है इसलिए हमें किसी यूनियन का साथ पकड़ना होगा। जबकि सीटू ने मज़दूरों से काम जारी रखने को कहा है और लेबर आफिसर के आने पर समझौता कराने की बात कही है। आश्चर्य की बात यह है कि संघर्ष का नेतृत्व करने वाले किसी भी आदमी ने यह स्वीकार नहीं किया कि वे संघर्ष कर रहे हैं। सीटू की सभाओं में झण्डा उठाने वाले फैक्ट्री के एक व्यक्ति का कहना था कि हमारी मालिक से कोई लड़ाई नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि जहाँ मालिक को सीटू के नेतृत्व में आन्दोलन चलने से कोई समस्या नहीं है, वहीं सीटू के लिए यह संघर्ष नहीं ”आपस की बात” है।

मासू इण्टरनेशनल की दास्तान

अगर काम पर 5 मिनट लेट आये तो आधा घण्टे का पैसा कटेगा; अगर 10 मिनट लेट हुए तो एक घण्टे का और अगर 30 मिनट लेट आये तो चार घण्टे का पैसा कटेगा। हर रोज़ सुबह 9 बजे से शाम 7:30 बजे तक काम करना होता है जिसमें से आधा घण्टा लंच की छुट्टी मिलती है। इसके बाद सिंगल रेट पर ओवरटाइम करना चाहें तो आपकी मर्ज़ी, लेकिन दस घण्टे हाड़तोड़ काम करने के बाद शरीर जवाब दे जाता है। हेल्पर की तनख्वाह 4000 रुपये और अनुभवी कारीगरों की तनख्वाह 9000 रुपये से ज्यादा नहीं है। 11 साल पुराने मज़दूर भी अब तक हेल्पर की तनख्वाह ही पाते हैं, और किसी भी हेल्पर को ई.एस.आई., फण्ड, बोनस आदि कुछ नहीं मिलता।

दीप ऑटो के नियम-क़ानून दीप ऑटो प्राइवेट लिमिटेड

जब भी कोई मज़दूर फैक्टरी गेट से बाहर निकलता है, तो हर बार बड़ी मुस्तैदी से तलाशी ली जाती है कि वो कहीं कोई बोल्ट चुराकर न ले जाये। ऐसे जेल जैसे माहौल में गर्दन झुकाकर लगातार काम में लगे रहने के बदले में स्त्री मज़दूर को 8 घण्टे काम के 3200 रुपये महीना और पुरुष मज़दूर को 3500 रुपये महीना मिलते हैं। ओवरटाइम सिंगल रेट से ही मिलता है। अगर मज़दूर तीन-चार साल पुराने हों, तो स्त्री मज़दूर को 3500 रुपये महीना और पुरुष मज़दूर को 4000 रुपये महीना मिलते हैं। ये नियम-क़ानून किसी नोटिस बोर्ड पर नहीं लिखे हैं, मगर ये सभी मज़दूरों को याद रहते हैं। क्योंकि याद नहीं रहने पर ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है।

गुड़गाँव के आटोमोबाइल मज़दूरों की स्थिति की एक झलक

इन सभी में ठेका मज़दूरों की स्थिति लगभग एक समान है। जाँच-पड़ताल और मज़दूरों से बातचीत करने पर यह जानकारी मिली। सभी में 8-8 घण्टे की तीन पालियों में 24 घण्टे काम होता है। ठेका मज़दूरों के लिए 8 घण्टे काम के बदले महीने में 4850 रुपये का वेतन निर्धारित है, जिसमें 12 प्रतिशत पीएफ और 1.75 प्रतिशत ईएसआई कटने के बाद लगभग 4100 रुपये महीना वेतन मज़दूर को मिलता है। पीएफ की कोई रसीद या ईएसआई कार्ड किसी मज़दूर को नहीं दिया जाता। सिर्फ काम पर आने के लिए एक गेटपास दे दिया जाता है। ज्यादातर मज़दूरों का कहना है कि कम्पनी छोड़ने पर पीएफ या ईएसआई का कोई पैसा कम्पनी नहीं देती, और मज़दूर कुछ समय तक चक्कर लगाने के बाद थक-हार कर छोड़ देते हैं, क्योंकि उनके पास काम करने का कोई प्रमाण भी नहीं होता। यानी वास्तव में मज़दूरों का कुल वेतन 4100 रुपये ही है। हर जगह ओवरटाइम सिंगल रेट पर दिया जाता है। ऐसे में मज़दूर 12 से 16 घण्टे तक काम करते हैं। 16 घण्टे की डबल शिफ़्ट में काम करने पर मज़दूरों को एक दिन के 180 रुपये अधिक दे दिये जाते हैं। काम पर आने में लेट होने पर आधे दिन का वेतन काट लिया जाता है।

बेकारी के आलम में

मज़दूरों की ज़िन्दगी तबाह और बर्बाद है। बेरोज़गारी का आलम यह है कि लेबर चौक पर सौ में से 10 मज़दूर ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्हें महीने भर से काम नहीं मिला। ऐसे में, जब कोई रास्ता नहीं बचता, तो ज़िन्दगी बचाने के लिए वो उल्टे-सीधे रास्ते अपना लेते हैं। ऐसे ही एक तरीक़े के बारे में बताता हूँ — भारत सरकार ने बढ़ती आबादी को रोकने के लिए नसबन्दी अभियान चलाया है। इसी अभियान में लगे दो एजेण्ट यहाँ के लेबर चौक पर लगभग हर रोज़ आते हैं और नसबन्दी कराने पर 1100 रुपये नकद दिलाने का लालच देकर हमेशा कई मज़दूरों को ले जाते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि भूख से मरते लोग कोई रास्ता नहीं होने पर इसके लिए भी तैयार हो जाते हैं।

इस जानलेवा महँगाई में कैसे जी रहे हैं मज़दूर

टीवी चैनलों में कभी-कभी महँगाई की ख़बर अगर दिखायी भी जाती है तो भी उनके कैमरे कभी उन ग़रीबों की बस्तियों तक नहीं पहुँच पाते जिनके लिए महँगाई का सवाल जीने-मरने का सवाल है। टीवी पर महँगाई की चर्चा में उन खाते-पीते घरों की महिलाओं को ही बढ़ते दामों का रोना रोते दिखाया जाता है जिनके एक महीने का सब्ज़ी का खर्च भी एक मज़दूर के पूरे परिवार के महीनेभर के खर्च से ज्यादा होता है। रोज़ 200-300 रुपये के फल खरीदते हुए ये लोग दुखी होते हैं कि महँगाई के कारण होटल में खाने या मल्टीप्लेक्स में परिवार सहित सिनेमा देखने में कुछ कटौती करनी पड़ रही है। मगर हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के सामने एक तस्वीर रखना चाहते हैं कि देश की सारी दौलत पैदा करने वाले मज़दूर इस महँगाई के दौर में कैसे गुज़ारा कर रहे हैं।

दिहाड़ी मज़दूरों की जिन्दगी!

मैं एक भवन निर्माण मज़दूर हूँ। मैं बिहार प्रदेश से रोजी-रोटी के लिए दिल्ली आया हूँ। यहाँ मुश्किल से 30 दिनों में 20 दिन ही काम मिल पाता है। जिसमें भी काम करने के बाद पैसे मिलने की कोई गारण्टी नहीं होती है। कहीं मिल भी जाते हैं तो कहीं दिहाड़ी भी मार ली जाती है। कोई-कोई मालिक तो जबरन पूरा काम करवाकर (ज़मींदारी समय के समान) ही पैसे देते हैं और अधिक समय तक काम करने पर उसका अलग से मज़दूरी भी नहीं देते हैं। कई जगह मालिक पैसे के लिए इतना दौड़ाते हैं कि हमें लाचार होकर अपनी दिहाड़ी ही छोड़नी पड़ती है। यहाँ करावल नगर में लेबर चौक भी लगता है। जहाँ न बैठने की जगह है न पानी पीने की। चौक से जबरन कुछ मालिक काम पर ले जाते हैं नहीं जाने पर पिटाई भी कर देते हैं। दूसरी तरफ दिहाड़ी मज़दूरों की बदतर हालात सिर्फ काम की जगह नहीं बल्कि उनकी रहने की जगह पर भी है जहाँ हम तंग कमरे में रहते हैं।