देशभर में लगातार जारी है जातिगत उत्पीड़न और हत्याएँ

बबन ठोके

जाति व्यवस्था और जातिगत उत्पीड़न हमारे समाज के चेहरे पर एक बदनुमा दाग है और यह एक त्रासदी है कि ख़त्म होने के बजाय यह और ज़्यादा सड़ाँध मार रही है। 10 जून को जलगाँव (महाराष्ट्र) जिले के वाकाडी गाँव में तीन दलित (मातंग जाति के) नौजवानों को कुएँ में स्नान करने के कारण ना सिर्फ बुरी तरह मारा-पीटा गया बल्कि उसके बाद नंगा करके पाहूर गाँव में घुमाया गया व वीडियो भी बनाकर वायरल किया गया। इससे पहले लातूर जिले के रूद्रवाडी गाँव में एक नवविवाहित जोड़े को मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ने के कारण पीटा गया था व उसके बाद गाँव के सभी मातंग परिवारों का आर्थिक बहिष्कार किया गया था। ज़्यादातर लोग मज़दूरी करने वाले थे व पूरी तरह ऊँची जाति के लोगों पर निर्भर थे इसलिए आर्थिक-सामाजिक बहिष्कार ने उनको गाँव छोड़ने पर मजबूर कर दिया। यह भी गौर करने वाली बात है कि उस गाँव की सरपंच भी मातंग जाति से थी पर जातिगत कहर से वो भी नहीं बच पायीं।

सिर्फ महाराष्ट्र से ही नहीं बल्कि पूरे देश से इस तरह की बर्बर घटनाएँ सामने आ रही है। 25 मई को तमिलनाडु के कचनाथम गाँव में तीन दलितों की हत्या कर दी गयी व दर्जनों को घायल कर दिया। इन दलितों का कसूर ये था कि ये उच्च जातीय लोगों पर आर्थिक रूप से निर्भर नहीं थे व कई लोग अच्छी नौकरियों में भी चले गये थे। इससे उच्च जाति वालों के जातिगत अहं को चोट लगी और उन्होने हमला कर दिया। गुजरात के अहमदाबाद से 110 किमी दूर एक क़स्बे में 13 साल के नौजवान को इसलिए मारा-पीटा गया कि उसने अच्छे कपड़े व जूते पहन रखे थे। मारने-पीटने वाले उच्च जातीय नौजवानों का कहना था कि वह ऊँची जाति के लोगों की तरह दिखना चाहता है इसलिए उसे सबक सिखाना जरूरी है। अभी हाल ही में देश के राष्ट्रपति कोविन्द के साथ भी मन्दिर में भेदभाव की बात सामने आयी थी। हालाँकि देश के सबसे ताक़तवर व्यक्ति और तीनों सेनाओं के अध्यक्ष राष्ट्रपति ने इस बात का खुद ज़्यादा विरोध नहीं किया।
पिछले कुछ दशकों की घटनाओं का अध्ययन करने पर हमें पता चलता है कि इन तमाम घटनाओं में अपराधी ज्यादातर ओबीसी किसान जातियों से आते हैं। गाँवों में दलित आबादी अधिकांशत: बड़ी किसान जातियों के यहाँ मज़दूरी करती है। जब दलित आबादी अपनी मज़दूरी बढ़ाने की माँग करती है तो इस तरह की घटनाएँ सामने आती हैं। कई जगहों पर जहाँ दलित आबादी शहरों में नौकरियाँ वगैरह करके थोड़ी अच्छी स्थिति में आ गयी वहाँ उच्च जाति के लोग इसलिए दमन-उत्पीड़न करते हैं कि इनकी हिम्मत सर उठाकर जीने की कैसे हो गयी। इसका एक दुखद उदाहरण हरियाणा के मिर्चपुर की घटना है जहाँ ताराचन्द नामक एक दलित बुजुर्ग व उसकी विकलांग बेटी को अप्रैल 2010 में ज़िन्दा जला दिया गया था।
आज भारत असंख्य जातियों में बँटा है। हर जाति के पास अपने से नीचे देखने के लिए एक जाति है। देश में जाति आधारित अनगिनत संगठन हैं। हर वक़्त देश में दलितों के प्रति हिंसा जारी रहती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हर दिन देश में तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, हर दिन दो दलितों की हत्या होती है। उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित छात्रों के प्रति होने वाला भेदभाव कितना है, ये इसी तथ्य से पता चलता है कि 2007 से उत्तर भारत व हैदराबाद के विश्वविद्यालयों में हुई 25 आत्महत्याओं में 23 दलित छात्रों की थी।
आज़ादी के बाद सत्ता में आये भूरे अंग्रेजों ने जाति का इस्तेमाल हर बार जनअसन्तोष को दबाने के लिए किया है। 1990 के दशक में जब उदारीकरण और निजीकरण के माध्यम से देश की जनता से बहुत कुछ छीना जा रहा था तब मण्डल कमीशन की राजनीति के माध्यम से पूरे समाज की जातीय गोलबन्दी कर दी गयी थी। आज जब आर्थिक संकट चरम पर है और सरकारी नौकरियां लगभग खत्म हो रही हैं तब भी जाट, गुर्जर, मराठा, पटेल आदि को जाति के आधार पर एकजुट कर शासक वर्ग अपना दाँव खेल रहा है। महाराष्ट्र में पिछले दो-तीन सालों में जो मोर्चाबन्दी जाति के नाम पर हुई है उसका भयंकर नुकसान आगे आने वाले समय में यहाँ की आम जनता को उठाना पड़ेगा।
यूँ तो सभी सरकारें जातिगत भेदभाव का फायदा उठाकर जनता को आपस में लड़ाती हैं ताकि लोग अपने अधिकारों की आवाज ना उठा पायें पर भाजपा इस मामले में सबसे आगे है। भाजपा को नियंत्रित करने वाली आरएसएस जाति व्यवस्था में घोषित तौर पर विश्वास करती है। यही कारण है कि सत्ता में आने के बाद भाजपा ने आरक्षण को अघोषित तौर पर ख़त्म करने की तैयारी कर ली है व सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से एससीएसटी एक्ट को कमज़ोर करने पर तुली है। इसलिए आज जाति व्यवस्था के विरुद्ध कोई भी आन्दोलन इन तमाम चुनावबाज़ दलों के विरुद्ध आम मेहनतकश जनता की एकता से ही आगे बढ़ सकता है।
महाराष्ट्र व देश के अन्य इलाकों में जो बर्बर दलित उत्पीड़न की हालिया घटनाएँ हुई हैं उसके विरुद्ध सभी इंसाफ़पसन्द लोगों को सड़क पर उतरना होगा ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं को होने से रोका जा सके। सभी मज़दूर भाइयों और बहनों को भी ये याद रखना होगा कि अगर तुम दलित मेहनतकश साथियों को ग़ुलाम समझोगे तो तुम स्वयं भी पूँजी की ग़ुलामी करते रहने के लिए अभिशप्त होगे! अन्य सभी जातियों के मेहनतकश मज़दूर साथियों, नौजवानों को ये आज विशेष तौर पर समझना होगा कि जब तक मज़दूर वर्ग जाति के नाम पर बँटा रहेगा तब तक पूरा मज़दूर वर्ग बदहाल रहेगा। आज नौजवानों को आरक्षण के नाम पर आपस में लड़वाया जा रहा है। एक-एक पद के लिए लाखों आवेदन आ रहे हैं। अब उस पद पर आरक्षण हो या ना हो, बाक़ी लाखों नौजवानों को तो बेरोज़गार ही घूमना है। ऐसे में आरक्षण ख़त्म करवाने, थोड़ा आरक्षण इस या उस जाति का बढ़ा देने जैसे मुद्दों पर मोर्चे निकालकर अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करनी चाहिए बल्कि सरकार से समान शिक्षा और पक्के रोज़गार की गारण्टी की लड़ाई लड़नी चाहिए।
मेहनतकश दलित साथियों को शहीदे-आज़म भगतसिंह के ये शब्द याद रखने होंगे, “उठो, अपनी शक्ति पहचानो! संगठनबद्ध हो जाओ! असल में स्वयं कोशिश किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा। स्वतन्त्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को यत्न करना चाहिए—कहावत है, ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते।’ अर्थात् संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इंकार करने की जुर्रत नहीं कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक न बनो। दूसरों के मुँह की ओर मत ताको। लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झाँसे में मत फँसना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है।” (‘अछूत समस्या’, भगतसिंह) शहीदे-आज़म के ये शब्द मानो आज के लिए ही लिखे गये हों। आज इसी कार्यदिशा को समझने की ज़रूरत है। साथ ही ये भी समझने की ज़रूरत है कि समाज में मौजूद ऐसी घटिया सोच के ख़िलाफ़ राष्ट्रपति कोविन्द जैसे ताक़तवर दलित कभी संघर्ष नहीं करेंगे। भले ही जातिगत अपमान का सामना सभी दलितों (यहां तक कि नौकरशाहों, मंत्रियों और ऊपर पहुँच चुके अन्य दलितों) को करना पड़ता है पर जातिगत उत्पीड़न के बर्बरतम रूपों का सामना तो मेहनतकश दलितों को ही करना पड़ता है। इसलिए जुझारू संघर्ष मेहनतकश दलितों को ही खड़ा करना होगा और इस लड़ाई में उन्हें अन्य जातियों के ग़रीबों को भी शामिल करने की कोशिश करनी होगी। ये रास्ता लम्बा है क्योंकि जाति व्यवस्था के हज़ारों वर्षों के इतिहास ने ग़रीबों में भी भयंकर जातिगत विभेद बनाये रखा है पर इसके अलावा कोई अन्य रास्ता भी नहीं है। जातिगत आधार पर संगठन बनाकर संघर्ष करने की बजाय सभी जातियों के ग़रीबों को एकजुट कर जाति-विरोधी संगठन खड़े करने होंगे तभी इस बदनुमा दाग से छुटकारा पाने की राह मिल सकती है।

(मराठी से हिन्दी अनुवाद – सत्यनारायण)

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018


 

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