Category Archives: विरासत

7 नवम्बर – एक नयी ऐतिहासिक तारीख़

अल्बर्ट रीस विलियम्स उन पाँच अमेरिकी लोगों में से एक थे जो अक्टूबर क्रान्ति के तूफ़ानी दिनों के साक्षी थे। अन्य चार अमेरिकी थे – जॉन रीड, बेस्सी बिट्टी, लुइस ब्रयान्त और एलेक्स गाम्बोर्ग। ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ – जॉन रीड की इस विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक से हिन्दी पाठक भलीभाँति परिचित हैं जिसमें उन्होंने अक्टूबर क्रान्ति के शुरुआती दिनों का आश्चर्यजनक रूप से शक्तिशाली वर्णन प्रस्तुत किया है। बेस्सी बिट्टी ने भी ‘रूस का लाल हृदय’ नामक पुस्तक तथा अक्टूबर क्रान्ति विषयक कई लेख लिखे। दुर्भाग्यवश उनके हिन्दी अनुवाद अभी तक सामने नहीं आये हैं।

मक्सिम गोर्की : एक सच्चे सर्वहारा लेखक

दुनिया में ऐसे लेखकों की कमी नहीं, जिन्हें पढ़ाई-लिखाई का मौक़ा मिला, पुस्तकालय मिला, शान्त वातावरण मिला, जिसमें उन्होंने अपनी लेखनी की धार तेज़ की। लेकिन बिरले ही ऐसे लोग होंगे जो समाज के रसातल से उठकर आम-जन के सच्चे लेखक बने। मक्सिम गोर्की ऐसे ही लेखक थे। उनका उपन्यास ‘माँ’ आज दुनिया की लगभग हर भाषा में पढ़ा जाता है।

कॉमरेड अरविन्द के स्मृतिदिवस के अवसर पर : भारतीय मज़दूर वर्ग की पहली राजनीतिक हड़ताल – एक प्रेरक और गौरवशाली इतिहास

23 जुलाई को करीब एक लाख मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सेदारी की। मुंबई की आम जनता भी मज़दूरों के साथ आ खड़ी हुई। 24 जुलाई को संघर्षरत जनता की लड़ाई सेना के हथियारबंद दस्तों के साथ फिर से शुरू हो गयी। गोलियों का जवाब ईंटो और पत्थरों की बारिश से दिया गया। बहुत से मज़दूर आम जनता के साथ शहीद हुए। इसी बीच पुलिस कमिश्नर ने मिल मालिकों से हड़ताल का विरोध करने के लिए कहा। मालिकों ने फैसला किया कि ‘उद्योग की भलाई’ के लिए मजदूरों को हड़ताल बंद कर देनी चाहिए। मिल मालिक एसोसिएशन के अध्यक्ष हरिलाल भाई विश्राम ने मिल मालिकों को सलाह दी -”आपकी ज़ि‍म्मेदारी यह देखना है कि सरकार को किसी तरह परेशान न किया जाए, कानून-कायदों को मानकर चला जाए। आप मज़दूरों को काम पर वापस जाने के लिए दबाव डालिए।” परन्तु मज़दूरों ने मालिकों-पुलिस-प्रशासन की तिकड़मों को धता बताते हुए अपने संघर्ष को जारी रखा। देश की जनता के सामने किये गए 6 दिन की हड़ताल के वायदे को मजदूरों ने शब्दशः निभाकर अपने जुझारूपन को स्थापित कर दिया।

आज़ाद ने मज़दूरों और ग़रीबों के जीवन को नज़दीक से देखा था और आज़ादी के बाद मज़दूरों के राज की स्थापना उनका सपना था

शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी-रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की बातों ने उन्हें मुग्ध-सा कर लिया था। और समाजवाद की जिन बातों को जिस हद तक वे समझ पाये थे उतने को ही आज़ादी के ध्येय के साथ जीवन के सम्बल के रूप में उन्होंने पर्याप्त मान लिया था। वैज्ञानिक समाजवाद की बारीकियों को समझे बग़ैर भी वे अपने-आप को समाजवादी कहने में गौरव अनुभव करने लगे थे। यह बात आज़ाद ही नहीं, उस समय हम सब पर लागू थी। उस समय तक भगतसिंह और सुखदेव को छोड़कर और किसी ने न तो समाजवाद पर अधिक पढ़ा ही था और न मनन ही किया था। भगतसिंह और सुखदेव का ज्ञान भी हमारी तुलना में ही अधिक था। वैसे समाजवादी सिद्धान्त के हर पहलू को पूरे तौर पर वे भी नहीं समझ पाये थे। यह काम तो हमारे पकड़े जाने के बाद लाहौर जेल में सन 1929-30 में सम्पन्न हुआ। भगतसिंह की महानता इसमें थी कि वे अपने समय के दूसरे लोगों के मुक़ाबले राजनीतिक और सैद्धान्तिक सूझबूझ में काफ़ी आगे थे।

वाचन संस्‍कृति – मेहनतकशों और मुनाफाखोरों के शासन में फर्क

आखिरकार इतना फ़र्क क्यों है? क्यों एक ऐसा देश जहाँ 1917 की क्रांति से पहले 83% लोग अनपढ़ थे वह महज़ 3 दशकों के अंदर ही दुनिया का सब से पढ़ने-लिखने वाला देश बन गया और क्यों भारत, जिस को कि आज़ाद हुए 70 साल हो गए हैं, वहाँ अभी भी पढ़ने की संस्कृति बेहद कम है? फ़र्क दोनों देशों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक  व्‍यवस्‍था का है। फ़र्क भारत के पूंजीवाद और सोवियत यूनियन के समाजवाद का है।

क्रान्तिकारी सोवियत संघ में स्वास्थ्य सेवाएँ

सोवियत संघ में स्वास्थ्य सुविधा पूरी जनता को नि:शुल्क उपलब्ध थी। वहाँ गोरखपुर की तरह ऑक्सीजन सिलेण्डर के अभाव में बच्चे नहीं मरते थे और ना ही भूख से कोई मौत होती थी। सोवियत रूस में गृह युद्ध (1917-1922) के दौरान स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत पिछड़ गयी थीं। 1921 में जब गृहयुद्ध में सोवियत सत्ता जीत गयी, तब रूस में सब जगह गृहयुद्ध के कारण बुरा हाल था। देशभर में टाइफ़ाइड और चेचक जैसी बीमारियों से कई लोग मर रहे थे। साबुन, दवा, भोजन, मकान, स्कूल, पानी आदि तमाम बुनियादी सुविधाओं का चारों तरफ़़़ अकाल था। मृत्यु दर कई गुना बढ़ गयी थी और प्रजनन दर घट गयी थी। चारों तरफ़़़ अव्यवस्था का आलम था। पूरा देश स्वास्थ्य कर्मियों, अस्पतालों, बिस्तरों, दवाइयों, विश्रामगृहों के अभाव की समस्या से जूझ रहा था। ऐसे में सोवियत सत्ता ने एक केन्द्रीयकृत चिकित्सा प्रणाली को अपनाने का फ़ैसला किया जिसका लक्ष्य था छोटी दूरी में इलाज करना और लम्बी दूरी में बीमारी से बचाव के साधनों-तरीक़ों पर ज़ोर देना ताकि लोगों के जीवन स्तर को सुधारा जा सके।

अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर पूँजीवादी शोषण के खि़लाफ़ संघर्ष जारी रखने का संकल्प लिया

इस वक़्त पूरी दुनिया में मज़दूर सहित अन्य तमाम मेहनतकश लोगों का पूँजीपतियों-साम्राज्यवादियों द्वारा लुट-शोषण पहले से भी बहुत बढ़ गया है। वक्ताओं ने कहा कि भारत में तो हालात और भी बदतर हैं। मज़दूरों को हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी इतनी आमदनी भी नहीं है कि अच्छा भोजन, रिहायश, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि ज़रूरतें भी पूरी हो सकें। भाजपा, कांग्रेस, अकाली दल, आप, सपा, बसपा सहित तमाम पूँजीवादी पार्टियों की उदारीकरण-निजीकरण-भूमण्डलीकरण की नीतियों के तहत आठ घण्टे दिहाड़ी, वेतन, हादसों व बीमारियों से सुरक्षा के इन्तज़ाम, पीएफ़, बोनस, छुट्टियाँ, काम की गारण्टी, यूनियन बनाने आदि सहित तमाम श्रम अधिकारों का हनन हो रहा है। काले क़ानून लागू करके जनवादी अधिकारों को कुचला जा रहा है।

शहीद सुखदेव के जन्म स्थान नौघरा मोहल्ला में हुआ श्रद्धांजलि कार्यक्रम

15 मई को शहीद सुखदेव के जन्म स्थान नौघरा मोहल्ला, लुधियाना में बिगुल मज़दूर दस्ता, लोक मोर्चा पंजाब, इंक़लाबी केन्द्र पंजाब व इंक़लाबी लोक मोर्चा द्वारा संयुक्त तौर पर शहीद सुखदेव का जन्मदिन मनाया गया। घण्टाघर चौक के नज़दीक नगर निगम कार्यालय से लेकर नौघरा मोहल्ला तक पैदल मार्च किया गया। शहीद सुखदेव की यादगार पर लोगों ने श्रद्धांजलि फूल भेंट किये। इस अवसर पर बिगुल मज़दूर दस्ता के राजविन्दर, लोक मोर्चा पंजाब के कस्तूरी लाल, इंक़लाबी केन्द्र पंजाब के नेता कंवलजीत खन्ना व इंक़लाबी लोक मोर्चा के विजय नारायण ने सम्बोधित किया।

सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (दूसरी किश्त) 

1917 की समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने वाली बाेल्शेविक पार्टी कला की अहमियत के प्रति पूरी सचेत थी। वह जानती थी कि कला लोगों के आत्मिक जीवन को ऊँचा उठाने, उनको सुसंकृत बनाने में कितनी सहायक होती है। अभी जब सिनेमा अपने शुरुआती दौर में ही था, तो हमें उसी समय पर ही लेनिन का वह प्रसिद्ध कथन मिलता है, जो उन्होंने लुनाचार्स्की के साथ अपनी मुलाक़ात के दौरान कहा था, “सब कलाओं में से सिनेमा हमारे लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।” क्रान्ति के फ़ौरन बाद ही से सोवियत सरकार की तरफ़ से बाेल्शेविक पार्टी की इस समझ पर अमल का काम भी शुरू हो गया। जल्द ही ये प्रयास किये गये कि पूरे सोवियत संघ में संस्कृति के केन्द्रों का विस्तार किया जाये।

स्मृति में प्रेरणा, विचारों में दिशा : क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा

वर्तमान परिस्थिति पर हम कुछ हद तक विचार कर चुके हैं, लक्ष्य-सम्बन्धी भी कुछ चर्चा हुई है। हम समाजवादी क्रान्ति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी ज़रूरत राजनीतिक क्रान्ति की है। यही है जो हम चाहते हैं। राजनीतिक क्रान्ति का अर्थ राजसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताक़त) का अंग्रेज़ी हाथों में से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अन्तिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो। और स्पष्टता से कहें तो — राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रान्तिकारी पार्टी के हाथों में आना। इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा।