Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

मौत के मुहाने पर : अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूर

अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड में रोज़ाना जानलेवा हादसे होते हैं। विशालकाय समुद्री जहाज़ों को तोड़ने का काम मज़दूरों को बेहद असुरक्षित परिस्थितियों में करना पड़ता है। अपर्याप्त तकनीकी सुविधाओं, बिना हेल्मेट, मास्क, दस्तानों आदि के मज़दूर जहाज़ों के अन्दर दमघोटू माहौल में स्टील की मोटी प्लेटों को गैस कटर से काटते हैं, जहाज़ों के तहख़ानों में उतरकर हर पुर्ज़ा, हर हिस्सा अलग करने का काम करते हैं। अकसर जहाज़ों की विस्फोटक गैसें तथा अन्य पदार्थ आग पकड़ लेते हैं और मज़दूरों की झुलसकर मौत हो जाती है। क्रेनों से अकसर स्टील की भारी प्लेटें गिरने से मज़दूर दबकर मर जाते हैं। कितने मज़दूर मरते और अपाहिज होते हैं इसके बारे में सही-सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर मामलों को तो पूरी तरह छिपा ही लिया जाता है। लाशें ग़ायब कर दी जाती हैं। कुछ के परिवारों को थोड़ा-बहुत मुआवज़ा देकर चुप करा दिया जाता है। ज़ख्मियों को दवा-पट्टी करवाकर या कुछ पैसे देकर गाँव वापस भेज दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अलंग यार्ड में रोज़ाना कम से कम 20 बड़े हादसे होते हैं और कम से कम एक मज़दूर की मौत होती है। एक विस्फोट में 50 मज़दूरों की मौत होने के बाद सरकार ने अलंग में मज़दूरों का हेल्मेट पहनना अनिवार्य बना दिया। लेकिन हेल्मेट तो क्या यहाँ मज़दूरों को मामूली दस्ताने भी नहीं मिलते। चारों तरफ आग, ज़हरीली गैसों और धातु के उड़ते कणों के बीच मज़दूर मुँह पर एक गन्दा कपड़ा लपेटकर काम करते रहते हैं। ज्यादातर प्रवासी मज़दूर होने के कारण वे प्राय: बेबस होकर सबकुछ सहते रहते हैं। इन मज़दूरों की पक्की भर्ती नहीं की जाती है। उन्हें न तो कोई पहचान पत्र जारी होते हैं न ही उनका कोई रिकार्ड रखा जाता है।

जालन्धर में होज़री कारख़ाने की इमारत गिरने से कम से कम 24 मज़दूरों की मौत

यह हादसा और इसके बाद का सारा घटनाक्रम पूँजीवादी व्यवस्था के भ्रष्टाचार, अमानवीयता, पशुता, मुनाफ़ाख़ोर चरित्र की ही गवाही देता है। इस घटना ने देश के कोने-कोने में कारख़ाना मज़दूरों के साथ हो रही भयंकर बेइंसाफ़ी को एक बार फिर उजागर किया है। यहाँ भी वही कहानी दोहरायी गयी है जो पंजाब सहित पूरे भारत के औद्योगिक इलाक़ों में अक्सर सुनायी पड़ती है। मज़दूरों की मेहनत से बेहिसाब मुनाफ़ा कमाने वाले सभी बड़े-छोटे कारख़ानों के मालिक मज़दूरों की ज़िन्दगी की कोई परवाह नहीं करते हैं। वे मुनाफ़े की हवस में इतने अन्धे हो चुके हैं कि मज़दूरों की सुरक्षा के इन्तज़ामों को भयंकर रूप से अनदेखी कर रहे हैं। कभी मज़दूर कारख़ानों की कमज़ोर इमारतें गिरने से मरते हैं, कभी इमारतें ब्वॉयलर फटने से गिर जाती हैं, कभी इमारतों को इतना ओवरलोड कर दिया जाता है कि वे बोझ झेल नहीं पाती हैं। मज़दूर असुरक्षित मशीनों पर काम करते हुए अपनी जान या अपने अंग गँवा बैठते हैं। लेकिन मालिकों को इस बात की कोई परवाह नहीं है। उनके लिए तो मज़दूर बस मशीनों के फर्जे हैं जिनके टूट-फूट जाने पर या घिस जाने पर उनकी जगह नये पुर्जों को फिट कर दिया जाता है।

ये तो निर्माण मज़दूरों के भीतर सुलगते ग़ुस्से की एक बानगी भर है

आज भारत की कुल मज़दूर आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित मज़दूर आबादी का है, जिनके लिए कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। निर्माण उद्योग में काम करने वाले ठेका मज़दूरों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है जो इस असंगठित मज़दूर आबादी का एक हिस्सा हैं। इन मज़दूरों की समस्याओं की सुनवाई न तो श्रम विभाग में होती है, न किसी अन्य सरकारी दफ्तर में। ठेकेदार इन मज़दूरों को दासों की तरह मनमर्ज़ी से जहाँ चाहे वहाँ स्थानान्तरित करते रहते हैं।

पीरागढ़ी अग्निकाण्ड : एक और हादसा या एक और हत्याकाण्ड?

दो महीने का समय बीत चुका है लेकिन आज भी किसी को यह तक नहीं मालूम कि बुधवार की उस शाम को लगी आग ने कितनी ज़िन्दगियों को लील लिया। पुलिस ने आनन-फानन में जाँच करके घोषणा कर दी कि कुल 10 मज़दूर जलकर मरे हैं, न एक कम, न एक ज़्यादा। बने-अधबने जूतों, पीवीसी, प्लास्टिक और गत्तो के डिब्बों से ठसाठस भरी तीन मंज़िला इमारत के जले हुए मलबे और केमिकल जलने से काली लिसलिसी राख को ठीक से जाँचने की भी ज़रूरत नहीं समझी गयी। मंगोलपुरी के संजय गाँधी अस्पताल के पोस्टमार्टम गृह के कर्मचारी कहते हैं कि उस रात कम से कम 12 बुरी तरह जली लाशें उनके पास आयी थीं। आसपास के लोग, मज़दूरों के रिश्तेदार, इलाक़े की फैक्ट्रियों के सिक्योरिटी गार्ड आदि कहते हैं कि मरने वालों की तादाद 60 से लेकर 75 के बीच कुछ भी हो सकती है। पास का चायवाला जो रोज़ फैक्टरी में चाय पहुँचाता था, बताता है कि आग लगने से कुछ देर पहले वह बिल्डिंग में 80 चाय देकर आया था। सभी बताते हैं कि आग लगने के बाद कोई भी वहाँ से ज़िन्दा बाहर नहीं निकला। कुछ लोगों ने एक लड़के को छत से कूदते देखा था लेकिन उसका भी कुछ पता नहीं चला। फिर बाकी लोग कहाँ गये? क्या सारे के सारे लोग झूठ बोल रहे हैं? या दिल्ली पुलिस हमेशा की तरह मौत के व्यापारियों को बचाने के लिए आँखें बन्द किये हुए है?

माँगपत्रक शिक्षणमाला-5 कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा हर मज़दूर का बुनियादी हक़ है!

आज देश के किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में जाकर पूछा जाये तो पता चलेगा कि मज़दूर हर जगह जान पर खेलकर काम कर कर रहे हैं। कोई दिन नहीं जाता जब छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं। मुनाफ़ा बटोरने के लिए कारख़ाना मालिक सुरक्षा के सभी इन्तज़ामों, नियमों और सावधानियों को ताक पर रखकर अन्धाधुन्ध काम कराते हैं। ऊपर से लगातार काम तेज़ करने का दबाव, 12-12, 14-14 घण्टे की शिफ़्टों में हफ़्तों तक बिना किसी छुट्टी के काम की थकान और तनाव – ज़रा-सी चूक और जानलेवा दुर्घटना होते देर नहीं लगती। बहुत बार तो मज़दूर कहते रहते हैं कि इन स्थितियों में काम करना ख़तरनाक है लेकिन मालिक-मैनेजर-सुपरवाइज़र ज़बर्दस्ती काम कराते हैं और उन्हें मौत के मुँह में धकेलने का काम करते हैं। और फिर दुर्घटनाओं के बाद मामले को दबाने और मज़दूर को मुआवज़े के जायज़ हक़ से वंचित करने का खेल शुरू हो जाता है। जिन हालात में ये दुर्घटनाएँ होती हैं उन्हें अगर ठण्डी हत्याएँ कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा। कारख़ानेदार ऐसी स्थितियों में काम कराते हैं जहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। श्रम विभाग सब कुछ जानकर भी आँख-कान बन्द किये रहता है। पुलिस, नेता-मन्त्री, यहाँ तक कि बहुत-से स्थानीय डॉक्टर भी मौतों पर पर्दा डालने के लिए एक गिरोह की तरह मिलकर काम करते हैं।

बादली औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरों की नारकीय ज़िन्दगी की तीन तस्वीरें

उत्तर-पूर्वी दिल्ली के बादली गाँव में एक जूता फ़ैक्ट्री में काम करने वाले अशोक कुमार की फ़ैक्ट्री में काम के दौरान 4 जनवरी 2011 को मौत हो गयी। वह रोज़ की तरह सुबह 9 बजे काम पर गया था। दोपहर में कम्पनी से पत्नी के पास फोन करके पूछा गया कि अशोक के पिता कहाँ हैं, मगर उसे कुछ बताया नहीं गया। बाद में पत्नी को पता लगा कि अशोक रोहिणी के अम्बेडकर अस्पताल में भरती है। उसी दिन शाम को अशोक की मौत हो गयी। मुंगेर, बिहार का रहने वाला अशोक पिछले 5 साल से इस फ़ैक्ट्री में काम कर रहा था। उसकी मौत के बाद मालिक अमित ने अशोक की पत्नी से कहा कि तुम्हारे बच्चों को स्कूल में दाखिल दिलाउंगा और तुम्हें उचित मुआवज़ा भी दिया जायेगा। तुम्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है, अशोक का क्रिया-कर्म कर दो। घरवाले मालिक की बातों में आ गये और किसी को कुछ नहीं बताया। बाद में जब अशोक की पत्नी मुआवज़ा लेने गयी तो मालिक ने उसे दुत्कारते हुए भगा दिया और कहा कि कोई भी ज़हर खाकर मर जाये तो क्या मैं सबको मुआवज़ा देते हुए घूमूँगा? उसने धमकी भी दी कि आज के बाद इधर फिर नज़र नहीं आना।

इस व्यवस्था में मौत का खेल यूँ ही जारी रहेगा!

मुनाफे की अंधी हवस बार-बार मेहनतकशों को अपना शिकार बनाती रहती है। इसका एक ताज़ा उदाहरण है सण्डीला (हरदोई) औद्योगिक क्षेत्र में स्थित ‘अमित हाइड्रोकेम लैब्स इण्डिया प्रा. लिमिटेड’ में हुआ गैस रिसाव। इस फैक्ट्री से फास्जीन गैस का रिसाव हुआ जो कि एक प्रतिबन्धित गैस है। इस गैस का प्रभाव फैक्ट्री के आसपास 600 मीटर से अधिक क्षेत्र में फैल गया। प्रभाव इतना घातक था कि 5 व्यक्तियों और दर्जनों पशुओं की मृत्यु हो गयी और अनेक व्यक्ति अस्पताल में गम्भीर स्थिति में भरती हैं। इस घटना के अगले दिन इसी फैक्ट्री में रसायन से भरा एक जार फट गया जिससे गैस का रिसाव और तेज़ हो गया। किसी बड़ी घटना की आशंका को देखते हुए पूरे औद्योगिक क्षेत्र को ही ख़ाली करा दिया गया। इस फैक्ट्री में कैंसररोधी मैटीरियल बनाने के नाम पर मौत का खेल रचा जा रहा था। इस तरह के तमाम और उद्योग हैं जहाँ पर, अवैध रूप से ज़िन्दगी के लिए ख़तरनाक रसायनों को तैयार किया जाता है।

पूँजीवादी गणतन्त्र के जश्न में खो गयीं मुनाफ़े की हवस में मारे गये मज़दूरों की चीख़ें

26 जनवरी की पूर्व संध्या पर देश की राजधानी में 61वें गणतन्त्र की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से चल रही थीं। ठीक उसी वक्‍त दिल्ली के तुगलकाबाद में चल रही अवैध फैक्ट्री में हुए विस्फोट में 12 मज़दूर मारे गये और 6 से ज्यादा घायल हो गए। बेकसूर मज़दूरों की मौत देश के शासक वर्ग के जश्न में कोई ख़लल न डाल सके, इसके लिए मज़दूरों की मौत की इस ख़बर को दबा दिया गया। कुछ दैनिक अख़बारों ने खानापूर्ति के लिए इस घटना की एक कॉलम की छोटी-सी ख़बर दे दी। वह भी न जाने ज़नता के सामने इस घटना को लाने के लिए दी थी, या कारख़ाना मालिक से अपना हिस्सा लेने के लिए।

आई.ई.डी. की फैक्ट्री में एक और मज़दूर का हाथ कटा

लालकुँआ स्थिति आई.ई.डी. के बारे में छपी रिपोर्टों से ‘बिगुल’ के पाठक परिचित ही हैं। यहाँ काम कर रहे मज़दूर आए दिन दुर्घटनाओं का शिकार होते रहते हैं। कभी उंगलियाँ कटती हैं, तो कभी हथेली। मालिक के मुनाफे की हवस के ताज़ा शिकार गुमान सिंह हुए हैं जिनकी उम्र महज 35 साल है। गुमान सिंह इण्टरनेशनल इलेक्ट्रो डिवाइसेज लि. के फ्रेमिंग डिपार्टमेण्ट — जिसमें पिक्चर टयूबों की फ्रेमें बनती हैं — में काम करते थे। घटना 24 जनवरी, 2011 की रात्रि पाली में हुई। कम्पनी की एम्बुलेंस नामधारी निजी कार से उन्हें डॉक्टरी इलाज के लिए ले जाया गया। शुरुआती कुछ ख़र्च देने के बाद प्रबन्‍धन चुप बैठा है। गुमान सिंह इस उम्मीद में हैं कि इस कम्पनी को मैंने जवानी के 15 बरस दिए हैं, वह हमारा ज़रूर ख्याल करेगी। गुमान सिंह गढ़वाल के रहने वाले हैं। 1995 में गाज़ियाबाद आये कि यहाँ मोटर मैकेनिक का काम सीखेंगे। कई-एक फैक्ट्रियों में काम किया, अन्तत: आई.ई.डी. में 1996 से काम करने लगे। 6 माह बाद 1997 में उन्हें कम्पनी ने स्थायी कर दिया। तब से वे इसी कम्पनी में काम करते रहे हैं। गाज़ियाबाद के ज़नता क्वार्टर में अपने तीन बच्चों व बुजुर्ग बाप के साथ रहने वाले गुमान सिंह के सामने भविष्य की ज़िम्मेदारी सामने खड़ी है। शरीर का सबसे कीमती अंग गँवाकर यह मज़दूर अपने बच्चों का पेट कैसे पालेगा, इसके बारे में मुनाफाख़ोर मालिकान के पास क्या कोई जबाव है?

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 4 काम की बेहतर और सुरक्षित स्थितियों की माँग इन्सानों जैसे जीवन की माँग है!

मज़दूर भाइयों और बहनों को पशुवत जीवन को ही अपनी नियति मान लेने की आदत को छोड़ देना चाहिए। हम भी इन्सान हैं। और हमें इन्सानों जैसी ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी सभी सुविधाएँ मिलनी चाहिए। यह बड़े दुख की बात है कि स्वयं मज़दूर साथियों में ही कइयों को ऐसा लगता है कि हम कुछ ज्यादा माँग रहे हैं। वास्तव में, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी उजरती ग़ुलाम की तरह खटने चले जाने से पैदा होने वाली मानसिकता है कि हम ख़ुद को बराबर का इन्सान मानना ही भूल जाते हैं। जीवन की भयंकर कठिन स्थितियों में जीते-जीते हम यह भूल जाते हैं कि देश की सारी धन-दौलत हम पैदा करते हैं और इसके बावजूद हमें ऐसी परिस्थितियों में जीना पड़ता है। हम भूल जाते हैं कि यह अन्याय है और इस अन्याय को हम स्वीकार कर बैठते हैं। माँगपत्रक अभियान सभी मज़दूर भाइयों और बहनों का आह्नान करता है साथियो! मत भूलो कि इस दुनिया की समस्त सम्पदा को रचने वाले हम हैं! हमें इन्सानों जैसे जीवन का अधिकार है! काम, आराम, मनोरंजन हमारा हक़ है! क्या हम महज़ कोल्हू के बैल के समान खटते रहने और धनपशुओं की तिजोरियाँ भरने के लिए जन्म लेते हैं? नहीं! हमें काम की जगह पर उपरोक्त सभी अधिकारों के लिए लड़ना होगा। अपने दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि हम कुछ भी ज्यादा माँग रहे हैं। हम तो वह माँग रहे हैं जो न्यूनतम है।