Category Archives: जाति प्रश्‍न

श्‍यामसुन्‍दर का जवाब: बौद्धिक दीवालियापन, बेईमानी, कठदलीली और कठमुल्‍लावाद का नया पुलिन्‍दा

किसी चिन्‍तक ने एक बार कहा था कि बहस का मक़सद हार या जीत नहीं होता है, बल्कि विचारों को विकसित करना होता है। जब आप बहस को अपनी कोर बचाने के मक़सद से करते हैं, तो आपको अपने एक कुतर्क को छिपाने के लिए दर्जनों कुतर्क गढ़ने पड़ते हैं, झूठ बोलने पड़ते हैं, बातें बदलनी पड़ती हैं और कठदलीली करनी पड़ती है। यह प्रक्रिया आगे बढ़़कर बौद्धिक बेईमानी में भी तब्‍दील हो जाती है। श्‍यामसुन्‍दर ने चार माह बाद जो 120 पेज का खर्रा लिखकर दिया है, उससे यही बातें साबित हुई हैं

जाति प्रश्न के विषय में श्री श्‍यामसुन्‍दर के विचार: अज्ञानता, बचकानेपन, बौनेपन और मूर्खता की त्रासद कहानी

ऐसी आलोचना से कुछ सीखा नहीं जा सकता; उल्‍टे उसकी मूर्खताओं का खण्‍डन करने में कुछ समय ही खर्च हो जाता है। लेकिन फिर भी, यदि आन्‍दोलन में ऐसे भोंपू लगातार बज रहे हों, जो कि वज्र मूर्खताओं की सतत् ब्रॉडकास्टिंग कर रहे हों, तो यह मार्क्‍स के शब्‍दों में बौद्धिक नैतिकता का प्रश्‍न बन जाता है और साथ ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं के शिक्षण-प्रशिक्षण का प्रश्‍न बन जाता है, कि इन मूर्खताओं का खण्‍डन सिलसिलेवार तरीके से और विस्‍तार से पेश किया जाय।

देशभर में लगातार जारी है जातिगत उत्पीड़न और हत्याएँ

जुझारू संघर्ष मेहनतकश दलितों को ही खड़ा करना होगा और इस लड़ाई में उन्हें अन्य जातियों के ग़रीबों को भी शामिल करने की कोशिश करनी होगी। ये रास्ता लम्बा है क्योंकि जाति व्यवस्था के हज़ारों वर्षों के इतिहास ने ग़रीबों में भी भयंकर जातिगत विभेद बनाये रखा है पर इसके अलावा कोई अन्य रास्ता भी नहीं है। जातिगत आधार पर संगठन बनाकर संघर्ष करने की बजाय सभी जातियों के ग़रीबों को एकजुट कर जाति-विरोधी संगठन खड़े करने होंगे तभी इस बदनुमा दाग से छुटकारा पाने की राह मिल सकती है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी क़ानून में ”बदलाव” – जनहितों में बने क़ानूनों को कमज़ोर या ख़त्म करने का गुजरात मॉडल

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी क़ानून में ”बदलाव” – जनहितों में बने  क़ानूनों को कमज़ोर या ख़त्म करने का गुजरात मॉडल सत्यनारायण (अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच, महाराष्ट्र) न्यारपालिका जब किसी अत्यन्त…

नये साल का पहला ही दिन चढ़ा जातिगत तनाव की भेंट जाति-धर्म के नाम पर बँटने की बजाय हमें असली मुद्दे उठाने होंगे

हर जाति के ग़रीबों को ये समझाने की ज़रूरत है कि उनकी बदतर हालत के असल जि़म्मेदार दलित, मुस्लिम या आदिवासी नहीं बल्कि ख़ुद उनकी ही व अन्य जातियों के अमीर हैं। जब तक मेहनतकश अवाम ये नहीं समझेगा तब तक होगा यही कि एक जाति अपना कोई आन्दोलन खड़ा करेगी व उसके विपरीत शासक वर्ग दूसरी जातियों का आन्दोलन खड़ा करके जनता के बीच खाइयों को और मज़बूत करेगा। इस साज़िश को समझने की ज़रूरत है। इस साज़िश का जवाब अस्मितावादी राजनीति और जातिगत गोलबन्दी नहीं है। इसका जवाब वर्ग संघर्ष और वर्गीय गोलबन्दी है। इस साज़िश को बेनक़ाब करना होगा और सभी जातियों के बेरोज़गार, ग़रीब और मेहनतकश तबक़ों को गोलबन्द और संगठित करना होगा।

भीमा कोरेगाँव की लड़ाई के 200 साल का जश्न – जाति अन्त की परियोजना ऐसे अस्मितावाद से आगे नहीं बल्कि पीछे जायेगी!

भारत की जनता को बाँटने के लिए अंग्रेज़ों ने यहाँ की जाति व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया था और धर्म का भी। अंग्रेज़ों ने जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए सचेतन तौर पर कुछ ख़ास नहीं किया। ऐसे में कोई अपने आप को जाति अन्त का आन्दोलन कहे (रिपब्लिकन पैन्थर अपने को जाति अन्त का आन्दोलन घोषित करता है) और भीमा कोरेगाँव युद्ध की बरसी मनाने को अपने सबसे बड़े आयोजन में रखे तो स्वाभाविक है कि वह यह मानता है कि अंग्रेज़ जाति अन्त के सिपाही थे! हक़ीक़त हमारे सामने है। ऐसे अस्मितावादी संगठन जाति अन्त की कोई सांगोपांग योजना ना तो दे सकते हैं और ना उस पर दृढ़ता से अमल कर सकते हैं। हताशा-निराशा में हाथ-पैर मारते ये कभी भीमा कोरेगाँव जयन्ती मनाते हैं तो कभी ‘संविधान बचाओ’ जैसे खोखले नारे देते हैं।

चुप रहना छोड़ दो! जाति‍ की बेड़ि‍यों को तोड़ दो!

पि‍छले 10-12 सालों में हरियाणा के मिर्चपुर, गोहाणा, भगाणा से लेकर कैथल में दलित उत्पीड़न की कई घटनाएँ ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी के साथ ही हुई हैं। असल में सरकार चाहे किसी पार्टी की हो, दलित उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार जारी रही हैं। पि‍छले साढ़े तीन सालों में गुज़रात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश से लेकर पूरे देश में दलित उत्पीड़न की घटनाएँ जिस क़दर बढ़ी हैं, उससे भाजपा-संघ सरकार की ”सामाजिक समरसता” की नौटंकी का पर्दाफ़ाश हो गया है। सहारनपुर में सवर्णों की बर्बर दबंगई का विरोध करने वाले जुझारू दलित नेता चन्द्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ को फ़र्ज़ी मुक़दमों में जेल भेजा गया, जेल में उनको बुरी तरह टॉर्चर किया गया, इलाज तक नहीं कराया गया और जब अदालत ने पुलिस को फटकार लगाते हुए उन्हें ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया तो प्रदेश की योगी सरकार के आदेश पर उन पर रासुका लगाकर दुबारा जेल में डाल दिया गया।

तटीय आन्ध्र में जाति‍ व्यवस्था के बर्बर रूप की बानगी

1990 के दशक में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद कम्मा, रेड्डी, राजू और कापु जैसी कुलक जातियों की आर्थिक शक्तिमत्ता में और इज़ाफ़ा हुआ क्योंकि इन जातियों से आने वाले धनी किसानों ने अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा मत्स्य पालन, नारियल के विशाल फ़ार्म, राइस मिल और तटीय आन्ध्र के शहरी इलाक़ों में होटल-रेस्तराँ व सिनेमा जैसे उद्योगों में लगाना शुरू किया। बाद में इस पूँजीपति वर्ग ने अपने अधि‍शेष को हैदराबाद में आईटी व फ़ार्मा कम्पनियों में तथा रियल एस्टेट, शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्रों में निवेश करना शुरू किया।

‘आज़ादी कूच’ : एक सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन के अन्तरविरोध और भविष्य का प्रश्न

हम एक बार यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि हमारी इस कॉमरेडाना आलोचना का मकसद है इस आन्दोलन के सक्षम और युवा नेतृत्व के समक्ष कुछ ज़रूरी सवालों को उठाना जिनका जवाब भविष्य में इसे देना होगा। आज समूचा जाति-उन्मूलन आन्दोलन और साथ ही हम जैसे क्रान्तिकारी संगठन व व्यक्ति जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में चल रहे इस आन्दोलन को उम्मीद, अधीरता और अकुलाहट के साथ देख रहे हैं। किसी भी किस्म का विचारधारात्मक समझौता, वैचारिक स्पष्टवादिता की कमी और विचारधारा और विज्ञान की कीमत पर रणकौशल और कूटनीति करने की हमेशा भारी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे इसका नतीजा तत्काल सामने न आये, तो भी।

जाति उन्‍मूलन का रास्‍ता दिखाते कुछ लेख, वीडियो

जाति का सवाल भारतीय समाज के सबसे ज्‍वलंत सवालों में से एक है। जनता को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने का ये एक ऐसा तरीका है जो यहां आने वाले हर शासक को भाया है। चाहे वो मुगल हों या अन्‍य मध्‍यकालीन शासक या फिर अंग्रेज, सबने जाति का इस्‍तेमाल यहां की जनता को बांटकर रखने के लिए किया। भारत के वर्तमान शासक भी अपवाद नहीं है। इसलिए भारत में मजदूर वर्ग को एकजुट करने के लिए व क्रांतिकारी परिवर्तन की किसी भी परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए जाति उन्‍मूलन के कार्यभार को ठीक से समझना होगा व उसके आधार पर एक देशव्‍यापी जाति विरोधी आन्‍दोलन खड़ा करना होगा।