Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

धौलेड़ा क्रेशर ज़ोन हादसा: 12 निर्माण मज़दूरों की मौत का ज़िम्मेदार कौन?

गत 7 अगस्त के दिन हरियाणा के नारनौल जिले के गाँव धौलेड़ा में क्रेशर की दीवार गिरने से 12 मज़दूरों की मौत हो गयी और 40 से अधिक घायल हो गये। दुर्घटना के बाद पता चला कि उक्त क्रेशर जोन का निर्माण उचित लाइसेंस व अनुमति के बिना ही कराया जा रहा था। काम पर लगे मज़दूरों को कोई भी सुरक्षा का उपकरण मुहैया नहीं कराया गया था। इस हादसे की जिम्मेदार एक तो सीधे-सीधे क्रेशर मालिक की मुनाफा कमाने की हवस थी क्योंकि न तो दीवार में लगायी गयी सामग्री का अनुपात सही था और न ही मज़दूरों की सुरक्षा का कोई इन्तज़ाम किया गया था। बेशर्मी का आलम देखिये कि इस भयानक हादसे के बाद मालिक तुरन्त भाग खड़ा हुआ।

ओरियंट क्राफ्ट की घटना गुड़गाँव के मज़दूरों में इकट्ठा हो रहे ज़बर्दस्त आक्रोश की एक और बानगी है

पिछले कुछ समय से गुडगाँव में अलग-अलग कारख़ानों में भड़के मज़दूरों के गुस्से को देखकर आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इस पूरे औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़बरदस्त शोषण का शिकार है। सिर्फ़ ठेका मज़दूर ही शोषण का शिकार नहीं हैं, बल्कि कई कारख़ानों में स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। मारुति, पावरट्रेन, हीरो होण्डा, मुंजाल शोवा आदि इसके उदाहरण है। मगर नेतृत्व और किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में शोषण और उत्पीड़न से बेहाल इस मज़दूर आबादी का आक्रोश अराजक ढंग से इस प्रकार की घटनाओं के रूप में सड़कों पर फूट पड़ता है। इसके बाद पुलिस और मैनेजमेण्ट का दमन चक्र चलता है जिसका मुकाबला बिखरे हुए मज़दूर नहीं कर पाते और गुस्से का उबाल फिर शान्त हो जाता है।

अखिलेश यादव के फ़र्ज़ी समाजवाद में मज़दूरों की बुरी हालत

निर्माण क्षेत्र में लगे मज़दूरों का एक तिहाई हिस्सा हर छह माह पर किसी-न-किसी हादसे का शिकार हो जाता है। ज़्यादातर मज़दूर ऊँचाई से गिरने के कारण घायल होते हैं। कई बार तो मज़दूरों की मौत हो जाती है। घायल होने वाले मज़दूरों में 31 प्रतिशत काम के दौरान ज़ख़्मी हैं और 19 प्रतिशत पर निर्माण सामग्री गिरने से, जबकि 9 प्रतिशत भारी या धारदार सामग्री उठाने से घायल होते हैं। 63 फ़ीसदी मज़दूर इलाज के लिए डॉक्टर के पास जा ही नहीं पाते।

सलूजा धागा मिल में मशीन से कटकर एक मज़दूर की मौत

इस कारखाने में काम करने वाले मज़दूरों से धक्के से ओवरटाइम काम करवाया जाता है और उन्हें साप्ताहिक छुट्टी भी नहीं दी जाती। मज़दूर थकावट और नींद वाली हालत में काम करने पर मजबूर होते हैं। अधिकतर मशीनों में सेफ्टी सेंसर भी काम नहीं करते। उत्पादन बढ़ाने के लिए मशीनों की स्पीड बढ़ा दी जाती है।

फ़ैक्टरियों में सुरक्षा के इन्तज़ाम की माँग को लेकर मज़दूरों ने किया प्रदर्शन

दस दिसम्बर को वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों ने ‘दिल्ली इस्पात मज़दूर यूनियन’ के नेतृत्व में वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र के ठण्डा रोला और पावर प्रेस सहित सभी फ़ैक्टरियों में सुरक्षा के पुख़्ता इन्तज़ाम की माँग उठाते हुए श्रम विभाग नीमड़ी कॉलोनी का घेराव किया। बैनर, पोस्टर और नारों के साथ सड़क पर मार्च करता हुआ यह दस्ता बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रहा था।

1984 का ख़ूनी वर्ष – अब भी जारी हैं योजनाबद्ध साम्प्रदायिक दंगे और औद्योगिक हत्याएँ

हर चीज़ की तरह यहाँ न्याय भी बिकता है। पुलिस थाने, कोर्ट-कचहरियाँ सब व्यापार की दुकानें हैं जो नौकरशाहों, अफ़सर, वकीलों और जजों के भेस में छिपे व्यापारियों और दलालों से भरी हुई हैं। आप क़ानून की देवी के तराजू में जितनी ज़्यादा दौलत डालोगे उतना ही वह आपके पक्ष में झुकेगी। इन दो मामलों के अलावा भी हज़ारों मामले इसी बात की गवाही देते हैं। बहुत से पूँजीपति और राजनीतिज्ञ बड़े-बड़े जुर्म करके भी खुले घूमते फिरते हैं, क़त्ल और बलात्कार जैसे गम्भीर अपराधों के दोषी संसद में बैठे सरकार चलाते हैं और करोड़ों लोगों की किस्मत का फ़ैसला करते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ ही केन्द्र और अलग-अलग राज्यों में करीब आधे राजनीतिज्ञ अपराधी हैं, असली संख्या तो कहीं और ज़्यादा होगी। कभी-कभार मुनाफ़े की हवस में पागल इन भेड़ियों की आपसी मुठभेड़ में ये अपने में से कुछ को नंगा करते भी हैं तो वह अपनी राजनैतिक ताक़त और पैसे के दम पर आलीशान महलों जैसी सहूलियतों वाली जेलों में कुछ समय गुज़ारने के बाद जल्दी ही बाहर आ जाते हैं। ए. राजा, कनीमोझी, लालू प्रसाद यादव, जयललिता, शिबू सोरेन, बीबी जागीर कौर, बादल जैसे इतने नाम गिनाये जा सकते हैं कि लिखने के लिए पन्ने कम पड़ जायें।

मुनाफ़े की व्यवस्था में हम मज़दूरों का कोई भविष्य नहीं

मज़दूर भाइयो, यह केवल मेरी कहानी नहीं है बल्कि देश के करोड़ों मज़दूरों की ऐसी ही कहानियाँ हैं। आज हम एकजुट होकर ही मुनाफ़े की इस व्यवस्था के खि़लाफ़ लड़ सकते हैं। हमें इस लड़ाई में मिठबोले मालिकों, धन्धेबाज वकीलों, और दलाल यूनियनों से भी सावधान रहना होगा।

वजीरपुर स्टील उद्योगः मौत और मायूसी के कारखाने

वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र जो कि भारत के सबसे बड़े स्टील उद्योगों में से एक है। जहाँ ‘स्टेनलेस स्टील’ के बर्तन बनाने का काम होता है। लेकिन इन

कारखानों में काम की परिस्थिति बेहद खतरनाक है, आये दिन मज़दूरों की मौत होना, बेहद उच्च ताप पर झुलसना तो रोज की घटना है। ऊपर से औद्योगिके कचरे की वजह से झुग्गियों की यह हालत है कि बजबजाती नालियों में मच्ठर भी पैदा होने से डरते हैं, क्योंकि वहाँ सिर्फ गन्दा पानी ही नहीं बहता, तेजाब भी बहता है।

हादसों के नाम पर कब तक होती रहेंगी ऐसी हत्याएँ?

स्थानीय अख़बारों में इसे एक हादसा बताया गया है। परन्तु यदि हम इस घटना का तार्किक विश्लेषण करें तो यह बिल्कुल साफ हो जायेगा कि यह हादसा नहीं “हत्या” है। आज भारत के असंगठित क्षेत्र में लगभग 48 करोड़ मज़दूर हैं। इनमें करीब 3 करोड़ निर्माण मज़दूर हैं। देशभर में बड़े-बड़े अपार्टमेंट, होटल, एअरपोर्ट, एक्सप्रेसवे, ऑफिस बिल्डिंग आदि का निर्माण अन्धाधुन्ध जारी है। लेकिन इनमें काम करने वाले मज़दूरों की हालत बेहद बुरी है। तमाम सरकारी घोषणाएँ सिर्फ कागज़ पर रह जाती हैं। बड़ी-बड़ी कंस्ट्रक्शन कम्पनियों से लेकर राजकीय निर्माण निगम जैसी सरकारी संस्थाओं तक हर जगह मज़दूरों के साथ एक ही जैसा सुलूक होता है। आये दिन मज़दूर मरते और घायल होते रहते हैं या फिर जानलेवा बीमारियों का शिकार होते रहते हैं। ऐसी घटनाओं पर न तो हमारी सरकार को कोई फ़र्क़ पड़ता है और न ही पूँजीपतियों को।

कनाडा की खनन कम्पनियों का लूटतन्त्र और पूँजीपतियों, सरकार तथा एनजीओ का गँठजोड़

कनाडा में पंजीकृत लगभग 1300 खदान कम्पनियों में से बहुत सी कम्पनियों का मालिकाना कनाडा के नागरिकों के पास नहीं है, लेकिन फिर भी ज़्यादातर खदान कम्पनियाँ कनाडा को अपना मुख्य ठिकाना बनाती हैं, इसका कोई कारण तो होगा ही। असल में कनाडा की सरकार खदान कम्पनियों पर कनाडा में पंजीकरण करवाने के लिए कोई सख्त शर्त नहीं लगाती। मसलन ये कम्पनियाँ विदेशों में अपने कारोबार के दौरान क्या करती हैं, इसमें कनाडा की सरकार बिल्कुल दख़ल नहीं देती। लेकिन अगर किसी देश की सरकार कनाडा में पंजीकृत किसी खदान कम्पनी को अपने यहाँ खनन करने से रोकती है, उस पर श्रम क़ानून लागू करने की कोशिश करती है तो कनाडा के राजदूत तथा कनाडा की सरकार उस देश की सरकार पर दबाव डालती है, उसे मजबूर करती है कि वह ऐसा न करे, या फिर स्थानीय सरकार तथा कम्पनी में समझौता करवाती है। इसके अलावा, जनविरोध से निपटने के लिए स्थानीय सरकार को कम्पनी को पुलिस तथा अर्धसैनिक बल मुहैया करवाने के लिए राजी करती है। कनाडा में पंजीकृत कम्पनी अन्य देशों में टैक्स देती है या नहीं, इससे भी कनाडा सरकार को कोई लेना-देना नहीं। कनाडा की सरकार ख़ुद भी खदान कम्पनियों को क़ानूनों के झंझट से मुक्त रखती है। अब अगर ऐसी सरकार मिले तो कोई पूँजीपति कनाडा क्यों नहीं जाना चाहेगा। अब जब कनाडा की खदान कम्पनियों के कुकर्मों की पोल खुलने लगी है (जिसका उनके बिज़नेस पर बुरा असर पड़ सकता है), तो कनाडा की सरकार उनकी छवि सँवारने तथा उनको “सामाजिक तौर पर ज़िम्मेदार कारपोरेट”” दिखाने के लिए जनता की जेबों से निकाले गये टैक्स के पैसों को कम्पनियों के हितों पर कुर्बान कर रही है।