पीसरेट पर काम करने वाली स्त्री मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी
देश की तरक्की के लम्बे-चौड़े दावे किये जा रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी दिखायी जा रही है। मगर इस तरक्की में इन औरतों के श्रम का योगदान किसी को कहीं नहीं दिखायी देता है। अपने सारे घरेलू काम करने के अलावा ये औरतें 10-12 घण्टे काम करती हैं। बेहद कम मज़दूरी पर ये हाड़ गलाकर, आँख फोड़कर दिन-रात सबसे ज़्यादा मेहनत वाले, उबाऊ और थकाऊ कामों में लगी रहती हैं। कई स्त्रियाँ इसलिए भी घर पर काम करती हैं क्योंकि अपने छोटे बच्चों को घर छोड़कर फैक्ट्री में नहीं जा सकती हैं, या फैक्ट्री के माहौल के कारण वहाँ जाकर काम नहीं करना चाहतीं। कुछ महिलाएँ अपने पिछड़ेपन या पति के पिछड़ेपन की वजह से बाहर काम नहीं करना चाहती हैं, और इन वजहों से भी मालिकों की चाँदी हो जाती है। एक तो उन्हें बहुत कम मज़दूरी देनी पड़ती है, दूसरे, जगह के किराये, पानी-बिजली, मशीन-औज़ार, मेण्टेनेंस जैसे ख़र्चों से छुटकारा मिल जाता है। इनका भयंकर शोषण होता है, इन्हें कोई भी सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती, कोई श्रम क़ानून इन पर लागू नहीं होता है। किसी भी सरकारी विभाग में इन्हें मज़दूर माना ही नहीं जाता। लेकिन सबसे बुरी बात तो ये है कि ये औरतें ख़ुद को मज़दूर मानती ही नहीं हैं, उन्हें लगता है कि अपने ख़ाली समय में या घर पर बैठे-बैठे थोड़ा-बहुत कमा लेती हैं जिससे बच्चों को थोड़ा बेहतर खाने को मिल जाता है या कर्ज़ का बोझ कुछ कम हो जाता है।