13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम और शिक्षा एवं रोज़गार के लिए संघर्ष की दिशा का सवाल

इन्द्रजीत

इस समय देश के अलग-अलग हिस्सों में 13 पॉइण्ट विभागीय रोस्टर सिस्टम के ख़ि‍लाफ़ आन्दोलन हो रहे हैं। ऐसे में इस मुद्दे के सभी पहलुओं को समझना बेहद ज़रूरी हो जाता है। आरक्षण के आधार पर नियुक्तियों में क्रम विभाजन रोस्टर कहलाता है। देश में फ़िलहाल अनुसूचित जाति को 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को 7.5 प्रतिशत और अन्य पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ था। कुछ ही दिन पहले सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबक़ों को भी 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया है। यह आरक्षण सरकारी नौकरियों में भी लागू है। वर्ष 2006 में 200 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम लागू किया गया था। इसका मतलब किसी भी शिक्षण संस्थान या विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर होने वाली भर्ती का क्रम निर्धारित करने से था। उदाहरण के लिए 200 पॉइण्ट रोस्टर के तहत पहले तीन पद अनारक्षित या सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को, चौथा पद अन्य पिछड़ी जाति के उम्मीदवार को, पाँचवाँ और छठा पद फिर से सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को, सातवाँ पद अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को, आठवाँ पद अन्य पिछड़ी जाति के उम्मीदवार को, फिर 9वाँ, 10वाँ, 11वाँ पद सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को, फिर 12वाँ पद अन्य पिछड़ी जाति के उम्मीदवार को, फिर 13वाँ पद सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को और 14वाँ पद अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार को मिलना तय था। यानी कि 200 की संख्या तक आते-आते संवैधानिक तौर पर मिले आरक्षण के अनुसार नियुक्तियों का प्रावधान था। यह 200 पॉइण्ट रोस्टर संस्था या विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर लागू किया जाता था और भर्तियाँ भी संस्था के तौर पर ही निकलती थी ताकि आरक्षण के अनुसार विभिन्न तबक़ों को प्रतिनिधित्व मिल सके।

इस 200 पॉइण्ट रोस्टर के विरोध में कुछ संगठन इलाहाबाद उच्च न्यायालय चले गये। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अप्रैल 2017 के अपने फ़ैसले में संस्था के आधार पर लागू इस 200 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम को ख़त्म करके विभाग के आधार पर लागू किये जाने वाले 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम को लागू करने का आदेश दे दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इसी फ़ैसले को आधार बनाते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने 5 मार्च 2018 को तमाम विश्वविद्यालयों को एक पत्र भेजा जिसमें विभागवार 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम को लागू करने की बात कही गयी थी। इसके बाद हुई विभिन्न भर्तियों में आरक्षण का कुछ मतलब नहीं रह गया था। इसलिए तुरन्त ही विभिन्न संगठनों ने इस फ़ैसले का कड़ा विरोध किया। जब व्यापक विरोध होता दिखा तो सरकार ने इस फ़ैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ भारत सरकार ने मानव संसाधन मन्त्रालय (एमएचआरडी) और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के द्वारा दो स्पेशल लीव पिटीशन लगवायी गयी। 22 जनवरी 2019 को उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को सुरक्षित रखते हुए सरकार की अर्जी को ख़ारिज कर दिया। भाजपा ने इस मामले में उच्चतम न्यायालय में ढंग से पक्ष नहीं रखा, परिणामस्वरूप आरक्षित वर्ग के शैक्षणिक पदों के आरक्षण पर तलवार लटक गयी क्योंकि इस 13 पॉइण्ट रोस्टर में नियुक्तियों का क्रम विभाजन पुराना ही रखा गया है, किन्तु अब भर्तियाँ शिक्षण संस्था की बजाय विभाग के अनुसार होंगी। इसका नतीजा यह होगा कि कम से कम चार पद होने पर ही अन्य पिछड़े वर्ग का उम्मीदवार, कम से कम 7 पद होने पर ही अनुसूचित जाति का उम्मीदवार और कम से कम 14 पद होने पर ही अनुसूचित जनजाति का उम्मीदवार आरक्षण का फ़ायदा ले सकेगा। वरना उन्हें सामान्य वर्ग में ही प्रतियोगिता करनी पड़ेगी। अब विभाग में इतनी भर्तियाँ निकलती ही नहीं कि सभी को प्रतिनिधित्व मिल सके! यानी कुल-मिलाकर आरक्षण का ख़ात्मा। 

आरक्षित वर्ग की शिक्षा और नौकरियों में भागीदारी वैसे ही कम हो रही है, ऊपर से यदि 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम लागू होता है तो यह आरक्षित श्रेणियों के ऊपर होने वाला कुठाराघात साबित होगा। पहले ही अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियों से सम्बन्धित नौकरियों के बैकलॉग तक पारदर्शिता के साथ नहीं भरे जाते, ऊपर से अब 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम थोप दिया गया! इसकी वजह से नौकरियों में लागू किये गये आरक्षण या प्रतिनिधित्व की गारण्टी का अब कोई मतलब नहीं रह जायेगा। यही कारण है कि तमाम प्रगतिशील और दलित व पिछड़े संगठन 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम का विरोध कर रहे हैं। निश्चित तौर पर आरक्षण के प्रति शासक वर्ग की मंशा वह नहीं थी जिसे आमतौर पर प्रचारित किया जाता है। आरक्षण भले ही एक अल्पकालिक राहत के तौर पर था किन्तु यह अल्पकालिक राहत भी ढंग से कभी लागू नहीं हो पायी। इसी का परिणाम है कि आज तक भी दलित जातियों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है। बेशक संवैधानिक और जनवादी अधिकारों  के लिए संघर्ष के फ़लक पर आरक्षण को पारदर्शिता के साथ लागू करवाने का भी एक एजेण्डा बनता है। तमाम जनवादी ताक़तों को इसके लिए प्रयास भी करना चाहिए। किन्तु यह सोचना भी किसी मृग मरीचिका के पीछे भागने से कम नहीं है कि यदि आरक्षण पूरी तरह से लागू हो गया तो सभी को नौकरी मिल जायेगी। दलितों और तथाकथित पिछड़ों की हर मर्ज़ का इलाज आरक्षण को ही बताना और तमाम संघर्षों को आरक्षण तक ही सीमित रखना शासक वर्ग के झाँसे में आना ही है। 

बेशक मनुवादी सवर्ण मानसिकता के आधार पर आरक्षण को देखने और इसकी व्याख्या करने को हम ग़लत मानते हैं, किन्तु क्या अपने संघर्षों को केवल आरक्षण हासिल करने और हासिल आरक्षण की हिफ़ाज़त करने तक ही सीमित रखना पर्याप्त होगा? इसी तर्क के आधार पर हम आज के समय आरक्षण को शासक वर्गों के हाथों में जनता को बाँटने का एक हथियार मानते हैं। बेशक अपने क़ानूनी और संवैधानिक अधिकार के तौर पर आरक्षण को ईमानदारी से लागू करवाने, कोटे के तहत ख़ाली पदों को भरने के लिए आन्दोलन खड़े किये जाने चाहिए, किन्तु आज सबके लिए सामान और निःशुल्क शिक्षा और हर काम करने योग्य नौजवान के लिए रोज़गार के समान अवसर का नारा ही सर्वोपरि तौर पर तमाम जातियों की मेहनतकश जनता का साझा नारा बन सकता है।

आजकल तमाम अस्मितावादी और पहचान की राजनीति करने वाले रंग-बिरंगे कूपमण्डूक बड़ी ही गर्मजोशी के साथ इस नारे को उठाते हैं कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी! हमें यह बात समझनी होगी कि आबादी के अनुपात में आरक्षण के टुकड़े मिलने से भी कुछ नहीं होने वाला! नौकरियाँ लगातार घट रही हैं, बेरोज़गारी अपने चरम पर है! जनवरी 2019 के शुरू में आयी सीएमआईई की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार साल 2017 में 1 करोड़ 10 लाख नौकरियाँ कम हुई हैं। वहीं हाल ही में आयी एनएसएसओ की रिपोर्ट कहती है कि बेरोज़गारी की दर पिछले 45 साल के रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। चपरासी की 62 सीटों के लिए 93,000 लोग आवेदन कर रहे हैं जिनमें 5,400 पीएचडी होते हैं! 10,000 आरपीएफ़ जवानों की भर्ती में 95,00,000 लोग लाइन में होते हैं! ऐसे दौर में सिर्फ़ आरक्षण के भरोसे बैठने से आरक्षित आबादी को कुछ नहीं मिलने वाला है! चुनावी धन्धेबाज़ों के झाँसे में आकर सिर्फ़ आरक्षण तक ही अपने संघर्ष को सीमित रखना आत्मघाती होगा। वहीं सामान्य वर्ग को भी इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि उनकी नौकरियों के मार्ग में आरक्षित श्रेणियों के लोग ज़िम्मेदार हैं बल्कि उन्हें भी सरकारों की रोज़गार विरोधी नीतियों में अपनी समस्या को देखना चाहिए तथा यही नहीं एक न्यायपसन्द इन्सान के नाते हर वर्ग के अधिकारों पर हो रहे हमले का विरोध करना चाहिए। इसीलिए हमें अपने संघर्ष के फ़लक को विस्तार देना चाहिए। हर जाति, हर मज़हब की ग़रीब आबादी की एकजुट ताक़त ही सरकारों को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकती है और सबको शिक्षा और सबको रोज़गार के नारे में ही वह ताक़त है जो सबको एक एजेण्डे के तहत लामबद्ध कर सके।

अन्त में रोस्टर की ही बात पर वापस आते हैं। फ़िलहाल यूजीसी ने 13 पॉइण्ट रोस्टर को मान्यता दे दी थी, किन्तु अब मानव संसाधन मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने 13 पॉइण्ट रोस्टर पर दख़ल की बात की है और इसके तहत होने वाली भर्तियों को रुकवाने की मंशा ज़ाहिर की है। अब प्रकाश जावड़ेकर फ़रमा रहे हैं कि यदि न्यायालय के माध्यम से बात नहीं बनी तो सरकार विभागवार आरक्षण के निर्णय के खिलाफ़ अध्यादेश या विधेयक लायेगी! किन्तु भाजपा के लिए असल में यहाँ साँप-छछून्दर वाली स्थिति हो गयी है। एक तरफ़ दलितों के वोट बैंक के दूर छिटकने का ख़तरा तो दूसरी तरफ़ सवर्ण वोट बैंक की नाराज़गी का ख़तरा। ऊपर से चुनाव का मौसम दिनों-दिन नज़दीक आ रहा है। 13 पॉइण्ट विभागवार रोस्टर सिस्टम के ख़िलाफ़ देश-भर में विभिन्न रूपों में संघर्ष फ़िलहाल जारी है। जनता की व्यापक एकजुटता ही सरकार के क़दम पीछे हटा सकती है। निर्णय भले ही कोर्ट का हो, पर पूरा प्रकरण मोदी सरकार की मंशा को भी बेपर्द करता है!

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019


 

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