Category Archives: विरासत

राहुल सांकृत्यायन का प्रसिद्ध लेख दिमागी गुलामी

आंख मूंदकर हमें समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक–एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार होना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा जरूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें दाहिने–बायें, आगे–पीछे दोनों हाथ नंगी तलवार नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना चाहिए। क्रान्ति प्रचण्ड आग है, वह गांव के एक झोपड़े को जलाकर चली नहीं जायेगी। वह उसके कच्चे– पक्के सभी घरों को जलाकर खाक कर देगी और हमें नये सिरे से नये महल बनाने के लिए नींव डालनी पड़ेगी। 

तुम्हारी क्षय – राहुल सांकृत्यायन

समाज को पीछे की ओर धकेलने वाले हर प्रकार के विचार, रूढ़ियों, मूल्यों-मान्यताओं-परम्पराओं के खिलाफ़ उनका मन गहरी नफ़रत से भरा हुआ था। उनका समूचा जीवन व लेखन इनके खिलाफ़ विद्रोह का जीता-जागता प्रमाण है। इसीलिए उन्हें महाविद्रोही भी कहा जाता है। जनता के ऐसे ही सच्चे सपूत महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन की एक पुस्तिका ‘तुम्हारी क्षय’ बिगुल के पाठकों के लिए हम धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर रहे हैं। राहुल की यह निराली रचना आज भी हमारे समाज में प्रचलित रूढ़ियों के खिलाफ़ समझौताहीन संघर्ष की ललकार है।

तुम्हारे जोंकों की क्षय – राहुल सांकृत्यायन

इसी समय जर्मनी में एक विचारक पैदा हुआ जिसका नाम था कार्ल मार्क्स। उसने बतलाया कि बेकारी और युद्ध पूँजीवाद के अनिवार्य परिणाम रहेंगे बल्कि जितना ही पूँजीवाद की संरक्षकता में यन्त्रों का प्रयोग बढ़ता जायेगा, बेकारी और युद्ध उतना ही भयानक रूप धारण करते जायेंगे – उसने इससे बचने का एक ही उपाय बतलाया – साम्यवाद। जर्मनी, फ्रांस – जहाँ भी उसने अपने इन विचारों को प्रकट किया, वहाँ की सरकारें उसके पीछे पड़ गयीं। पूँजीपति समझ गये कि साम्यवाद उनकी जड़ काटने के लिए है। उसमें तो सारी सम्पत्ति का मालिक व्यक्ति न होकर समाज रहेगा। उस वक्त हर एक को अपनी योग्यता के मुताबिक काम करना पड़ेगा और आवश्यकता के मुताबिक जीवन-सामग्री मिलेगी। सबके लिए उन्नति का मार्ग एक-सा खुला रहेगा। कोई किसी का नौकर और दास नहीं रहेगा। भला धनी इसे कब पसन्द करने वाले थे? लेकिन अभी तक मार्क्स के विचार सिर्फ हवा में गूँज रहे थे। मजदूरों पर उनका असर बिलकुल हल्का-सा पड़ रहा था, इसलिए पूँजीवादियों का विरोध तेज न था – खास करके जबकि उन्होंने देखा कि एक समय के आग उगलने वाले प्रलोभनों को हाथ में आया पाकर वे पूँजीवाद के सहायक बन सकते हैं। दुनिया की जोंकों ने समझा कि साम्यवाद हमेशा हवा और आसमान की चीज रहेगा और उसे कभी ठोस जमीन पर उतरने का मौका नहीं मिलेगा।

तुम्हारी जात-पाँत की क्षय – राहुल सांकृत्यायन

पिछले हजार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होगा कि हिन्दुस्तानी लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद था। जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है। ब्राह्मण समझता है, हम बड़े हैं, राजपूत छोटे हैं। राजपूत समझता है, हम बड़े हैं,  कहार छोटे हैं। कहार समझता है, हम बड़े हैं, चमार छोटे हैं। चमार समझता है, हम बड़े हैं, मेहतर छोटे हैं और मेहतर भी अपने मन को समझाने के लिए किसी को छोटा कह ही लेता है। हिन्दुस्तान में हजारों जातियाँ हैं। और सबमें यह भाव है। राजपूत होने से ही यह न समझिए कि सब बराबर है। उनके भीतर भी हजारों जातियाँ हैं। उन्होंने कुलीन कन्या से ब्याह कर अपनी जात ऊँची साबित करने के लिए आपस में बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी हैं और देश की सैनिक शक्ति का बहुत भारी अपव्यय किया है। आल्हा-ऊदल की लड़ाइयाँ इस विषय में मशहूर हैं।

तुम्हारे इतिहासाभिमान और संस्कृति की क्षय – राहुल सांकृत्यायन

हिन्दुओं के इतिहास में राम का स्थान बहुत ऊँचा है। आजकल के हमारे बड़े नेता, गाँधीजी, मौके-ब-मौके रामराज्य की दुहाई दिया करते थे। वह रामराज्य कैसा होगा जिसमें कि बेचारे शूद्र शम्बूक का सिर्फ यही अपराध था कि वह धर्म कमाने के लिए तपस्या कर रहा था और इसके लिए राम जैसे अवतार और धर्मात्मा राजा ने उसकी गर्दन काट ली? वह रामराज्य कैसा रहा होगा जिसमें किसी आदमी के कह देने मात्र से राम ने गर्भिणी सीता को जंगल में छोड़ दिया? रामराज्य में दास-दासियों की कमी न थी।

तुम्हारे सदाचार की क्षय – राहुल सांकृत्यायन

हमारे देश के एक बड़े आदमी हैं। धर्म पर वह अपनी बड़ी भारी अनुरक्ति दिखलाते हैं। भगवान का नाम लेते-लेते गदगद होकर नाचने लगते हैं और ऐसे प्रदर्शन में काफी रुपया खर्च करते रहते हैं। उनकी हालत यह है कि जिस वक्त बड़े वेतन वाले पद पर थे, तब कभी रिश्वत बिना लिये नहीं छोड़ते थे और स्त्रियों के सम्बन्ध में तो मानो सभी नियमों को तोड़ देने के लिए भगवान की ओर से उन्हें आज्ञा मिली है। एक प्रातःस्मरणीय राजर्षि को मरे अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं। उनकी भगवद्भक्ति अपूर्व थी। सबेरे ईश्वर-भक्ति पर एक पद बनाये बिना वह चारपाई से उठते न थे और पूजा-पाठ में उनके घण्टों बीत जाते थे। लेकिन, दूसरी ओर हाल यह था कि अपने नगर और राज्य में जहाँ किसी सुन्दरी का जैसे ही पता लगा कि जैसे हो उसे मँगवाकर ही छोड़ते थे। एक तरुण विधवा रानी थीं। उनके पास बड़ी भारी जायदाद थी। एक बड़े तीर्थ में भगवद्-चरणों में लवलीन हो अपना दिन काटती थीं। धार्मिक-उत्सव, पूजापाठ में खुलकर रुपया खर्च करती ही थीं, साथ ही उनके यहाँ बहुत से विद्यार्थियों को भी रखकर भोजन दिया जाता था। रानी साहिबा अपनी आँख से देखकर विद्यार्थी को भर्ती होने देती थीं और तरुण विद्यार्थी रात-रात भर पार्थिव पूजा में उनकी सहायता करते थे। अत्यन्त वृद्धा होने पर भी उनकी अपार काम-पिपासा में कोई अन्तर नहीं आया।

तुम्हारे भगवान की क्षय – राहुल सांकृत्यायन

ईश्वर का विश्वास एक छोटे बच्चे के भोले-भाले विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं है। अन्तर इतना ही है कि छोटे बच्चे का शब्दकोष, दृष्टान्त और तर्कशैली सीमित होती है और बड़ों की कुछ विकसित। बस, इसी विशेषता का फर्क हम दोनों में पाते हैं। एक बार, तीन छोटे-छोटे बच्चों ने मुझसे ईश्वर के सम्बन्ध में बातचीत की। उनकी उमर सात और दस बरस के बीच की थी। पूछा कि ईश्वर कहाँ रहता है, उत्तर मिला – ‘आकाश में?’ धरती में कहने से प्रत्यक्ष दिखलाने की जरूरत पड़ती, क्योंकि धरती प्रत्यक्ष की सीमा के भीतर है। आकाश अज्ञान की सीमा के अन्तर्गत है, इसलिए वहाँ उसका अस्तित्व अधिक सुरक्षित है। ईश्वर के रंग-रूप के बारे में लड़कों का एक मत न था। कोई उसे अपनी शक्ल का बतलाते थे और कोई विचित्र शक्ल का। “ईश्वर क्या करता है?” – यह सबसे मुख्य प्रश्न था। इसे लड़के भी अनुभव करते थे, क्योंकि जिस वस्तु का आकार प्रत्यक्ष नहीं होता, उसकी सत्ता उसकी क्रिया से सिद्ध हो सकती है। लड़कों ने कहा – “वह हमें भोजन देता है।” “और तुम्हारे बाबूजी?” – “बाबूजी को ईश्वर देता है।”

तुम्हारे धर्म की क्षय – राहुल सांकृत्यायन

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है; और, इसलिए अब मजहबों के मेलमिलाप की बातें कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है? “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” – इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना अगर मज़हब बैर नहीं सिखाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा है? कौन गाय खाने वालों को लड़ा रहा है। असल बात यह है – “मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।” हिन्दुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर। कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसका, मौत को छोड़कर इलाज नहीं।

तुम्हारे समाज की क्षय – राहुल सांकृत्यायन

एक तरफ प्रतिभाओं की इस तरह अवहेलना और दूसरी तरफ धनियों के गदहे लड़कों पर आधे दर्जन ट्यूटर लगा-लगाकर ठोक-पीटकर आगे बढ़ाना। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके दिमाग में सोलहों आने गोबर भरा हुआ था, लेकिन वह एक करोड़पति के घर पैदा हुआ था। उसके लिए मैट्रिक पास करना भी असम्भव था। लेकिन आज वह एम.ए. ही नहीं है, डाक्टर है। उसके नाम से दर्जनों किताबें छपी हैं। दूर की दुनिया उसे बड़ा स्कालर समझती है। एक बार “उसकी” एक किताब को एक सज्जन पढ़कर बोल उठे – “मैंने इनकी अमुक किताब पढ़ी थी। उसकी अंग्रेजी बड़ी सुन्दर थी; और इस किताब की भाषा तो बड़ी रद्दी है?” उनको क्या मालूम था कि उस किताब का लेखक दूसरा था और इस किताब का दूसरा। प्रतिभाओं के गले पर इस प्रकार छूरी चलते देखकर जो समाज खिन्न नहीं होता, उस समाज की “क्षय हो” इसको छोड़ और क्या कहा जा सकता है।

मीना किश्‍वर कमाल : वर्जनाओं के अंधेरे में जो मशाल बन जलती रही

सपनों पर पहरे तो बिठाये जा सकते हैं लेकिन उन्‍हें मिटाया नहीं जा सकता। वर्जनाओं के अंधेरे चाहे जितने घने हों, वे आजादी के सपनों से रोशन आत्‍माओं को नहीं डुबा सकते। यह कल भी सच था, आज भी है और कल भी रहेगा। अफगानिस्‍तान के धार्मिक कठमुल्‍लों के “पाक” फरमानों का बर्बर राज भी इस सच का अपवाद नहीं बन सका। मीना किश्‍वर कमाल की समूची जिन्‍दगी इस सच की मशाल बनकर जलती रही और लाखों अफगानी औरतों की आत्‍माओं को अंधेरे में डूब जाने से बचाती रही।