Category Archives: विरासत

सेण्ट पीटर्सबर्ग का वह कार्यकाल जिसने लेनिन को मेहनतकश जनता के नेता के रूप में ढाला

व्लादीमिर इलिच को उस हर छोटी बात में दिलचस्पी थी, जो मज़दूरों की जि़न्दगी और उनके हालात की तस्वीर को उभारने में मदद कर सके और जिसके सहारे वे क्रान्तिकारी प्रचार कार्य के लिए मज़दूरों से सम्पर्क क़ायम कर सकें। उस ज़माने के अधिकांश बुद्धिजीवी मज़दूरों को अच्छी तरह नहीं जानते थे। वे किसी अध्ययन मण्डल में आते और मज़दूरों के सामने एक तरह का व्याख्यान पढ़ देते। एंगेल्स की पुस्तक ”परिवार व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति” का हस्तलिखित अनुवाद बहुत दिनों तक गोष्ठियों में घूमता रहा। व्लादीमिर इलिच मज़दूरों को मार्क्स का ग्रन्थ पूँजी पढ़कर सुनाते और उसे समझाते। वे अपने पाठ का आधा समय मज़दूरों से उनके काम और मज़दूरी के हालात के विषय में पूछने पर लगाते। और इस प्रकार उन्हें दिखाते और बताते कि उनकी जि़न्दगी समाज के पूरे ढाँचे के लिए क्या महत्त्व रखती है तथा वर्तमान व्यवस्था को बदलने का उपाय क्या है? अध्ययन मण्डलों में सिद्धान्त को व्यवहार से इस प्रकार जोड़ना व्लादीमिर इलिच के कार्य की विशेषता थी। धीरे-धीरे हमारे अध्ययन मण्डलों के अन्य सदस्यों ने भी यह तरीक़ा अपना लिया।

महाविद्रोही जनमनीषी राहुल सांकृत्यायन के कुछ उद्धरण

“धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ -इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है कौन गाय खाने वालों से गो न खाने वालों को लड़ा रहा है असल बात यह है – ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।’ हिन्दुस्तान की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं है।”

यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर शक्तिशाली व्यक्तियों का एकाधिकार रहेगा…

एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों की इस बढ़ती समाजवादी चेतना के कारण वे विदेशी और देशी पूँजीवाद के रिश्तों को समझ सकते थे। वे विदेशी पूँजीपतियों के साथ भारतीय पूँजीपति वर्ग के समझौतावादी, दलाली के सम्बन्ध को साफ़ तौर पर देख रहे थे, जो दोनों मिलकर जनता से उसका हक़ छीन रहे थे। वे मानते थे कि हिन्दुस्तान को एक वर्ग ने गुलाम बनाया है – जिसमें भारतीय और विदेशी दोनों शोषक शामिल हैं। यह समझदारी अनेक नारों और पर्चों में झलकती है जिनमें कहा गया है कि आज़ादी और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के ख़ात्मे के बीच सीधा रिश्ता है। देशी शोषकों से भी उनका सामना हुआ और उन्होंने साफ़ कहा कि जनता के हितों के लिए वे भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितने कि विदेशी पूँजीवादी शासक।

देश के मज़दूरों की दशा – गणेशशंकर विद्यार्थी

बम्बई और मद्रास के मज़दूरों ने तंगदस्ती से परेशान होकर हड़तालें कीं, और अपनी उजरतें कुछ-कुछ बढ़वा ली हैं। परन्तु अन्य स्थानों में मज़दूरों की उजरतें उतनी ही हैं जितनी कि युद्ध के पहले थीं। उनकी मानसिक और आर्थिक उन्नति के कोई साधन नहीं। बहुत से कारख़ानों में उनके साथ असभ्य व्यवहार होता है। छोटी-छोटी बातों पर उनका अपमान होता है। उन्हें ठोकरें लगाई जाती हैं। उन्हें मारा जाता है। कारख़ाने के मालिकों और बड़े नौकरों का यह क्रूर, शुष्क और हाकिमाना बर्ताव मज़दूरों की आत्माएँ दाब देता है, उनकी स्वाधीनता मार देता है, उनमें भय पैठ जाता है, और वे डरपोक, कायर, झूठे और आत्मसम्मान के भाव से शून्य हो जाते हैं।

भगतसिंह की बात सुनो!

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ाता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतन्त्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतन्त्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमाग़ी ग़ुलामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि – ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है – बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है।

रोबर्ट ओवन : महान काल्पनिक समाजवादी

रोबर्ट ओवन का सबसे प्रसिद्ध और सफल प्रयोग न्यू लेनार्क के कॉटन मिल में किये गये उनके कामों को माना जाता है। सन 1800 से 1821 के बीच ओवन ने स्कॉटलैण्ड की न्यू लेनार्क नामक जगह में एक नयी आदर्श कॉलोनी बसायी। ओवन के अनुसार – “किसी भी क़िस्म का मानवीय चरित्र समुचित साधनों से किसी भी समाज को दिया जा सकता है चाहे वह समाज चेतस हो या भले ही अज्ञानी हो, बल्कि यह बात पूरी दुनिया पर लागू होती है” और इस बात को लागू करते हुए ही उन्होंने यह दिखाया कि कैसे जब नरक सरीखी ज़िन्दगी में जी रहे मज़दूरों को बेहतर परिस्थिति में जीने का मौक़ा मिला तो उनके जीवन में भारी बदलाव हुआ। मज़दूरों के बीच से शराबखोरी, ग़रीबी आदि ख़त्म हो गये। 500 मज़दूरों से शुरू हुई इस कॉलोनी की आबादी बढ़कर 2500 तक पहुँच गयी। उन्होंने अपनी फ़ैक्टरी में अनाथ बच्चों से काम करवाना बन्द करवा दिया और उनके लिए शिक्षा के बेहतर उपाय ढूँढ़े। न्यू लेमार्क कॉलोनी के लोगों के लिए ओवन ने कायदे और क़ानून भी बनाये जिससे लोग अपने घर और गलियों को साफ़-सुथरा और सुरक्षित रख सकें। इस नियम का पालन करवाने के लिए कॉलोनी के लोगों की समिति का गठन किया गया। कॉलोनी में दुकानें भी खोली गयी जहाँ ख़रीद दर पर सामान मिलता था। दो बड़े स्कूल खोले गये जहाँ सभी निवासियों के लिए दिन और शाम की क्लास मुहैया करायी जाती थी। बीमारों के इलाज के लिए एक फ़ण्ड बनाया गया जिससे सभी को डॉक्टर और दवाई मुहैया करायी जा सके।

उड़न छापाखाना – रूस की मज़दूर क्रान्ति के दौरान गुप्त अख़बार की छपाई की रोमांचक और दिलचस्प दास्तान

यह एक अद्भुत छापाखाना था : इसके पास न तो रोटरी प्रेस, टाइप फेस थे और न ही कागज। इसके पास अपना दफ्तर तक नहीं था। लेकिन बगावत के दिनों में इसने क्रान्तिकारी अखबार इज्वेस्तिया निकालने का इंतजाम तो कर ही लिया। बोल्शेविकों ने इसे “फ्लाइंग प्रेस” नाम दिया था।
इसके कर्मचारियों में पंद्रह टाइप-सेटर और पचास मज़दूर गश्ती दल के सदस्य थे। छपाई दफ्तर उस समय मास्को का कोई भी छापाखाना हो सकता था। अकेले अथवा छोटे समूहों में मजदूर उस छापाखाने में पहुंच जाते जिसे उन्होंने अखबार की छपाई के लिए चुना होता। वे आनन-फानन में बरामदों को घेरते हुए सभी प्रवेश एवं निकास द्वारों पर कब्जा जमा लेते। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह रहती थी कि वे सड़क से पहचाने नहीं जाएं।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के कमाण्डर, देश के सच्चे क्रान्तिकारी सपूत, आज भी सच्ची आज़ादी और इंसाफ़ के लिए लड़ रहे हर नौजवान के प्रेरणास्रोत चन्द्रशेखर आज़ाद के जन्मदिवस (23 जुलाई) के अवसर पर

आज़ाद के बारे में अधिकांश लोगों ने या तो कल्पना के सहारे लिखा है या फिर दूसरों से सुनी-सुनायी बातों को एक जगह बटोरकर रख दिया है। कुछ लोगों ने उन्हें जासूसी उपन्यास का नायक बना उनके चारों ओर तिलिस्म खड़ा करने की कोशिश की है। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने अपने को ऊँचा दिखाने के ख़्याल से उन्हें निरा जाहिल साबित करने की कोशिश की है। फलस्वरूप उनके बारे में तरह-तरह की ऊलजुलूल धारणाएँ बन गयी हैं – उसमें मानव सुलभ कोमल भावनाओं का एकदम अभाव था, वे केवल अनुशासन का डण्डा चलाना जानते थे, वे क्रोधी एवं हठी थे, किसी को गोली से उड़ा देना उनके बायें हाथ का खेल था, उनके निकट न दूसरों के प्राणों का मूल्य था न अपने प्राणों का कोई मोह, उनमें राजनीतिक सूझ-बूझ नहीं के बराबर थी, उनका रुझान फासिस्टी था, पढ़ने-लिखे में उनकी पैदाइशी दुश्मनी थी आदि। कहना न होगा कि आज़ाद इनमें से कुछ भी न थे। और जाने-अनजाने उनके प्रति इस प्रकार की धारणाओं को प्रोत्साहन देकर लोगों ने उनके व्यक्तित्व के प्रति अन्याय ही किया है।

भगतसिंह की बात सुनो ! स्मृति से प्रेरणा लो, विचारों से दिशा लो!

भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को– भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं–आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयां, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।

अगर कोई मालिक नहीं होगा तो मज़दूर को काम कौन देगा? – कुछ सीधी-सादी समाजवादी सच्चाइयाँ

समाजवादी : इस प्रकार मज़दूर ही वो रुपये पैदा करते हैं जो मालिक उन्हें काम करने के लिए नयी मशीनें ख़रीदने में लगाता है; उत्पादन को निर्देशित करने वाले मैनेजर और फ़ोरमैन, आपकी तरह ही वैतनिक गुलाम होते हैं; तब, मालिक कहाँ आता है वह किस काम के लिए अच्छा है?
मज़दूर : श्रम के शोषण के लिए।
समाजवादी : हम कह सकते हैं, श्रमिकों को लूटने के लिए; यह स्पष्ट और ज़्यादा सटीक है।